Saturday, 25 December 2021

364 अंधविश्वास


मन का स्वभाव ही यह होता है कि वह वैसा ही आकार ले लेता है जिसके संबंध में वह सोचता है । अंधविश्वास चाहे सामाजिक हो या मानसिक या आध्यात्मिक वह मन को चिंता में डाल कर कष्टों की ओर धकेल देता है। उसका मानसिक संतुलन इस प्रकार विगड़ जाता है कि वह अपनी शांति ही नहीं खोता वरन् वह इस प्रकार के काम भी कराने लगता है जो उसके स्वयं के लिए हानिकारक होते हैं। अंधविश्वास अपना पोषण स्वयं ही करता जाता  है क्योंकि इस पर विश्वास करने वाले लोग छोटी छोटी सी घटनाओं को इस प्रकार बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं कि दुलर्क्षण भी अच्छे लगने लगते हैं। मन के इसी लक्षण के कारण लोगों को भूत दिखाई देते हैं जो कि मन की ही रचनाएं होते हैं। भूतों का रहस्य यह है कि यदि भूत देखने वाला व्यक्ति भूत को पकड़ने का साहस कर ले  तो तत्काल समझ जाएगा कि वह तो कुछ नहीं को सब कुछ समझ रहा था।

सामाजिक स्तर पर डाइन, जादूगरनी, विधवाओं के साथ भेदभाव आदि के रूप में, मानसिक स्तर पर भूतों के रूप में, श्राद्ध त्योहारों के रूप में, और आध्यात्मिक स्तर पर स्वर्ग और नर्क की अवधारणाओं के रूप में अन्धविश्वास ने गहरी जड़े जमा रखी हैं। अमीर गरीब, प्रकांड विद्वान और निरक्षर, सहित अधिकॉंश जनसंख्या का इसने गला पकड़ रखा है। सामाजिक और व्यक्तिगत शान्ति संरक्षित रखने के लिए हमें प्राथमिकता से इसके विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए।

हमारे देश के तो वैज्ञानिक भी इनसे नहीं बच पाए हैं, जैसा कि हर अच्छे काम के प्रारंभ में चाहे धंधा हो, राजनीति हो फिल्मों का उदृघाटन हो, या सेटेलाइट का प्रक्षेप हो तथाकथित पूजा और नारियल फोड़ने का कार्य अवश्य किया जाता है। यह एक संयोग भी कहा जा सकता है कि भारत का पहला मंगल यान मंगल के दिन ही असफल होकर गिर गया था भले ही इसरो के चेयरमेन के0 राधाकृष्णन ने प्रक्षेपित करने के एक दिन पहले तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर में विधिविधान से उसकी सफलता के लिए पूजा की थी। उनसे जब इस विषय पर चर्चा की गई तब वह बोले कि वह तो अपने पूर्ववर्ती जी0 राधवन नायर का ही अनुकरण कर रहे थे जो अपने कार्यकाल में हर सेटेलाइट के प्रक्षेपित होने के पहले पूजा किया करते थे। नेशनल स्टाक एक्सचेंज जैसे व्यवसाय में भी लक्ष्मी जी की उचित मुहूर्त में पूजा की जाती है। ज्योतिषियों के अनुसार मुहूर्त वह समय होता है जब ग्रहों की स्थिति सभी प्रकार की बाधाओं को और संकटों को दूर करने के लिए अनुकूल होती है। कई लोग मुहूर्त में सांकेतिक रूप से अपने थोड़े से धन से धंधा प्रारंभ कर देते हैं और मानते हैं कि अब साल भर शुभत्व बना रहेगा, दीवाली मुहूर्त का इसीलिए बड़़ा ही महत्व माना जाता है? किसी भी नई फिल्म को दिखाने के पहले मुहूर्त में उसकी पूजा की जाती है। चुनावों के समय नेता भी अलग अलग धर्मों के प्रसिद्ध स्थानों पर जाकर पूजा अर्चना करते पाए जाते हैं। केलेंडर में इन मुहूर्तों को अलग से दर्शाया जाता है।(1)

आस्था, मान्यता और परम्परा के नाम पर इस प्रकार के अंधविश्वास हमारे ही देश में नहीं अन्य देशों में भी देखे जाते हैं। अमेरिका में बास्केटवाल का कोच यह मांग रखता है कि हर खेल के पहले उसके खिलाड़ी स्टीक और सालम का एक सा भोजन खायेंगे। कुछ कोच जीतने की प्रवृत्ति के प्रभाव में एक ही स्वेटर हर खेल में बिना धोए ही पहिनना अच्छा मानते  हैं । कुछ खिलाड़ी खेल के पूर्व भोजन करते समय यह मांग रखते हैं कि उनका सेंडविच तिर्यक रूप से बिलकुल एक समान काटा जाना चाहिए। कुछ खिलाड़ी जीतने तक अपनी दाढ़ी बढ़ाये रहते हैं। लकड़ी को खटखटाना, तारे को नमस्कार करना, दर्पण को तोड़ना, चार पत्तों वाली वनमैथी को रखना, घर के भीतर छाता न खोलना, भाग्यशाली सिक्का रखना, जब छींक आए तब शुभ हो कहना आदि, अनेक प्रकार के अंधविश्वासों से अमेरिका की लगभग आधी जनता  अंधविश्वास पालती है। अनेक लोग अंधविश्वास करते है क्योंकि जीवन अनिश्चित होता है और जब हम चाहते हैं कि कुछ घटित हो और उसके होने की निश्चितता नहीं होती तो वे उसे वैसा ही मान लेते हैं। अंधविश्वास हमें  उस अवस्था में नियंत्रण करने की भावना देता है जहॉं हम नियंत्रित नहीं हो पाते।(1) (2)

विश्व के कुछ दर्शन अपने ही समाज को सिखाते हैं कि केवल वे और उनका समाज ही ईश्वर के लिए प्रिय है अन्य सभी अप्रिय और अभिशप्त। इस प्रकार के दोषपूर्ण शिक्षण से उस समाज के लोग अन्य समाजों के निरपराध व्यक्तियों के लिए समाप्त कर देना पवित्र कार्य मानते हैं । वे इन निरपराध लोगों के खून में स्नान कर अपने को पवित्र, धन्य और मुक्त मानते हैं। उनका दर्शन इस प्रकार का है कि दूसरों को मदद करना, रक्षा करना आदि सद्गुणों का उपयोग वे अपने ही समाज के लोगों के साथ करते हैं दूसरे समाज के लिए नहीं। इस प्रकार की अपंग व्याख्या ने जानबूझकर लोगों को धर्म का सही अर्थ जान पाने से वंचित कर दिया है । वे मानवीय गुणों से भटक रहे हैं तथा एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। कुछ झूठे दर्शनों के पालनकर्ता तर्क देते हैं कि अपनी बुद्धि का उपयोग करना क्या बुरा है? हम अपनी बुद्धि से पराक्रम कर धन अर्जित करते हैं तो क्या बुरा है? इस प्रकार के परजीवियों ने लाखों लोगों के हक पर अतिक्रमण कर अपने को महलों में स्थापित कर लिया है और असंख्य लोग अपने अस्थिपंजर के साथ आसमान के नीचे बसर करने को विवश हैं। इस प्रकार के लोगों ने ही जनसामान्य को नैतिकता और धर्म से हटाकर भौतिकवाद की मरीचिका वाले सुखों की ओर भटका दिया है। (3) 

