Friday, 27 February 2015

6.9 वेद में ब्रह्मविज्ञान …लगातार विंदु क्र. 8 से आगे



6.9 वेद में ब्रह्मविज्ञान …लगातार  विंदु क्र. 8 से आगे

(9 ) ‘‘अराइव रथनाभौ कला यस्मिन् प्रतिष्ठिताः, तं वेद्यं पुरुषं वेद यथा मा वो मृत्युः परिव्यथाः।‘‘ जिस प्रकार रथ नाभि अरसमूह को नियंत्रित करती है ठीक उसी प्रकार परम ब्रह्म इस संसार की सोलह कलाओं का नियंत्रण करते हैं। सोलह कलाओं अर्थात् दस इंद्रियाॅं, पांच च प्राण और अहंतत्व ये सब उन्हीं पर आश्रित हैं। यही सोलह कलायें जन्म मृत्यु का कारण है। उन्हें जानने की चेष्टा करो , उन्हें पराज्ञान के सहारे पहचान लो। उन्हें पहचान लेने पर तुम मृत्यु अर्थात् सब प्रकार की अधोगति से सहज ही बच जाओगे। मृत्यु का प्रतिषेध करने वाले वही अमृतस्वरूप ब्रह्मरस हैं। हे परम ब्रह्म ! तुम हमें इस मृत्यु लोक से अमृत लोक में जाने का पथ निर्देशित करो। परमब्रह्म  स्वयं प्रकाश  के श्रोत हैं , हमारे प्राण हैं, मैं का मैं और आत्मा की आत्मा हैं। वे गुहाचर अर्थात् अंतःकरण या हृदय के निवासी हैं। एक मात्र वे ही जीवों के चरम आश्रय हैं। जो विराट् प्रकृति, पुरुष सत्ता को स्थूल द्रष्टि से असद वस्तु में परिणत करती है वह प्रकृति भी वही हैं, प्रकृति और पुरुष का सम्मिलित नाम ब्रह्म है। ‘‘ त्वमेको द्वित्वमापन्नो शिवशक्ति विभागशः ‘‘। वे सर्वश्रेष्ठ हैं लौकिक ज्ञान से उन्हें नहीं जाना जा सकता वे ज्ञानातीत हैं। वे तुम्हारे अहंबोध के ज्ञाता हैं उन्हें जानने की चेष्टा करो। वे इतने सूक्ष्म हैं कि मन उनकी सूक्ष्मता को आॅंक नहीं सकता और वे इतने विराट हैं कि समस्त ब्रह्माण्ड उनके बीच ही स्थित है। वे अक्षर हैं, साधना के द्वारा ही अनुभव में आते हैं। साधना पद्धति ही तुम्हारा महास्त्र धनुष है, उपासना के द्वारा अपना मन रूपी वाण तीक्ष्ण कर उस पर संधान करो। अब चित्त को उनके भाव में लीन कर धनुष में टंकार कर दो और अपने लक्ष्य उस अक्षर परमात्मा को विद्ध करो। यही है सविकल्प समाधि की अवस्था।  प्रणव अर्थात् ओंकार ही धनुष का मूर्त रूप है, यहाॅं धनुष्टंकार का अर्थ है प्राणायाम की क्रिया जिसका अर्थ है प्राण और आत्मशक्ति को आन्दोलित करना। यदि तुम वाण  के रूप में आत्मा का व्यवहार करो और अनन्यचित्त होकर ब्रह्म रूपी लक्ष्य की ओर उसे चलाओ तब अवश्य  ही जैसे साधारण वाण अपने लक्ष्य पर अटक जाता है उसी प्रकार तुम्हारा आत्मा भी परमात्मा के साथ एकीकृत हो जायेगा। जिनसे आकाश , पृथ्वी और अन्तरिक्ष जकड़े हुए हैं, मन, पंच प्राण और इंद्रिय समूह जिनके बीच ही स्थित हैं उन्हें ही जानने की चेष्टा करो अन्य सभी बातों को त्याग दो। तुम हो मरणशील मृत्यु के दास , अमृतत्व में प्रतिष्ठित होने की तुम्हारी इच्छा वही पूरी कर सकते हैं।