संदर्भ

(1) विकीपीडिया ।

(2) याहू हेल्थ, स्टुआर्ट वायस, साइक्लाजी आफ सुपरस्टीशन।

(3) नमः शिवाय शान्ताय, प्रवचन 14


Tuesday, 21 December 2021

363 गान्धारी

गान्धारी

महाभारत काल में ‘कान्दाहार’ नामक क्षेत्र को भारत का प्रत्यन्तदेश अर्थात् सुदूर सीमावर्ती देश कहा जाता था। यहॉं के सामाजिक रीति रिवाज भारत जैसे ही थे परन्तु यह भारत के अन्तर्गत नहीं था। उस समय लोग सहज नैतिकता का पालन करते थे। गान्धारी, कान्दाहार (संस्कृत में गान्धार) देश की महिला थीं। महाभारत में अनेक महिलाओें के नाम आए हैं परन्तु विशेष विवरण कुन्ती या द्रौपदी के बारे में ही मिलता है वह भी उनकी कष्टों की सहनशीलता के संबंध में, परन्तु गान्धारी का चरित्र सबसे भिन्न है। यह सर्वविदित है कि गान्धारी को जब पता चला कि उनका पति जन्मान्ध है तो उन्होंने अपनी आंखों पर यह कहते हुए पट्टी बांध ली कि जब मेरा होने वाला पति संसार को देख ही नहीं सकता तो वह भी क्यों देखे। यह उनकी सहज नैतिकता ही कही जाएगी कि उनके आंसू आजीवन इसी पट्टी में सूखते रहे। कुछ विद्वान इस कार्य से उनकी आलोचना करते पाए जाते हैं कि उनके द्वारा अपनी आंखों पर पट्टी बांध लिये जाने के कारण उनके पुत्र विगड़ गए और सामाजिक बुराई के पर्याय बन गए। इस कथन को ठीेक मान भी लें तो भी उनका यह व्रत क्या कठोर नैतिक बल को प्रदर्शित नहीं करता? वह भगवान कृष्ण के चरित्र के महत्व से विशेष रूप से अवगत थीं और उनकी भक्त थीं। गान्धारी ने अपनी आंखों के ऊपर बंधी पट्टी केवल दो बार खोली। पहली बार अपने स्वामी धृतराष्ट्र के निर्देश पर और दूसरी बार कृष्ण को देखने के लिये।

युद्ध प्रारंभ होने के समय धृतराष्ट्र ने दुर्योधन और उसके भाइयों को निर्देश दिया कि वे अपनी माता के पास जाकर उनसे सस्नेह दृष्टिपात करते हुए युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद मांगे ताकि उनके मानस शक्तिसम्पात से उन सबकी देह लोहे की तरह कठोर हो जाय। प्रारंभ में गान्धारी यह करने को अनिच्छुक थीं पर जब स्वयं धृतराष्ट्र ने गान्धारी को ऐसा करने का निर्देश दिया तब उन्होंने मान लिया और कुछ क्षणों के लिये पट्टी खोल दी। यह उनकी स्वामी भक्ति प्रदर्षित करती है पर इससे बढ़कर उनका उन्नत चरित्र अपने पुत्रों को दिये गये आशीर्वाद से स्पष्ट होता है। क्या आप जानते हैं कि उन्होंने अपने पुत्रों को ‘विजयी भव’ नहीं कहा वरन् यह कहा कि ‘‘यतो कृष्णः ततो धर्मः, यतो धर्मः ततो जयः।‘‘ स्पष्टतः यह उनकी चारित्रिक दृढ़ता ही नहीं धार्मिकता की पराकाष्ठा ही कही जाएगी। 

दूसरी बार गान्धारी ने पट्टी खोली थी कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद जब पूरा कुरुक्षेत्र महाश्मशान में बदल गया था और गान्धारी की सभी विधवा पुत्रवधुएं अपने अपने पति की मृत देह के पास खड़ी हुई विलाप कर रहीं थी। माता कुन्ती के साथ वहां पर गान्धारी आईं, पांडव भाई और भगवान कृष्ण भी वहॉ उपस्थित थे। यहॉं पर उनके वार्तालाप पर विचार कीजिए-

कृष्ण ने गान्धारी को सान्तवना देते हुए कहा ‘‘माता! आप क्यों रोती हैं, पृथ्वी का यही नियम है, हम सभी एक दिन पृथ्वी छोड़ कर चले जाएंगे अतः विलाप क्यों?’’ गान्धारी ने कहा‘‘ कृष्ण ! तुम मुझे व्यर्थ ही सान्तवना दे रहे हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता।’’ कृष्ण ने कारण जानना चाहा। गान्धारी ने कहा,‘‘ तुम यदि यह परिकल्पना न करते तो मेरे पुत्रों का प्राणनाश नहीं होता।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘धर्म की रक्षा करने और पाप के विनाश हेतु यह करना अनिवार्य हो गया था मैं इसमें क्या कर सकता था, मैं तो यंत्र मात्र हॅूं।’’ गान्धारी बोली, ‘‘ कृष्ण तुम तो ‘तारक ब्रह्म’ हो अगर चाहते तो युद्ध किये बिना ही मेरे पुत्रों के मनोभाव में परिवर्तन ला सकते थे।’’ बोलने को बहुत कुछ था परन्तु कृष्ण चुप रहे क्योंकि वास्तव में वह चाहते थे कि गान्धारी को भी भीष्म पितामह की तरह कठोर नीतिवादी होने का गुरुत्व मिले।  

इससे गान्धारी के मन में उमड़ रहा क्र्रोध किस स्तर पर रहा होगा इसका अंदाज लगाना किसी को भी कठिन नहीं है परन्तु उसे व्यक्त करने के लिये उन्होंने अपनी सीमा नहीं तोड़ी। वह जानती थी कि कृष्ण तारक ब्रह्म हैं अतः कुछ भी करने के पहले उनसे स्वीकृति लेना आवश्यक है इसलिए बोली, ‘‘ कृष्ण! मैं तुम्हें श्राप देना चाहती हॅूं’’। कृष्ण भी तत्काल बोले, ‘‘आज्ञा करें माता!’’  इसके बाद गान्धारी ने कृष्ण को अभिशाप दिया कि ‘‘ जैसे मेरे परिवार के सदस्यगण मेरी ही आंखों के सामने ध्वंस हो गए वैसे तुम्हारा वंश भी ध्वंस हो जाय’’ कृष्ण ने भी तत्क्षण स्वीकार करते हुए कहा ‘‘एवमस्तु’’ अर्थात् यही हो। और, हुआ भी वही। यदि वे स्वीकार न करते तो अवस्था दूसरे प्रकार की होती। कृष्ण ने उनका श्राप इसलिये स्वीकार कर लिया क्योंकि वह चाहते थे कि नैतिक षक्ति को जनजीवन में गुरुत्व एवं स्वीकृति मिले। 


Tuesday, 7 December 2021

362 द्रौपदी

 महाभारत कालीन द्रौपदी के संबंध में कुछ विद्वानों को अनेक प्रकार के भ्रम पैदा हो गए हैं और वे साहित्य की मनमानी व्याख्या कर दूसरों को भी भ्रमित करते देखे जा सकते हैं। इस संबंध में मेरा विचार इस प्रकार है-

1. हमारे समृद्ध प्राचीन संस्कृत साहित्य की सौदर्य हैं उसके छंद, अलंकार, अन्योक्तियॉं, व्यंग्योक्तियॉं और अतिशयोक्तियॉं। इन पर सावधानीपूर्वक ध्यान दिये बिना उसका रसास्वादन कर पाना कठिन है। अन्य तथ्य यह भी है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व में घटित घटनाओं का अध्ययन यदि हम आज के संदर्भ में करना चाहते हैं तो हमें मनोयोग से उस काल की सामाजिक व्यवस्थाओं, प्रचलित प्रथाओं, मान्यताओं, भौगोलिक और सांस्कृतिक विषमताओं पर  अपने विवेकपूर्ण चिंतन को ले जाना होता है अन्यथा स्वयं भ्रमित होते हैं और दूसरों को भी भ्रमित करते हैं।‘‘द्रौपदी के पांच नहीं एक ही पति था,’’ इस लेख के लेखक ने भी यही भूल की है। 

2. सर्वविदित है कि वैदिक युग में तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था में बहुपति प्रथा, बहुपत्निप्रथा, बहुसंतान प्रथा, नियोग प्रथा आदि की सामाजिक स्वीकृति थी भले ही आज के समाजविज्ञान की दृष्टि से इसे उचित नहीं कहा जा सकता। महाभारत काल के आने तक नियोग प्रथा, बहुपत्नि प्रथा और बहुसंतान प्रथा प्रचलन में बनी रही, पर बहुपति प्रथा कुछ जनजातीय राज्यों जैसे तत्कालीन उत्तर भारत की मंगोल जाति जिसे पिशाच कहा जाता था, में प्रचलित थी। आज भी तिब्बत और लद्दाख की कुछ जातियों में यह पाई जाती है। महाभारत के सभी पात्रों की एक से अधिक पत्नियॉं, बहुत संतान या नियोगज सन्तान और कुछ पात्रों में बहुपतियों का पाया जाना तात्कालिक सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप ही था जिसे अनुचित नहीं माना जा सकता। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर तथा पांचों पांडव नियोगज संतान ही थे। कुन्ती के वैवाहिक पति पांडु थे परन्तु विवाह पूर्व उन्होंने सूर्य से कर्ण और विवाह के बाद यम से युधिष्ठिर, वायु से भीम और अग्नि से अर्जुन को जन्म दिया। इस प्रकार उनके भी पांच पति हुए।