(10 ) ‘‘ यः सर्वज्ञः सर्वविद् यस्यैषमहिमा भुवि, दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्नात्मा प्रतिष्ठिता।मनोमयः कामशरीरनेता प्रतिष्ठिते अन्ने हृदयं सन्निधाय, यद्विज्ञानेन परिपशयन्ति  धीरा आनन्दरूपम्मृतम् यद्विभाति।" जो सर्वज्ञ हैं सर्व विद हैं सब लोकों  में जिनकी महिमा सुप्रतिष्ठित है वे विराट पुरुष आनन्दमय लोक में अपने स्वरूप में दैदीप्यमान हैं। वे जीवों के प्राणस्वरूप हैं और काममय तथा मनोमय लोकों के नेता हैं। जीव के हृदय में अर्थात् महत्तत्व में अर्थात् ‘‘मैं हॅू‘‘ इस बोध के साथ इसके ज्ञाता के रूप में  वे ही प्रतिष्ठित हैं। ‘‘भिद्यते हृदय ग्रंथिश्छिद्यन्ते  सर्व संशयः, क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तसिमन द्रष्टे परावरे।‘‘ वे परावर अर्थात् कार्यरूप में प्रधान और कारण रूपमें अप्रधान हैं, वे चैतन्यस्वरूप हैं, जो उन्हें देखते हैं उनके हृदयग्रंथी के पुंजीभूत संस्कार दूर हो जाते हैं और मन के सब संशय दूर हो जाते हैं। ‘‘हृरण्यमये परे कोशे  विरजं ब्रह्म निष्कलं, तच्छुभ्रम् ज्योतिषां ज्योतिस्तद् यदात्मविदो विदुः‘‘।  इस पंचकोशात्मक शरीर में हिरण्यमय कोश  के ऊपर वे निष्कल अक्षर ब्रह्म रहते हैं। वे विकार रहित हैं उनकी ज्योति शुभ है सभी ज्योतिष्मान वस्तुओं के पीछे वे ही ज्योतिस्वरूप होकर विद्यमान हैं। अनके सामने अन्य सब ज्योतियाॅं मलिन हो जाती हैं। ‘‘ न तत्र सूर्यो भाति न चंद्र तारकं, नेमा विद्युतो भान्ति कुतो अयमग्निः, तमेव भान्तमनुभातिसर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।‘‘
(11 ) साधना के पथ पर आगे बढ़ता हुआ साधक क्रमशः  उस ज्योतिर्मय पुरुष को प्राप्त करता है। यह पुरुष, अक्षरभाव से नश्वर  वस्तु के कर्ता या नियन्ता हैं। इस क्षर -अक्षर को लेकर ही ब्रह्म हैं और इस क्षर-अक्षरात्मक ब्रह्म के प्राणकेन्द्र के रूप में,  विन्दु के रूप में जो ब्रह्मचक्र के कारण स्वरूप हो गये हैं वही हैं ब्रह्मयोनि। पुरुषोत्तम के बारे में इस प्रकार समझाया जा सकता है, मानलो तुम मन ही मन दिल्ली की कल्पना करते हो, अब तुम्हारी आत्मिक सत्ता का एक अंश  मानस धातु में परिवर्तित हो जाता है और वही मानस धातु दिल्ली का रूप धारण कर लेता है। मानस धातु के बाकी अंश  उस मनःस्रष्ट दिल्ली के दर्शक  रहते हैं। अब मानसिक सत्ता का जो अंश  द्रश्य  या द्रष्टा दोनों में से किसी भाग को नहीें लेता वही भाव ब्रह्तगत में व्यवहार होने पर पुरुषोत्तम कहलायेगा। ब्रह्म की इस ज्योतिर्मय सत्ता को जान लेने पर निरंजन ब्रह्म को भी जाना जा सकता है। स्थितधी जीवात्मा उस समय पाप और पुण्य दोनों  का त्याग कर निरंजनस्वरूप हो जाता है। जिसने इस ज्योतिस्वरूप को जान लिया वह अतिवादी नहीं रहता, वह किसी विषय को लेकर अवान्तर तर्क करके अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता , बह आत्मा को लेकर ही क्रीड़ामग्न रहता है और साॅंसारिक क्रिया के रूपमें जो कुछ भी उसका संवेदन प्रकाशित होता है वह समस्त कल्याणधर्मी ही होता है। ब्रह्म, सत्य, तप, पराज्ञान और नित्य ब्रह्मचर्य के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। जो इस भाव से साधना करते हैं वे अन्तःलोक में परमब्रह्म की शुभ्र ज्योति का साक्षात्कार करते हैं। जो यम नियम में प्रतिष्ठित हैं वे उनका इस प्रकार दर्शन  करते हैं कि निष्कलुष हो जाते हैं। सत्य की विजय होती है और सत्य उसे कहते हैं जिसके पीछे परहित की भावना होती है। मिथ्या की जीत कभी नहीं होती उसे सामयिक सफलता यदि मिल भी जाये तो वह दारुण पराजय का ही सूचक है। सत्य के द्वारा ही कण्टकाकीर्ण मोक्ष पथ प्रशस्त तथा सुसंस्कृत होता है जिसका अनुसरण कर आप्तकाम ऋषि सत्य के परम निधान परमपुरुष का संग लाभ करते हैं।
क्रमशः