3. द्रौपदी थीं पांचाल देश (गंगा के उत्तरी में हिमालय के ऊपरी क्षेत्र से आज के बुदौन, फर्रुखाबाद तथा उत्तरप्रदेश के इस भाग से जुडे़ जिलों तक फैला जनजातीय भूभाग) के नरेश द्रुपद की पुत्री जिसका नाम कृष्णा था पर द्रुपद की पुत्री के कारण लोग द्रौपदी और पांचाल देश की पुत्री होने के कारण पांचाली नाम से भी पुकारते थे। यह सही है कि पांचों पाडव भाई  द्रौपदी के पति थे जिनसे प्रत्येक से क्रमशः एक एक वर्ष के अन्तर पर एक एक पुत्र थे जिनके नाम हैं, प्रतिविन्ध्य, सुतलोक, श्रुतकर्म, शतनिक और श्रुतसेन। महाभारत के आदिपर्व के हराहरण पर्व के अध्याय 220 में द्रौपदी के पॉंचों पुत्रों और अभिमन्यु के जन्म संस्कार के वर्णन में यह दिया गया है। द्रौपदी और कुन्ति दोनों ही पंचकन्याओं में स्थान पाती हैं क्योंकि वे दोनों ही श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थीं।

4. लेखक द्वारा जिन श्लोकों का उद्धरण देकर अपना मत पुष्ट करना चाहा गया है उन्हें स्पष्ट करते समय तात्कालिक परिस्थतियों (अज्ञातवास) और साहित्यिक व्यंगोक्तियों पर ध्यान नहीं दिया जाकर एक पक्षीय रूपान्तरण कर दिया गया है। भीम और द्रौपदी के संवाद में द्रौपदी का कथन ‘‘ क्या पूछते हो! युधिष्ठिर की पत्नि होकर दुख न पाऊं, यह कैसे हो सकता है?’’ यह व्यंगोक्ति नहीं तो और क्या है? कीचक के सामने भीम का कथन, ‘‘ आज मैंने अपने भाई की पत्नि का अपमान करने वाले को दंड देकर उऋण हो मन को शांत किया।’’ यह भी लेखक ने स्थान और परिस्थिति पर ध्यान न देकर अपने एकपक्षीय चिंतन के समर्थन में मान लिया जबकि सर्वविदित है कि राजा विराट के पास ये सभी अपनी पहिचान छिपाकर नाम बदलकर युधिष्ठिर को बड़ा भाई और द्रौपदी को उनकी पत्नी बताकर संरक्षण पाये थे। जरा सोचिए कीचक के सामने क्या वे अपने को द्रौपदी का पति बताकर उक्त कथन को कह सकते थे?


Wednesday, 1 December 2021

361 नजर

 361

निशिदिन 

व्यस्त वंचनाओं में 

सुनते कर्कश कलरव,

मृत्यु समय पर्यन्त 

सुसज्जित

गीततान न गा पाई।


तरस तरस कर 

धीरज धर धर 

मन को बोध कराके,

झॉंकी भी 

जिनने न कभी उन दिव्य 

कल्पनाओं की देखी।


दत्तचित्त रह 

नित्य परिश्रम में 

निज को न निहारा,

सुना उलहना 

निठुर भूख का 

आस ‘शॉंत‘ की देखी।


ध्यान जरा 

उनका भी कर लो 

धन अट्टालिका वालो,

जिनने कभी स्वप्न में भी 

निज तन पर 

नजर न फेकी।


सब कहते हैं 

झुग्गियॉ जिनको

वे हैं उनकी जगहें,

शामें जिनकी थकी हुई हैं

कराह रहीं हैं सुबहें।


मान शहर का ‘दाग‘

मिटाने तुले 

लोग.. 

उनकी दिया बत्ती, 

सृष्टि के इस अभिन्न अंग की 

करुण दशा को 

सदा ही घेरे नई विपत्ति।


आज तुम्हारा 

जो है अपना

कल होगा औरों का,

इसे समझ कर आज, 

अभी से

करो मदद इन सबकी।

- डॉ टी आर शुक्ल, सागर मप्र।

10ः05ः1970


Sunday, 15 August 2021

360 सहज नैतिकता और आध्यात्मिक नैतिकता


मनुष्य स्वाभाविक रूप से नैतिक है पर समय के प्रभाव से कुटिलता ने उसके जीवन में स्थान पा लिया और वह अनैतिक होता चला गया। जब किसी के मन में यह बोध दृढ़ होंता है कि ‘‘ मैंने अपराध नहीं किया है, आज भी नहीं करता हॅूं और भविष्य में भी नहीं करूंगा’’ तो उसमें नैतिक बल अवश्य  ही जागेगा। गुंडे, बदमाश , चोर और नशाखोर व्यक्ति शारीरिक रूप से कितने ही बलशाली हों पर उनमें नैतिक बल नहीं होता इसीलिए पुलिस को देखते ही डर जाते हैं। नैतिक व्यक्ति शारीरिक रूप से कमजोर भले हो पर पुलिस से वह भयभीत नहीं होगा। 

सहजनैतिक व्यक्ति यदि प्रतिज्ञा करेगा तो पूरी करने में कसर नहीं छोड़ेगा, किसी ने उसका उपकार किया है तो उसे भूलेगा नहीं वरन् कृतज्ञ रहेगा। सहज नैतिक व्यक्ति को कुटिल लोग अपने कपट जाल में फंसा कर उनका शोषण करते देखे जाते हैं। इस प्रकार के अनेक उदाहरण है जिनमें किसी व्यक्ति को संकट में फंसाया जाकर उसे बचा लेना और बाद में उसकी कृतज्ञता का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा करना आदि। सहजनैतिक व्यक्तियों में आध्यात्मिक नैतिकता की कमी होने से वे कुटिल लोगों के चंगुल में फंसे रहने को विवश  हो जाते हैं। 

आध्यात्मिक नैतिकता उत्पन्न करने के लिए सहजनैतिक व्यक्ति को ब्रह्म साधना पद्धति का अनुसरण करने की आवश्यकता  होती है जिसका सुयोग विरले लोगों को ही होता है। इस पद्धति से जीवन यापन करने वालों की बुद्धि अत्यंत उन्नत हो जाती है जिससे वे किसी भी भ्रमजाल में नहीं फंसते। सहतनैतिक व्यक्ति आदर के पात्र हैं उनके पास नैतिक बल होता है पर आध्यात्मिक नैतिक व्यक्ति के पास नैतिक बल के साथ बुद्धि का बल भी होता है अतः वे देश  काल और पात्र के अनुसार अपने को व्यवस्थित करते हुए अपने नैतिक बल का उपयोग कर सकते हैं।

किसी भी युग में कुटिल और धूर्त लोगों की कमी नहीं रही, आज भी उन्हीं का वर्चस्व देखा जाता है। प्रतिज्ञाओं से भरे महाभारत काल में तो सहजनैतिक लोगों के अनेक उदाहरण मिलते हैं। जैसे, भीष्म और कर्ण दोनों ही महान, अजेय योद्धा और धार्मिक व्यक्ति थे पर थे केवल सहजनैतिक। भीष्म का कहना था कि उन्होंने दुर्योधन का अन्न खाया है इसलिए दुष्ट होते हुए भी युद्ध में उसका साथ देंगे। कर्ण भी दुर्योधन के उपकारों से दबे थे अतः सहजनैतिकता से ही उसके हर विचार को न चाहते हुए भी सहमति देते थे और युद्ध भी उसी के पक्ष में लड़े। यदि ये दोनों आध्यात्मिक नैतिकता का उपयोग करते तो कह सकते थे कि देखो दुर्योधन! तुमने हमारे ऊपर बहुत उपकार किए हैं जिनके हम कृतज्ञ हैं इसलिए यह सुझाव दे रहे हैं कि अनीति पर चलना छोड़ दो अन्यथा हम तुम्हारा साथ नहीं दे सकते।

सहजनैतिकों और आध्यात्मिक नैतिकों में बस यही अन्तर है।


Wednesday, 11 August 2021

359 युधिष्ठिर

  युधिष्ठिर  अर्थात् जो व्यक्ति युद्ध जैसी परिस्थितियों में भी मानसिक रूप से स्थिर रहता है, उद्वेलित नहीं होता है वह युधिष्ठिर है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अनगिनत ब्लेक होल, गेलेक्सियां, तारे और उल्काएं लगातार उत्पात मचाते रहते हैं परन्तु आकाश  अर्थात् ‘स्पेस’ किसी भी प्रकार से उद्वेलित नहीं होता वह सदा ही एकरस बना रहता है इसलिए वह युधिष्ठर है। विद्यातन्त्र में पांचों पांडवों को पंचतत्व का रूपक दिया गया है, इसके अनुसार युधिष्ठिर आकाश  तत्व को प्रदर्शित करते  हैं। महाभारत में युधिष्ठिर  से अन्य अनेक प्रश्न  पूछने वाले यक्ष ने जब यह पूछा कि धर्मतत्व का सही सही मार्गदर्शन  करने वाला रास्ता कौन सा है? तब युधिष्ठिर ने कहा, इसमें बड़ा ही कन्फ्युजन है क्योंकि यदि श्रुतियों के रास्ते को माने तो वे चार चार हैं उनमें से किसके अनुसार चलें यह कहना कठिन है क्योंकि उनमें एकरूपता नहीं है। यदि स्मृतियों पर विचार करें तो यही विरोधाभास उनमें भी है और इतना ही नहीं जिन्हें हम आदर्श मार्गदर्शक   मानते हैं उन ऋषिमुनिगणों में भी किन्हीं दो महानुभावों का सिद्धान्त एकसमान नहीं पाया जाता हैं। 

इसलिए मेरे विचार में तो सही रास्ता वही है जिसका अनुसरण करते हुए अनेक लोग साधारण अवस्था से ऊपर उठकर महापुरुषों के रूप में समाज में आज भी आदर पाते है।

Friday, 30 July 2021

358 गोप


वृन्दावन के गोपगण, कृष्ण के अन्तरंग सखा थे। वे अपनी गाय भैंस चराने और कृष्ण के साथ खेलते हुए अधिक आनन्दित होते थे। उन्हें यह नहीं मालूम था कि कृष्ण इस विश्व  ब्रह्माण्ड के नियामक, प्राण पुरुष, पुरुषोत्तम हैं। उन्हें यह बड़ी बड़ी बातें जानने की आवश्यकता  ही नहीं थी। वे तो केवल यह जानते थे कि कृष्ण कन्हैया केवल उनका सबसे प्रिय है, उनका अभिन्न है, वे उससे पृथक नहीं हो सकते। जब अक्रूर के साथ कृष्ण मथुरा जाने लगे तब वे सभी उनके रथ के पहिए के नीचे लेट गए और कहने लगे कि वे उन्हें बृज से जाने नहीं देंगे। पर कृष्ण की तो अपनी योजनाएं थीं अतः वे अवश्य ही जाएंगे और बताइए, गोप गोंपियां उन्हें रोक रही हैं। अक्रूर के बहुत समझाने पर भी बात न बनी तो वे केवल इस बात पर कम्प्रोमाइज करने को सहमत हो गई कि यदि कृष्ण कह दें कि वे लौट कर वृन्दावन वापस आएंगे तो पहिए के नीचे से वे सब हट जाएंगे। अब कृष्ण आज के राजनेताओं की तरह झूठ तो बोल नहीं सकते थे, उन्हें वोट तो पाना नहीं था कि वे झूठा आश्वासन  देे देते। वे जानते थे कि वे अब वापस नहीं आएंगे, उन्हें तो बड़े बड़े काम करना हैं अतः उन्होंने अपने उन भाभुक भक्तों को भावमयी भाषा में ही कहा ‘‘मेरा शरीर बृज से दूर रह सकता है पर मेरा मन सदा बृज की धूल में लोटता रहेगा।’’ बस, इस भावप्रवण मधुरिमा ने भक्त गोपगोपियों का मन गदगद कर दिया। गोप का अर्थ होता है, ‘‘गोपायते इति सः गोपाः’’। यानी, वे व्यक्ति जिनके जीवन का एकमेव उद्देश्य  परमपुरुष को आनन्दित करना है वे हैं गोप। भक्ति के अनेक प्रकारों में से सर्वश्रेष्ठ प्रकार है ‘रागात्मिका भक्ति’ इसमें भक्त की भावना यह होती है कि मुझे चाहे जितना कष्ट मिले मेरे प्रभु मेरी ओर से आनन्दित ही रहें। गोप गोपियाॅं रागात्मिका भक्ति की श्रेणी में आती हैं।


Wednesday, 28 July 2021

357 परम्परा


ऐसे अनेक लोग समाज में मिल जाएंगे जो परंपरा के नाम पर वह सब कुछ लादे रहते हैं जो आज के समय मेें औचित्यहीन हो चुका होता है। चाहे सड़ा गला दुर्गंध युक्त समान हो या निरर्थक हो चुके सिद्धान्त वे उन्हें परम्परा के नाम पर सहेज कर रखना चाहते हैं। कोई यदि तर्क पूर्वक उन्हें समझाना चाहे तो वे आक्रामक होकर उसे असंस्कृत कहने में भी नहीं चूकते। वास्तव में वे परम्परा और संस्कृति को समानार्थी मानने लगते हैं। सर्वविदित है कि समाज का अर्थ है जो एक समान उद्देश्य  को लेकर लगातार आगे बढ़ते रहना चाहता है ‘‘समाने ईजति यः सः समाजः’’। अर्थात् वही लोग आगे बढ़कर उत्तरोत्तर प्रगति कर सकते हैं जो समयानुकूल अद्यतन ज्ञान के द्वारा अपने को परिमार्जित करते रहने का गुण विकसित कर लेते हैं। परन्तु पूर्वोक्त परम्परावादी केवल मानसिक रोगी ही कहला सकते हैं क्योंकि वे जानबूझकर अपनी प्रगति में स्वयं बाधक बन जाते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं और मानसिक विकास के अनुरूप प्रत्येक युग में सामाजिक व्यवस्थाओं में सहज भाव से परिवर्तन होते रहते हैं। समाज की गतिशीलता रुक जाए तो समाज का ढांचा ही चकनाचूर हो जाएगा। आज का हिंदु समाज खोखली परम्पराओं को लादे अपनी गतिशीलता को रुद्ध करके प्रतिदिन ध्वंस की ओर अग्रसर हो रहा है और भविष्य में निश्चिन्ह  होने को उन्मुख है। आवश्यकता  है पुरानी पड़ चुकी अतार्किक, अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण परम्पराओं के नाम पर अंधविश्वास  फैलाकर लोगों को भ्रमित करने के स्थान पर उन्हें वैज्ञानिक सोच के साथ समय के अनुकूल परिवर्तित कर तदनुसार चलना और चलाना। 


Tuesday, 13 July 2021

356 मन कैसे कार्य करता है?


मन के दो खंड होते हैं, एक व्यक्तिनिष्ठ (subjective mind)  और दूसरा वस्तुनिष्ठ (objective mind) .  मानलो एक बिल्ली दिखाई दी, अब यदि आँख  बंद कर उस बिल्ली को फिर से याद किया जाता है तो मन का जो भाग बिल्ली का आकार बनाने लगता है उसे वस्तुनिष्ठ मन और जो भाग केवल देखता रहता है अर्थात् साक्ष्य देता है कि बिल्ली का रूप बन गया, उसे व्यक्तिनिष्ठ भाग कहते हैं।

इस प्रकार सभी के पास वस्तुनिष्ठ मन है अर्थात् मन का वह भाग है जो सोचने की वस्तुनिष्ठता रखता है, अब देखना यह है कि यह वस्तुनिष्ठ मन कार्य कैसे करता है। मानलो कोई पोस्टआफिस के बारे में सोचता है तो पोस्ट आफिस उसके वस्तुनिष्ठ मन में है और यदि कोई मेंढक या मच्छर के बारे में सोचता है तो वह मच्छर, मेंढक के वस्तुनिष्ठ मन में है। इसलिये किसी के द्वारा किसी वस्तु के संबंध में सोचने का अर्थ हुआ उसके वस्तुनिष्ठ मन के द्वारा उस वस्तु का आकार या रूप ग्रहण कर लेना।