Tuesday, 24 February 2015

6.9 वेद में ब्रह्म विज्ञान----लगातार ( पिछले विंदु से आगे )


6.9 वेद में ब्रह्म विज्ञान----लगातार ( पिछले  विंदु  से आगे )

( 5  ) सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति, संचर क्रिया और स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति, प्रतिसंचर क्रिया कहलाती है दोनों को मिलाकर ब्रह्म चक्र कहलाता है। जीव, विद्या के द्वारा ब्रह्म की ओर  अग्रसर होकर उनकी प्रतिसंचर क्रिया को तेज कर देता है,  और अविद्या के द्वारा प्रभावित होकर  उनकी संचर क्रिया को धीमा कर देता है। विद्या ज्ञानप्रधान कर्म  और अविद्या ज्ञानवर्जित कर्मप्रधान होती है। साधक के जीवन में ज्ञान और कर्म दोनों की समता होना आवश्यक  है अन्यथा ब्रह्माभिमुखी गति होना दुष्कर है। जो केवल अविद्या की उपासना करते हैं वे क्रमशः  अंधकार की ओर बढ़ते हैं और जो केवल विद्या की उपासना करते हैं वे उससे भी अधिक अंधकार में पहुंचते हैं ‘‘ अंधं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते, ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः।‘‘ व्यावहारिक जगत में अविद्या को पूर्णतः नहीं त्यागा जा सकता अतः वस्तु भोगकाल में सामंजस्यपूर्ण आचरण करना चाहिये अर्थात् यथायथ भाव से कर्म साधना कर प्रज्ञा द्वारा अमृतत्व लाभ करना चाहिये। जो प्रत्येक वस्तु को अपने में और अपने को सब वस्तुओं में देखते हैं उनके मन में किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं रह सकता । ब्रह्मज्ञों का सबसे बड़ा लक्षण घृणा त्याग ही है। सर्वभूतों को समभाव से देखने पर कोई पाप कर्म नहीं हो पाता। जब स्पष्टतः यह बोध हो जाता है कि हमारा आत्मा सर्वभूतों में परिव्याप्त है तब कुछ पाने की भूख और कुछ खो जाने का भय नहीं रहता । मोह और शोक भी चले जाते हैं।
( 6 ) उस परमब्रह्म का स्वरूप सर्वव्यापक है, साधक उन्हीं के मध्य रहते है और उन्हीं का भाव लेकर अन्त में वही हो जाते हें। उनके उसी भाव में सर्वार्थसिद्धि तथा सर्वज्ञता का बीज रह जाता है। परमात्मा का कोई स्थूल  शरीर नहीं है, वे हर द्रष्टि से दोष रहित , शुद्ध, निष्पाप, तेजस्वी, द्रष्टा, ज्ञाता, आत्मजयी तथा स्वयंभू हैं। उनकी कोई प्रतिमा नहीं हो सकती।  उनमें अनन्त क्षमा है आदि काल से वे सब को सब कुछ देते आये हैं और देते जायेंगे।  जो उनके इस स्वरूपको नहीं देखकर उनकी सृष्टि  की झलक देख उन्हीं की वस्तुओं की  ओर दौड़ते हैं और उसके पीछे उस महान स्रष्टा को भूल जाते हैं उनलोगों की यह क्या मूर्खता नहीं है? संभूति अर्थात् स्रष्टि की झलक देखकर जो केवल उसी की ओर दौड़ते हैं और असंभूति अर्थात् विनाश  की संभावना से जो भयभीत हो उसी की चिंता करते हैं इन दोनों की गति अंधकारमय लोक में होती है। अतः दोनों के बीच सामंजस्य रखकर चलने वाले