इसके अलावा यह वस्तुनिष्ठ मन भी दो प्रकार से कार्य करता है, एक तो वह जो किसी देखी गई वस्तु जैसे बिल्ली को फिर से आँख  बंद कर देखने पर वह वस्तुनिष्ठ मन बिल्ली का प्रतिविंब बना लेता है। इसी वस्तुनिष्ठ मन के कार्य करने का दूसरा प्रकार यह  है, मानलो अब उसकी कल्पना करते हैं जिसका अस्तित्व ही नहीं है जैसे भूत,  तो अस्तित्व न होते हुए भी जो सोचा जा रहा है कि इस अंधेरे कमरे में भूत रहता है जिसके बड़ेबड़े दाॅंत और उल्टे पैर होते हैं, यह बिल्कुल कल्पना है परंतु फिर भी वह वस्तुनिष्ठ मन में अपना प्रतिविंब बनाता है और इस कल्पित भूत को जो देखने का काम करता है वह भी इसी मन का व्यक्तिनिष्ठ भाग है। अधिकाॅंश  मनोवैज्ञानिक बीमारियाॅं इसी दूसरे प्रकार के काल्पनिक चिंतन का परिणाम होती हैं। जब, कि प्रारंभिक अवस्था में चेतन मन अपनी ज्ञानेन्द्रियों  की सहायता से देखे जा रहे कल्पित भूत को परख लेता है कि सचमुच में भूत है भी कि नहीं तब अंत में  पाता है कि कोई भूत नहीं है और जो आभास हो रहा था वह मात्र कल्पना थी। यही सही भी है। इसका अर्थ यह है कि यथार्थ निर्णय करने के लिये मन का व्यक्तिनिष्ठ भाग (अर्थात् जो देख रहा है या साक्ष्य दे रहा है), वस्तुनिष्ठ भाग  (अर्थात् जो देखा जा रहा है) से अधिक शक्तिशाली होना चाहिये ।

अब यदि कहीं इसका उलटा हो जाये, अर्थात् वस्तुनिष्ठ भाग की शक्ति व्यक्तिनिष्ठ भाग से अधिक हो जाये तब इस अवस्था में वह व्यक्ति भूत का होना ही सही कहेगा।  यदि यह एक या दो बार ही होता है तो उसे समझाया जा सकता है परंतु यदि सोचने वाले के व्यक्तिनिष्ठ भाग को उसके वस्तुनिष्ठ भाग ने अपने चंगुल में ले लिया है तो यह वही अवस्था होती है जहाॅं से मनोवैज्ञानिक बीमारियाॅं जन्म लेती हैं। वह अपने हृदय से मानने लगता है कि भूत सचमुच होता है। काल्पनिकता उसके लिये जीवन्तता में बदल जायेगी और वह भयंकर मनोवैज्ञानिक बीमारी से ग्रस्त हो जायेगा।


Friday, 11 June 2021

355 जीवन मुक्त

 

भारतीय दर्शन में वैज्ञानिक आधार पर ही सब तथ्यों को समझाया गया है परन्तु विद्वानों ने अपने अपने ढंग से उसे समझकर उसका अनुसरण किया है। यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि जब किसी वस्तु को स्पर्श किया जाता है तो उसमें स्पर्श का प्रभाव पड़ता है और वह प्रभाव तब तक रहता है जब तक वह अपनी स्पर्श ऊर्जा को किसी कार्य रूप में विकीर्णित नहीं कर देता। जैसे सिरों पर बंधे किसी तार को बीच में पकड़कर छोड़ दिया जाता है तो उसमें इस खिचाव से उत्पन्न ऊर्जा, कम्पनों के माध्यम से उसमें ध्वनि उत्पन्न कर घीरे धीरे समाप्त होती जाती है जबतक तार अपनी पूर्ववत साम्यावस्था में नहीं आ जाता। उसी प्रकार जीवधारियों में भी किसी कार्य को करने से पहले उनके मन में विचार आता है फिर वह उसे अपने ढंग से कार्यरूप देता है। इससे उसके मन पर ऊर्जा तरंगों के जो आघात लगते हैं वे तब तक संचित होते जाते हैं जब तक उन्हें समाप्त होने का अवसर नहीं मिल जाता। दार्शनिक भाषा में इन्हें संस्कार कहते हैं। भारतीय दर्शन में स्रष्टि का स्रजन और तदनुसार विकास, क्रमागत रूप से हुआ है अतः सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म यह विकास चक्र चलता रहता है और सभी स्रष्ट वस्तुओं और जीवधारियों का रूपान्तरण चलता रहता है जब तक कि वे अपनी मौलिक साम्यावस्था में वापस नहीं लौट जाते। मनुष्य के स्तर पर ये संस्कार मन की दशा के अनुसार बनते और नष्ट होते हैं अतः कहा जाता है कि ‘‘मन’’ ही मनुष्यों के बंधन या मोक्ष का कारण होता है। उत्तरोत्तर विकास के लिए इन सभी प्रकार के संस्कार बंधनों से मुक्त होने की शिक्षा दी जाती है। 

इन संस्कारों से मुक्त होने के लिए मनुष्य को लगातार संघर्ष करना पड़ता है। चूंकि मनुष्य अपनी पूर्ववर्ती पाश्विक जीवन से क्रमशः उन्नत होकर मनुष्य स्तर पर आता है अतः तब से अभी तक के असंख्य संस्कारों को क्षय करने के लिए अपार संघर्ष करना पड़ता है। पाश्विक संस्कारों से मुक्ति का संघर्ष करते समय इसे ‘‘पाश्वाचार’’ कहा जाता है। इसके बाद सूक्ष्म स्तरीय संस्कारों को क्षय करने के लिए मानसिक शक्ति का उपयोग करना पड़ता है अतः इसे ‘‘शाक्ताचार’’ कहते हैं। इसके बाद भी अनेक अत्यंत सूक्ष्म संस्कार रह जाते हैं उन्हें गुरु के सान्निध्य में रहकर इष्टमंत्र की सहायता से पूर्णतः समाप्त कर अपनी मूल अवस्था को पाने का कार्य ‘‘दिव्याचार’’ कहा जाता है।

सूक्ष्मस्तरीय और अतिसूक्ष्मस्तरीय इन संस्कारों को ‘षडरिपु’ और ‘अष्टपाश’ कहा जाता है। काम अर्थात् वासना, क्रोध, लोभ, दर्प अर्थात् मद, मोह अर्थात् आसक्ति, और मात्सर्य अर्थात् ईष्र्या ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, षंका, कुल, षील, मान और जुगुप्सा ये अष्टपाश है। षडरिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता ही ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्टपाश का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु पूर्वोक्त अष्टपाश आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोकते रहते हैं। इन सभी से मुक्त होने के लिए समय समय पर विद्वानों ने अनेक प्रकार की विधियों को निर्धारित किया है जिन्हें पूजा या उपासना पद्धतियाॅं कहा जाता है। जिसे  जो भी पद्धति अच्छी लगती है वह उसका अनुसरण करते देखा जाता है परन्तु सभी में निहित उद्देश्य होता है इन सभी संस्कारों से मुक्ति पाना। गायंत्री मंत्र में भी बुद्धि को शुद्ध करने की प्रार्थना  की गई है। कुछ ज्ञानीलोग इनसे भौतिक उपलब्धियों के पाने का प्रलोभन भी देते हैं और अधिकांश लोग इसी कारण से पूजा या उपासना करते हैं पर इसके पीछे छिपे यथार्थ उद्देश्य को भूल जाते हैं और बार बार नये नये संस्कारों का बोझ लादते जाते हैं। श्रीमद्भग्वदगीता में कहा गया है कि 

‘‘यतीन्द्रिय मनो बुद्धिर्मुनिः मोक्ष परायणः, विगतेच्छा भय क्रोधो यः सदा मुक्त एव सः। गीता 5/28’’

अर्थात् जिस व्यक्ति ने अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित कर अपनी बुद्धि को जीवन के परम लक्ष्य ‘मोक्ष’ की ओर लगाए रखकर अपनी सभी इच्छाओं, भय और क्रोध को मन से निकाल दिया है वह इस जीवन में रहते हुए सदा ही मुक्त माना जाता है। उसे इस जीवन को बनाए रखने या न रखने से भी कोई मतलब नहीं रहता। यदि वह इस अवस्था में भी अपना जीवन जीता है तो वह केवल लोक कल्याण के कर्म में ही संलग्न रहता है जिससे उसके अन्य संस्कार उत्पन्न ही नहीं हो पाते ऐसा महान ब्यक्ति जीवन मुक्त कहलाता है।


Tuesday, 1 June 2021

354 एलोपैथिक और आयुर्वेदिक समर्थकों में व्यर्थ का विवाद

 

योगासनों को टेलीविजन पर दिखाते हुए चर्चा में आए बाबा रामदेव ‘पतंजली ब्रांड’ के नाम से  दवाओं सहित अपने अनेक उत्पाद उपभोक्ताओं को उपलब्ध करा रहे हैं। इस समय जहाॅं सारा विश्व कोरोना बीमारी के महासंकट से जूझ रहा है, बाबा रामदेव ने अति उत्साह में एक सभा में कह दिया कि  ‘‘एलोपैथी एक स्टुपिड और दिवालिया साइंस है, एलोपैथिक डाक्टर जो दवायें दे रहे हैं वे एक एक कर फेल हो रही हैं, लाखों लोगों की मौत इनकी दवाओं से हो  रही हैं। जितनी मौतें हास्पिटल न जाने के कारण हुई हैं या आक्सीजन न मिलने के कारण हुई हैं उससे अधिक आक्सीजन के मिलने के बावजूद एलोपैथिक दवाओं से हुई हैं, स्टेरायड से हुई हैं। इस प्रकार लाखों लोगों की मौतें एलोपैथिक दवाओं सें हो चुकी है।’’ एलोपैथिक डाक्टरों ने इसे गंभीरता से लिया है और अपनी जानपर खेलकर देश भर मे कोरोना से लड़ने वाले डाक्टरों के प्रति रामदेव का रवैया अपमानजनक और अमानवीय कहते हुए उनसे लिखित में माफी मांगने के लिए आन्दोलन चला रखा है। किसी किसी ने तो  उन्हें देश द्रोह के अंतर्गत जेल भेजने तक की मांग कर डाली है। इस पर रामदेव ने एलोपैथिक दवाओं को उनकी मूल कीमत से चालीस गुना तक अधिक कीमत में बेचे जाने का मुद्दा उठाकर अपने को बचाने का प्रयास किया है। इसके पक्ष में उन्होंने एलोपैथिक दवाओं और जेनरिक दवाओं की कीमतों में जमीन आसमान का अंतर होने पर सिनेमा अभिनेता आमिर खान के द्वारा लिया गया एक डाक्टर से इंटरव्यु के वीडियो का संदर्भ दिया है। इस तरह एलोपैथिक डाक्टरों  और बाबा रामदेव में यह विवाद बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा लगने लगा है कि दो अरबपति व्यापारी अपने अपने अहं, अस्तित्व और वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किसी भी स्तर पर जाने को कटिबद्ध है। अब प्रश्न यह है कि यदि रामदेव का एलोपैथिक दवाओं की कीमतों की अधिकता रोकने का ही उद्देश्य था तो उन दवा निर्माताओं के विरुद्ध मोर्चा खोलना था जो इन्हें बनाते हैं, बड़ी बड़ी फार्मेसीज के स्वामी है। आयुर्वेद और योग के क्षेत्र में  अपना नाम स्थापित करने वाले एक सन्यासी को पूरी एलोपैथी को स्टुपिड और दिवालिया साइंस कहना किसी संत के स्तर को नहीं दर्शाता प्रत्युत उन्हें इस स्तर से नीचे ले जाने का कार्य ही करता है।

इस विवाद पर कुछ भी कहने के पहले अब आइए जरा विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों को संक्षेप में जाने कि वे क्या हैं और कैसे कार्य करती हैं-

चिकित्सा के क्षेत्र में आजकल एलोपैथी, आयुर्वेद, नेचुरोपैथी और होमियोपैथी में इलाज करने की पद्धतियाॅं/विधियाॅं प्रयुक्त की जाती हैं। समस्या यह है, कि हमें किस पद्धति को विश्वास पूर्वक अपनाना चाहिए? एलोपैथी में व्यापक नैदानिक परीक्षण से शल्यक्रिया करने या उपचार की व्यवस्था है परन्तु देखा गया है कि इन दवाओं के साइड इफेक्ट होते हैं और क्रोनिक बीमारियों में तो आजीवन दवा लेना पड़ती है। आयुर्वेदिक दवाएं सचमुच गंभीर बीमारियों को ठीक करते देखी जाती हैं। नेचुरोपैथी में प्राकृतिक रूप से वायु, जल, प्रकाश और भूमि का प्रयोग किया जाता है पर वे कोई दवा का प्रयोग नहीं करते इसलिए यह सीमित हो जाता है क्योंकि मरीजों को इससे अपेक्षित चिकित्सा और सेवा हमेशा प्राप्त नहीं होती। होमियोपैथिक दवाओं की विशेषता यह है कि वे बहुत सूक्ष्म होती हैं और गहराई से कार्यशील होती हैं क्योंकि वे रोगी के लक्षणों के आधार पर निर्धारित की जाती हैं। 

इनकेे विपरीत एलोपैथिक और आयुर्वेदिक दवाएं रोगी के लक्षणों पर आधारित न होकर बीमारी पर आधारित होती हैं। होमियोपैथिक दवा सूक्ष्म होने के कारण यदि गलत भी दे दी जाए तब भी वह भले लाभ न पहॅुंचाए पर हानि नहीं पहुॅंचाती जबकि एलोपैथी और आयुर्वेदिक दवा गलत दे दी जाय तो घातक ही होती है। होमियोपैथिक दवाओं की एक विशेषता यह भी है कि ये अपेक्षतया सस्ती होती हैं और आधुनिक कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग हो जाने के कारण कोई भी व्यक्ति अपने रोग के लक्षणों आधार पर बिना डाक्टर के पास जाए स्वयं ही इन्हें ले सकता है, परन्तु गंभीर मामलों में डाक्टर से ही परामर्श लेना आवश्यक होता है।  होमियोपैथी का सिद्धान्त है ‘‘समः समम शाम्यति’’, इसलिए जितनी क्रूड बीमारी होती है उतनी ही सूक्ष्म दवा चयनित की जाती है और वह तेजी से रोग पर प्रभावी होती है। आयुर्वेद भारत की अतिप्राचीन चिकित्सा पद्धति है  जबकि एलोपैथी की आयु केवल 200 वर्ष है। एलोेपैथी का वर्तमान स्वरूप वास्तव में आयुर्वेद की प्रचलित विधियों और औषधियों में वैज्ञानिक आधार पर शोध कर ही पाया गया है। अतः कहा जा सकता है कि चिकित्सकीय ज्ञान के क्रमागत विकास में आयुर्वेद के आगे एलोपैथी की कड़ी जुड़ी हुई है। उनमें परस्पर किसी भी प्रकार का टकराव नहीं है, वह तो चिकित्सकों और भेषज निर्माताओं के द्वारा अपने आपने धंधे को अधिक लाभदायी बनाने के उद्देश्य से उछाला गया गुबार है जिसमें सामान्य जनता सदा की तरह शोषित हो रही है। आयुर्वेद ने एलोपैथी की तरह उन्नति बहुत पहले ही कर ली होती यदि तात्कालिक समाज के लोगों द्वारा इस पर शोध करने वाले विद्वानों के विरोध में अस्प्रश्यता और हीनता की भावना न भरी गई होती। नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाएगा। 

महाभारत काल में भीम को दुर्योधन के द्वारा दिए गये विष की चिकित्सा कृष्ण के सुझाव पर  विष के द्वारा किए जाने के प्रमाण पाए जाते हैं जो ‘‘समः समम शाम्यति’’ के सिद्धान्त के अनुसार ही है। उस समय आयुर्वेद में विष चिकित्सा पर शोध के अलावा ‘‘सूचिकाभरण’’ (जिसे आजकल इंजेक्शन कहा जाता है) पर भी प्रचुर जानकारी उपलब्ध थी परन्तु उस समय लोगों में यह अंधविश्वास फैला था कि शरीर में बाहरी द्रव्य सीधे ही नहीं भेजा जाना चाहिए, अतः इस कार्य के विकास में अवरोध आ गया । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इंजेक्शन से दवा देना सहज माना जाता है। 