ही अमृत्व को प्राप्त होते है। स्रष्टि और विनाश  को जो भलीभांति जान लेते हैं वे मृत्यु से परे स्थान पाते हैं। इस ब्रह्मोपलब्धि के पथ का अंतिम प्रतिबंध हिरण्यमय कोश  है, जब तक यह कोश  रहता है परमात्मा को नहीं पाया जा सकता, सृष्टि की झलक और विनाश  का भय सदा ही लगा रहेगा, परमात्मा हृरण्यमय कोश  के ऊर्ध्व  में अपने स्वरूप में रहते हैं। ‘‘ हृरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्, तत्वं पूशन्नपावृणु सत्यझर्माय दृष्टये।‘‘ हे परम ब्रह्म! हमलोग सत्यलोक में, तुम्हारे लोक में स्थिति लाभ करें, इसके लिये इस हृरण्यमय कोश  का चमकता आवरण हमलोगों से दूर हटा दो जिससे हम लोगों का मन  हृरण्यमय कोश  की झलक से आकृष्ट न हो। साधना के द्वारा जब मनुष्य स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने लगता है तब उसके सभी बंधन धीरे धीरे ढीले होकर गिर जाते हैं तथा उस शुद्ध आत्मस्वरूप को पाने के लिये तीब्र इच्छा जाग जाती है और हृरण्यमय कोश  विनष्ट हो जाता है।
( 7 ) वेद शब्द का व्युत्पत्तिगत अर्थ है ज्ञान, जब यह ज्ञान देश  काल और पात्र पर निर्भर करता है तो सापेक्षिक या परा ज्ञान और जब सभी निर्भरताओं से मुक्त आत्म संपूर्ण स्वरूपानुभूत होता है तो इसे पारमार्थिक या परा ज्ञान कहते हैं। जिस प्रकार रथ के अर समूह अर्थात् ‘स्पोक्स‘ चक्र नाभिमें गुंथे रहते हैं ठीक उसी प्रकार विश्व  ब्रह्माॅंड की प्रत्येक वस्तु ब्रह्म केन्द्रित होकर स्थित है। ‘‘अराइव रथनाभौ प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम, ऋचो यजूंसि सामानि यज्ञःक्षत्रं ब्रह्म च।‘‘ प्रजा शब्द का अर्थ है सृष्ट वस्तु। इस अर्थ में ब्रह्म ही प्रजापति हैं क्योंकि वे ही प्रत्येक सृष्ट वस्तु के नियंत्रक हैं। इंद्रियों के लिये मेरुदंड जिस प्रकार चरम आश्रय है उसी प्रकार समस्त ब्रह्माॅंड के लिये ब्रह्म हैं। ब्रह्म को छोड़ देने पर समस्त विश्व  अस्तित्वहीन हो जाता है। ऋषि शब्द उन महानुभावों के लिये प्रयुक्त किया जाता है जिन्होंने  अपनी अपनी साधना द्वारा नई नई वस्तुओं की उद्भावना कर मानव सभ्यता की अग्रगति को त्वरित किया है। इन ऋषियों के द्वारा  सत्य को व्रत के रूप में अपने जीवन में ग्रहण
किया जाता है क्यों कि सत्य का आश्रय न लेने पर मनीषा का श्रेयोमुखी विकास नहीं होता। सामान्यतः सत्य, तथ्य, सम्यक और ऋत इन चारों का अर्थ एक ही प्रकार लिया जाता है परंतु इन चारों में बहुत अंतर है। तथ्य का अर्थ है (fact) प्रकृत घटना, सम्यक का अर्थ है  ठीक (correct) या भूलरहित, ऋत का अर्थ है (truth) यथार्थ या सच्चा और सत्य का अर्थ है अपरिणामी अर्थात् देश , काल और पात्र की भिन्नता से अप्रभावित यानि चित्स्वरूप पुरुष। कल्याणधर्मी ऋषि को सत्याश्रयी होना ही पड़ेगा। सत्य का प्रतिशब्द किसी भी भाषा में नहीं है।