वास्तव में भारत का वैद्यक शास्त्र और आर्यों का आयुर्वेद कृष्ण के काल तक परस्पर मिल कर एक हो गए थे परन्तु आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों को हेय  दृष्टि  से देखा जाना जारी  था और उन्हें प्रायः राक्षस या म्लेच्छ कहा जाता था। महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था जिसे ‘जरा‘ नाम की महिला डाक्टर ने की थी। इसीलिए वह जरासंध ( अर्थात जिसे  ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) कहलाये।  ‘जरा’ को राक्षस  कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा गया है परन्तु जरासंध इस कुल को आदर देते थे और राक्षसी विद्या में पारंगत  हुए। संस्कृत में राक्षसी विद्या का अर्थ है सम्मोहन या  हिप्नोटिज्म। इस विद्या में पारंगत  अन्य महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि ‘सूचिकाभरण’ का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि’ को था। आर्य इन लोगों को हेय मानकर तिरस्कार करते थे। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु प्रोत्साहन के आभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्धकाल में तो शवच्छेद ( डिसेक्शन) को बहुत ही हीन कार्य और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः आयुर्वेदिक उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं। सोचिए, महाभारत काल से ही आयुर्वेद में की जा रही रिसर्च को यदि हतोत्साहित न किया जाकर प्रोत्साहन दिया जाता तो क्या वह आज की एलोपैथी से आगे न होता? आयुर्वेद के इस ह्रास के लिए कौन उत्तरदायी है?

आज की विषम परिस्थिति में कोरोना नामक बीमारी का अभीतक कोई भी विश्वसनीय और गारंटीड उपाय किसी भी पद्धति में नहीं है अतः स्वाभाविक है कि उसे समूल नष्ट करने के लिए हमें ‘ट्रायल एन्ड एरर’ विधि को प्रयुक्त करना पड़ेगा जो एलोपैथिक डाक्टरों ने किया है और करते जा रहे हैं जब तक कि अंतिम समाधानकारक उपाय प्राप्त नहीं हो जाता। इसलिए यह आक्षेप लगाना कि एलोपैथिक डाक्टरों की एक के बाद एक सभी दवाएं कोरोना के मामले में असफल हो रही है और एलोपैथी चिकित्सा स्टुपिड है, एकांगी सोचवाला बचकाना कथन ही माना जाएगा। कोरोना वास्तव में ‘‘नेगेटिव माइक्रोवाइटा’’ हैं जिन्हें नष्ट नहीं किया जा सकता, ये ताप, दाब या अन्य भौतिक प्रभावों से अपरिवर्तित रहते हैं अतः उन्हें केवल ‘‘पाजीटिव माइक्रोवाइटा’’ से ही नियंत्रण में लाकर मानवजीवन को कष्टमुक्त किया जा सकता है। वर्तमान में एलोपैथिक दवाओं से रोग को दूर करने के लिए नहीं, उसे दबाने के लिये प्रयुक्त किया जाता है जिससे शरीर का पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ जाता है। इसका कारण यह है कि बीमारी के स्थान पर अधिक नेगेटिव माइक्रोवाइटा एकत्रित हो जाते हैं। एलोपैथिक दवायें रोग को जड़ से ठीक नहीं करती रोग तो अपने आप ही ठीक होते हैं । यद्यपि दवायें रोग को रोकती हैं परंतु अधिक दवाओं के उपयोग से नेगेटिव माइक्रोवाइटा का अधिकता से एकत्रीकरण होने लगता है जो दवा के प्रभाव को कम कर सकता है। प्रत्येक रोगी चाहता है कि उसे तत्काल रोग के कष्ट से मुक्ति मिले अतः एक के स्थान पर अनेक दवाओं को लिखने वाला डाक्टर अच्छा समझा जाता है। डाक्टर यह इसलिए करता है कि किसी न किसी दवा से मरीज का कष्ट दूर हो जाएगा। जबकि यथार्थता यह है कि एलोपैथिक दवाओं के उपयोग से नेगेटिव माइक्रोवाइटा के अधिक साॅंद्रित होते जाने के कारण अनेक नई बीमारियाॅं पैदा हो जाती हैं। यही कारण है कि वर्तमान में प्रत्येक दशक में दो या तीन नई बीमारियाॅं जन्म ले रही हैं। चिकित्सा वैज्ञानिकों को इस क्षेत्र में अपनी रिसर्च को बढ़ावा देना चाहिए तभी वे इस दुरूह कार्य को कर पाने में सफल हो सकेंगे।

अतः स्पष्ट है कि आजकल कोई भी डाक्टर केवल ‘‘अनुमान’’ ही लगा सकते हैं कि कौनसी दवा बिलकुल उपयुक्त है या कौनसी गलत। इसलिए कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसे दी गई दवा सबसे उचित है क्योंकि वह डाक्टर के सर्वश्रेष्ठ अनुमान पर ही आधारित होती है। साथ ही यह भी कि यदि दवा अपरिष्कृत है तो वह हानिकारक हो सकती है इतना तक कि उससे मृत्यु भी हो सकती है। सभी प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों में कोई न कोई विशेषता पाई जाती है अतः सभी को एक ही छत के नीचे लाकर रोग और रोगी के अनुसार परीक्षण कर चिकित्सा की जाना चाहिए जिसमें सभी का लक्ष्य रोगी को स्वस्थ करना ही होना चाहिए न कि अपने अहं की संतुष्ठी के लिए विवाद। चिकित्सा कर्म से जुडे़ हर व्यक्ति को इस प्रकार के सेंसलेस विवादों को पनपने देने से बचना चाहिए और अपनी ऊर्जा को समाज के हित में नयी रिसर्च करने में प्रयुक्त करने का व्रत लेना चाहिए।

डाॅ टी आर शुक्ल, सागर मप्र।


Sunday, 30 May 2021

353 आत्मोन्नति के कारक

यह संसार बहुत अच्छा है परन्तु लोगों की स्वार्थमय एकांगी सोच ने उसे विकृत कर दिया है। यह विकृतियां इस जगत के सभी प्राणियों को एक दूसरे को नष्ट कर अपना पृथक साम्राज्य स्थापित करने के सभी कार्य कर रहीं हैं। हमारे पूर्वजों ने इस संसार को अपनी अपनी आत्मोन्नति के सहायक साधन के रूप में माना है। विज्ञान ने अनेक सुख सुविधाओं के साधन प्रदान किए हैं पर साथ ही जीवन को एक क्षण में समाप्त करने के उपक्रम भी जोड़ रखे हैं। इस परिस्थिति में विज्ञान से सामाजिक विकृतियों को दूर करने के उपायों की आषा करना व्यर्थ है फिर आत्मोन्नति तो उसके लिए निरर्थक सिद्धान्त के अलावा कुछ नहीं।

अब प्रश्न उठता है कि इन दूषित और विपरीत परिस्थितियों में वह कौन से कार्य हैं जिनके थोड़े से परिमाण में करने पर भी कोई व्यक्ति आत्मोन्नति के मार्ग पर निष्कंटक बढ़ सकता है। इस संबंध में नीतिशास्त्र ये तीन काम करने का सुझाव देता है-

1/ उस व्यक्ति को चाहिए कि ऐसा प्रयास करे कि उसके कारण किसी अन्य व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक कष्ट न हो अर्थात् उसे संताप न हो।

2/ उस व्यक्ति को चाहिए कि ऐसा प्रयास करे कि उसे दुष्ट व्यक्तियों के साथ न रहना पड़े या उनके पास किसी काम से न जाना पड़े।

3/ उस व्यक्ति को चाहिए कि ऐसा प्रयास करे कि उसके किसी भी कार्य से उन लोगों के मार्ग में कोई बाधा उत्पन्न न हो जो सत्य के अनुसंधान में अपने आप को दिन रात लगाए हुए हैं।

इस प्रकार इन तीन कार्यो को थोड़ी मात्रा में भी किया जा सके तो वह बहुत माना जाता है।


Wednesday, 26 May 2021

352 तुम


तुमने कहा,

बृन्दावनम् परित्यज्य पादमेकम् न गच्छामी-

अर्थात् मैं बृन्दवन को छोड़कर एक पद भी कहीं नहीं जाता।

मैंने बृन्दावन का कोना कोना छान मारा, तुम कहीं न मिले!

फिर तुमने कहा,

मनोलोक के बृन्दावन में ढूड़ना था, वहाॅं क्यों भटके?

मैं फिर, मन के बृन्दावन में खोजने लगा,

वहाॅं भी तुम नदारत थे!