(8) इन्द्र शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ अथवा राजा। जीव समूह में प्राणशक्ति के ब्रह्म ही नियंत्रक हैं अतः वे ही इंद्र हैं । दारुण विनाश  से रक्षा करते समय वे ही रुद्र कहलाते हैं जो सब जगह पाये जाते हैं। ऊपर से जो शून्य  दिखता है वहाॅं भी वे पाये जाते हैं ।  इस जगत में सूर्य भी उन्हीं की महिमा गाता है अतः वे जो स्नयुपुंज  के मेरुदंड, पितृपुरुषों की स्वधा, ऋषियों के सत्य, इंद्र , सूर्य आदि है क्या अलग अलग सत्ताये हैं? नहीं , नहीं, सब कुछ वही हैं। जैसे किसी का नाम श्री ‘क‘ है, उनका पुत्र उन्हें बाबूजी कहता है क्योंकि वह उनमें पिता रूपी विकास देखता है, स्कूल के विद्यार्थी उन्हें मास्टरजी कहते हैं क्योंकि वे उनमें शिक्षक रूपी विकास देखते हैं और रास्ते में चलते समय ताॅंगे वाला उन्हें ‘ए टोपी‘ कहता है क्योंकि वह उनकी टोपी को ही प्रमुखता से देखता है। परंतु बाबूजी, मास्टरजी, ए टोपी क्या पृथक पृथक व्यक्ति हैं? नहीं वह तो श्री ‘क ‘ को विभिन्न द्रष्टिकोणों से देखने का परिणाम है। संसार में जड़ नाम की कोई वस्तु नहीं सब कुछ चेतन ही है यह चेतन कही सघन है तो कहीं विरल। जहाॅं चैतन्य की सघनता है उसे चेतन और जहाॅं विरल अर्थात् प्रकृति की प्रधानता अधिक है उसे जड़ कहते हैं। ब्रह्म की कृपा वर्षा सभी पर समान रूप से होती है उनके सामने चेतन अचेतन का कोई भेद नहीं।
अचेतन स्वयं कोई कार्य नहीं करता अतः शुभ कार्य के लिये पुण्य और अशुभ के लिये प्रत्यवाय का भागी नहीं होता पर चेतन अपने कर्म के अनुसार शु भ या अशुभ फल पाता है। ब्रह्म अवर्ण हैं , मनुष्य में जब तक वर्णगत अर्थात् जाति, अर्थ, देश , शिक्षा या अन्य किसी भी प्रकार का वैषम्य रहता है तब तक वह अभेदात्मक अखंडैकरस ब्रह्म को अनुभव नही कर सकता। यही ब्रह्म एक ओर अपनी कल्पना से जगत की उत्पत्ति करते हैं और दूसरी ओर ठीक उसी प्रकार निर्ममता से उसका नाश  भी करते हैं। जगत की सभी वस्तुएं , सभी सत्तायें उनका भक्ष्य हैं, उनका अन्न हैं , सब को एक दिन अपनी अपनी सत्ता की आहुति उनमें देना होगी। लोग उन्हें क्या दान करते हैं? अपना अहम बोध , अपनी व्यथा विडम्बित सत्ता। मातरिश्वा  अर्थात् वायु जीवों का प्राण है और ब्रह्म हैं इस मातरिश्वा  के परिचालक। वायु जीव का प्राण है और ब्रह्म हैं प्राणों के भी प्राण। हे करुणामय ब्रह्म ! तुम्हारी प्रेरणा से हमारी गति शुभ और शिवत्व की ओर उन्मुख हो , हम जो कुछ बोलें, जो कुछ सुने, जो कुछ देखें, तुम्हारी भावना से भावित होकर श्रेयवस्तु में परिणत हो जिससे किसी हीन सत्ता को हम न देख सकें और न ही विचार कर सकें जिससे हम प्रतिक्षण यह समझें कि हमारा द्रष्टब्य, श्रोतव्य और वक्तव्य सब कुछ तुम्हीं हो। हे परब्रह्म , तुम हमारे प्रति कृपण न होना। तुम हमें कल्याण के पथ पर ले चलो।

Monday, 23 February 2015

6.9 वेद में ब्रह्मविज्ञान

अगले खंड में  उन लोगों की भ्रांतियों को दूर करने का क्रमशः प्रयास  किया गया है जो यह कहते हैं की वेदों में कर्मकांड पर ही जोर दिया गया है।  वास्तव में वेदों के अंतिम भाग को जिसे उपनिषद् कहा जाता है , में ब्रह्म विज्ञान की प्रचुर जानकारी दी गयी है जो  विद्यातंत्र की व्यावहारिक विधियों द्वारा मान्यता प्राप्त हैं।  इन सारगर्भित बिन्दुओं को गंभीरता से थोड़ा थोड़ा पढ़ने से ही समझ में आयेगा और सभी भृम दूर हो जाएंगे। 

6.9 वेद में ब्रह्मविज्ञान
( 1 ) सभ्यता के प्रारंभ काल में प्रकृति के पहाड़, नदी,  पेड़, आग , विजली आदि को पूजने पर जब लोगों के मन की तृप्ति नहीं हुई तब सबसे बलिष्ठ और ज्ञानी व्यक्ति को  ईश्वर  का अवतार मानकर पूजा जाने लगा। परंतु स्वरूप में प्रतिष्ठित होने की इच्छा ने उन्हें दार्शनिक  बनाया और वे सोचने लगे कि सान्त (limited) की पूजा से उस अनादि अनन्त अव्यक्त व्यापक सत्ता (infinite entity) की अनुभूति कैसे की जा सकती है? वे यह जानने के लिये बेचैन हो गये कि जिसको सर्व सत्ता देकर मन ग्रहण करेगा वह कैसा है? यहीं से ऋग्वेद और ब्रह्म भावना का विकास प्रारंभ हुआ और यजुर्वेद में यही अंकुर अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं में विस्तारित हुआ। दिव्य चेतना से साक्षात्कार करने की चेष्टा में उन्होंने पाया कि यह सब भौतिक जगत उस असीम विराट सत्ता का ही खंड विकास है इन में से कोई भी उनका पूर्ण विकास नहीं है। परंतु खंड की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती क्यों कि वह भी उन्हीं का अविच्छेद्य अंग है। साधारण मनुष्य इस गूढ़ ब्रह्म तत्व को सहज ही नहीं समझ सके अतः जप, यज्ञादि बहर्मिुखी क्रियाकलाप को धर्म साधना समझ उसे ही जकड़े रखने का प्रयास करते रहे। बहुत सोच विचार करने पर जब यह पाया कि खंड का त्याग करना संभव नहीं है क्यों कि भोजन वस्त्र आवास आदि जीवन के लिये अनिवार्य हैं अतः सभी वस्तुओं में यदि उस विराट की भावना लेकर उनका प्रयोग किया जावे तो विराट का बोध सदा मन में बना रहेगा और सीमित के प्रति आसक्ति नहीं रह पायेगी। प्रत्येक वस्तु में ब्रह्म भाव को आरोपित कर उनकी क्षुद्रता की सीमा मिटा देने पर ब्रह्मानन्द का उपभोग किया जा सकता है।