अब, तुम कहते हो भावलोक में जाकर देखो वहीं मिलूंगा।

मैं ‘भवसागर’ में गोता लगाते

बड़ी बड़ी युक्तियों के सहारे, मुश्किल से

‘‘भावसागर’’ के तट पर बैठा तुम्हारी राह देखता रहा।

तुम्हारी कहीं छाया भी नहीं दिखी!

मैं कभी तट पर तो कभी सतह पर दौड़ता दौड़ता,

बहुत थककर, निराशा में डूबा गया। 

तुम फिर बोले, 

सतह पर नहीं! गहराई में, बहुत गहराई में गोता लगाओ ।

डूबने के डर से मैं सतह पर ही घूमता रहा।

अचानक एक बड़ी सी लहर ने अपने में लपेटा

और ले गयी न जाने कहाॅं!

क्षण भर में, मैं वहाॅं पहुॅंचा जहाॅं तुम,

तुम नहीं थे ....... 

बस, मैं ही मैं था,

विशुद्ध मैं।


Monday, 24 May 2021

351सफलता की सर्वोत्तम पद्धति


हमारे प्राचीन संस्कृत साहित्य में मनुष्य के जीवन का उद्देश्य ‘‘मोक्ष’’ को पाना बताया गया है जिसे समय समय पर अनुसंधानकर्ता ऋषियों ने अपने अनुभवों से अनेक प्रकार की विधियों द्वारा समझाते हुए विभिन्न ग्रंथों की रचना की है। आचार्य शंकर ने अपने समकालीन सभी प्रकार के मतानुयायियों से विधिवत् शास्त्रार्थ करने के उपरान्त निष्कर्ष निकाला कि ‘‘ मोक्षकारणसमग्रयाम भक्तिरेव गरीयसी’’ अर्थात् मोक्ष पाने के सभी तरीकों में सेभक्तिका तरीका सर्वश्रेष्ठ है। तो यह भक्ति कौन सी विधि है?

सभी ग्रंथों का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर भलीभांति अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट होता है कि, वास्तव मेंमोक्षहै, किसी व्यक्ति विशेष द्वारा अपनी व्यक्तिगत भौतिक अनुभूति को पहले जड़ मन में निलंबित करना अर्थात् उसमें मिला देना फिर उसे सूक्ष्म मन में मिला देना फिर सूक्ष्म मन को ‘‘शुद्ध मैं’’ की अनुभूति से मिला देना फिर इसे आत्मा में मिला देना। अर्थात् जब किसी व्यक्ति केमैंपनका बोधविशुद्ध आत्माके क्षेत्र में प्रवेश पा लेता है तो उस क्षण विशेष को मोक्ष की स्थिति कहते हैं। सरल ब्दों में कहा जा सकता है कि ‘‘अशुद्ध मैं’’(इकाई मन) को ‘‘विशुद्ध मैं’’(विराट् मन) में मिला देना ही मोक्ष है जिसे पाने के लिए सभी प्रकार की विधियों में सेभक्तिश्रेष्ठ है। श्रुतियाॅं स्पष्टतः कहती हैं कि ‘‘यच्छेद्वांग्मनसी प्रज्ञस्तद यच्छेद्ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महति नियच्छेत्तदयच्छेच्छान्तात्मनि।’’

अर्थात् बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि पहले वह अपनी इंद्रियों को चित्त में मिलाये फिर इस चित्त को अहम में और फिर अहम को महत में मिला कर इसे जीवात्मा में मिला दे और अंतिम रूप से परमचेतना में मिला दे। मतलब वही है कि आध्यत्मिक उत्साही व्यक्ति अपनी इंद्रियों के आभास को पहले अपने मन के भीतर एकत्रित करे ले जहाॅं से उन्हें वह सूक्ष्म मन की ओर जाने का निर्देश दे यहाॅं क्रियाशी मन या व्यक्तिगत अहंकार के रूप में इसको अपने शुद्ध मैंपन की ओर ले जाकर सभी को इस प्रकार निर्देशित करे कि वे सभी विशुद्धात्मा के साथ एकीकृत हो जाएं। यह एकीकरण की पद्धति ज्ञान, कर्म और भक्ति की सहायता से प्रभावित हो सकती है।

प्रश्न यह उठता है कि यह एकीकरण करने की विधि क्या है?

इसके लिए ऋषिगण कहते हैं कि सबसे पहले स्तर पर यह जानने का अभ्यास करना चाहिए कि ‘‘क्या करना है, कैसे करना है, क्यों करना है ’’ जब इनका उचित उत्तर प्राप्त होने लगता है तो यह कहलाती है ‘‘ज्ञान साधना’’ इस प्रारंभिक ज्ञान के दो प्रकार हैं, एक है भौतिक ज्ञान जैसे, इंजीनियरिंग साइंस, मेडीकल साइंस, आर्ट, आर्कीटेक्चर, लिटरेचर आदि। और, दूसरा है आध्यात्मिक विज्ञान।

दूसरे स्तर पर पूर्वोक्त प्राप्त ज्ञान के अनुसार आध्यात्मिक साधक को कर्म करना होता है। कैसा कर्म? जो व्यावहारिक हो, जो प्रायोगिक हो। इस ज्ञानपूर्वक कर्म को ही कहा जाता है ‘‘कर्मसाधना’’ इस प्रकार ज्ञानसाधना और कर्मसाधना के संयुक्त परिणाम के रूप में भक्ति का उदय होता है। इसलिए भक्ति कोई अलग से साधना नहीं है, वह कोई अभ्यास करने की विधि नहीं है वह तो ज्ञान और तदनुसार कर्म का अभ्यास करने के फलस्वरूप मिलने वाला फल है। स्पष्ट है कि पहले स्तर पर ज्ञान ही मार्गदर्शन करता है फिर दूसरे स्तर पर कर्म और अन्तिम स्तर पर मार्गदर्शक बनाता है भक्ति तत्व। अब पूछा जा सकता है कि कई लोगों में भक्ति का उदय बाल्यकाल से ही देखा जाता है जबकि उस समय तक उन्होंने तो ज्ञान प्राप्त किया होता है और ही कर्म? इसका उत्तर है कि उन्होंने ज्ञान और कर्म साधना पिछले जन्म में की है जिसका परिणाम उन्हें बाल्यावस्था से ही मिलने लगा है। इसलिए ज्ञान कर्म और भक्ति यह तीन घटक ही मोक्ष पाने के लिए आवश्यक हैं परन्तु भक्ति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है क्योंकि वह अंतिम परिणाम स्वरूप मिलती है और सबसे सूक्ष्म होती है। इसलिए सब प्रकार की ज्ञान साधना और सब प्रकार की कर्म साधना करने का मूल उद्देश्य यह है कि वह इकाई मन को भक्ति साधना के शीर्ष पर ले जाए। इसलिए भक्ति पाने के लिये कोई पृथक अभ्यास नहीं है पर वह ज्ञान और कर्म के अभ्यास से प्राप्त होती है जिसके बिना परमपुरुष के संपर्क में आना संभव नहीं है। इसलिए ईशतत्व का आनन्द लेने के लये भक्तिमान बनना ही पड़ेगा।

जिन्होंने आध्यात्मिक साधना का अभ्यास नहीं किया होता है वे बुढ़ापे के कष्ट अनुभव करने पर कहते हैं अब मर जाना ही उचित है। इतना ही नहीं कई बार ये लोग छोटी उम्र में ही आत्महत्या करते देखे जाते हैं यदि उनके मन को कोई गहरी चोट लगती है या लगने की आशंका होती है। व्यावहारिक मनोविज्ञान के अनुसार, इस प्रकार के लोगों को अनुसरण करने के लिए उच्च लक्ष्य नहीं होता अतः वे अपने मन में मनमानापन और एकांगी सोच उत्पन्न कर लेते हैं। इस मनमानेपन से बचने का क्या उपाय है? वह है, मन के विषयपरक भाग को ऐसा विषय दे देना जो अनन्त हो। इसका पािरणाम यह होगा कि वे जब इस विषय के संपर्क में आऐंगे वे किसी भी प्रकार का मनमानापन विकसित नहीं कर पाऐंगे। वे हर समय नया, और नया ही पाते जाऐंगे क्योंकि परमपुरुष चिरनवीन हैं, सदा ही उज्जवल हैं इसलिए यह सभी का कर्तव्य है कि वे अपने मन में इस प्रकार की मोनोटोनी को उत्पन्न होने दें।