( 2 )  कहा गया है कि ‘‘ईशा  वास्यमिदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत् , तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‘‘। यह जगत हमेशा  गतिशील है, यह ब्रह्माॅंड ब्रह्म का मानसिक विकास है अतः जो आज जैसा है वह कल वैसा नहीं रहेगा अतः प्रत्येक वस्तु में ईश्वरीय  भावना भरना  होगी।  भूमि, घर , नदी, पहाड़, मान अपमान, दिन, रात, सब कुछ उन्हीं के हैं और खंड रूपमें वे ही प्रकाशित हैं अतः उनकी वस्तुओं को उनका ही दान समझ कर यथयथ भाव से व्यवहार करते चलो यह भोग करना उन्हीं को भोग करना है , खंड का मोह त्याग कर अखंड के साथ संपर्क स्थापित करो। क्या पुत्र को खिलाते हो ? नहीं नही, ब्रह्म के ही पुत्ररूपी विकास को खिलाते हो। क्या भूमि पर हल चलाते हो? नहीं नहीं, ब्रह्म का ही यह सीमित विकास है भूमि , इस पर हल चलाकर मात्र उसकी सेवा करते हो, इस प्रकार की भावना लेने से मन भौतिक जगत में लिप्त नहीं होगा और सब कुछ में रहते हुए भी सब कुछ के बाहर रह सकोगे और अंन्त में परम पद में शान्ति लाभ करोगे। प्रत्येक कार्य और वस्तु में ब्रह्म भावना लेने पर कर्मबंधन नहीं बाॅंध सकते। यह कार्य केवल आध्यात्मिक साधक ही कर सकते हैं, केवल मन की साधना करने वाले नहीं, क्योंकि मन इंद्रियों से परिचालित होकर अंधकार की ओर चला जाता है। इंद्रियों के भोग हेतु जो जड़ की ओर मन को दौड़ाते रहते हैं वे आत्मघाती हैं। कुछ लोग मुख से ब्रह्म को और आत्मा को मानते हैं धर्मरक्षा के नाम पर  रक्तपात करते हें पर व्यक्तिगत जीवन में हमेशा  भोग्य वस्तुओं की ओर ही दौड़ते रहते हैं ये लोग क्रमशः  ज्योति से अंधकार की ओर जाते है। मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य ब्रह्म साधना है।
(3 ) तत्वतः आत्मा और परमात्मा एक ही वस्तु हैं, भेद केवल मानसिक विषय में है। जीवमन जब अपने विषय के रूप में अनन्त को ग्रहण करता है तभी परमात्मा हो जाता है। भोग्य वस्तु के अनन्त नहीं होने तक शाश्वत  सुख नहीं पाया जा सकता है और भावनीय तथा अभावनीय वस्तु समूह   में एकमात्र परमात्मा ही अनादि और अनन्त हैं इसलिये एक मात्र परमात्मा को छोड़कर किसी भी सत्ता से अनन्त सुख प्राप्त कर पाना संभव नहीं है। खंड वस्तु की प्राप्ति से सुख भोग की अपेक्षा उसके खो जाने का भय अधिक रहता है। संसार को दुखमय देखने वालों को इसके खो जाने का ही दुख  रहता है, परंतु ज्ञानी इसके खो जाने से दुखित नहीं होते क्यों कि वे जानते हैं कि सब दुखों का कारण स्वसृष्ट संस्कार हैं। इसलिये क्लेश  भोगकाल में साधकों को चाहिये कि पूर्वकृत अपराध के लिये स्वयंको धिक्कार कर भविष्य में क्लेश  न भोगना पड़े इसके लिये सब प्रकार के अपकर्म से दूर रहेंगे। यह याद रखना चाहिये कि जब तक संस्कार क्षय नहीं होता है तब तक दुख भोगना ही होगा। अपने संस्कार के लिये दूसरों को दोष नहीं देना चाहिये ये स्वयं के त्रुटिपूर्ण आचरण की ही प्रतिच्छाया
होते है। लोगों को कहते सुना जाता है. हे भगवान इतना पूजा पाठ किया, दान किया, क्या इसका यही परिणाम है कि दुखों ने आ घेरा? यह कहना उचित नहीं है। दुख में कभी भी घबड़ाना नहीं चाहिये उसी अनादि अनन्त सत्ता को मन के विषय रूप में ग्रहण कर उसी के अनुरूप आचरण करना चाहिये।
( 4  ) जिनमें सभी कुछ स्थित है उन सार्वदेशिक सत्ता में गति नहीं है पर यह भी सही है कि उनकी मानस देह में उनकी ही कल्पना से सभी सत्तायें गतिशील हैं अतः वे मन से भी तेज गति से चलते हैं। इन्द्रियां  उन्हें नहीं पकड़ पाती क्योंकि उनकी दौड़ विषयों की ओर होती है जोकि उनके मानसिक विचार का बाह्य रूप हैं। वे आनन्दघनसत्ता, अपने स्वरूप में मानसिक स्तर के ऊपर प्रकाशित होते है।‘‘तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके च, तदन्तरस्य सर्वस्य तदुसर्वस्यास्य वाह्यतः।‘‘ वे आनन्दघन सत्ता, हमारे निकट हैं ,सब के भीतर बाहर सब जगह समान रूपसे रहते हैं, जब साधक उन्हें पहचान लेते हैं, तब उनकी ब्राह्मी स्थिति हो जाती है और अन्दर बाहर एकाकार हो जाता है, क्षुद्र आकर्षण से मन हट जाता है, परम ब्रह्म के साथ उनका यथार्थ परिचय हो जाता है, शरीर यहीं पड़ा रहता है और आत्मा, परमात्मा में मिल जाती है, फिर मन को पहचाना नहीं जा सकता कि किसका मन है। . क्रमशः .... 

Friday, 20 February 2015

6.8 चिंतन ध्यान और रूपान्तरण

6.8 चिंतन ध्यान और रूपान्तरण
गहन विचार करना चिंतन कहलाता है। गहन चिंतन कैसे किया जाता है? मानलो आप किन्हीं श्री ‘क‘ जो लन्दन में रहते हैं, को मानसिक रूपसे देखना चाहते हैं। चूंकि यह भौतिक जगत और विभिन्न रंगों से संबंधित मामला है अतः विशुद्ध चक्र जो कि रंगों पर नियंत्रण रखता है उसकी ग्रंथियों और उप ग्रंथियों पर मन को केन्द्रित करना होगा। इसके बाद कूर्मनाड़ी से होते हुए मस्तिष्क के उन तंतुओं पर जाना होगा जो इन सब पर नियंत्रण करते हैं। इसे प्रत्याहार की विधि कहते हैं। इसके बाद उस द्रश्यावली  को देखते हुए ध्वनि और रंगों तथा चिंतनीय विषय पर मन को केन्द्रित करना होगा। यह रहस्यमय है। यदि सुगंधित वस्तु को अनुभव करना हो तो हमें मूलाधार चक्र से प्रारंभ करना होगा, यदि चिंतनीय वस्तु एक प्रकार की गंध वाली है तो कम समय लगेगा अन्यथा अधिक। इससे स्पष्ट है कि आध्यात्मिक साधक को मानव शरीर की संरचना का ज्ञान होना कितना आवश्यक  है। सभी सैलों का एक एक  नियंत्रक विंदु होता है और इन सभी नियंत्रक विंदुओं का नियंत्रण करता है गुरु चक्र, जो क्रेनियम के भीतर सहस्त्रार चक्र के नीचे होता है। इसी चक्र में सर्वज्ञान होने की क्षमता होती है। परम सत्ता को जानने का अर्थ है इन सैलों के रहस्य को जान लेना। इस तरह दूसरे शब्दों  में यह कहा जा सकता है कि मैंपन के नियंत्रक बिंदु को उसका साक्ष्य देने वाले रूपसे मेल कराने के कार्य को चिंतन या मनन कहते हैं। गहन चिंतन मनन में ब्रेन सैल, शीर्ष मनोविज्ञान ,गहन विचार, गुरु चक्र और परिणामतः समर्पण सम्मिलित रहता है। मानलो किसी व्यक्ति का चेहरा देखा, अब आॅंखें बंद कर पुनः तुलना कर देखें कि किस स्तर पर मानसिक चित्र मन में रह पाया आनलो चैथाई भाग । अब अपनी क्षमता से और उसका आकार बढ़ाने का प्रयत्न करने पर जितना अधिकतम वह बढ़ पाता है वही मन की सीमा हुई, इसे ही सब्जेक्टिवेटेड पेबुला कहते हैं। जब आॅंखों से बाहर की कोई वस्तु दिखाई देती है तो इसे आव्जेक्टिवेटेड पेबुला कहते हैं। मन की सीमा सब्जेक्टिवेटेड पेबुला पर निर्भर करती है आव्जेक्टिवेटेड पर नहीं। भौतिक और मानसिक पेबुला को परस्पर बदला जा सकता है पर आध्यात्मिक क्षेत्र में नहीं। मन में परिवर्तन करना 25 प्रतिशत मामलों में खतरनाक हो सकता है क्योंकि यदि सही सामंजस्य नहीं हो पाया तो पागलपन हो सकता है। यदि सही संतुलन बनाये रखा गया तो केवल झिन झिन का आभास होगा और व्यक्तित्व बदल जायेगा। आत्मा के बदलने पर मृत्यु का डर रहता है, यदि सही संतुलन न हो सका तो 2/3 दिन में मृत्यु हो जाती है। आन्तरिक रूप से रूपान्तरण माइक्रोवाइटा से किया जाता है। अतः जितना अधिक सब्जेक्टिवेटेड पेबुला की सीमा होती है उतना ही अधिक मन का क्षेत्र भी होता है। अपने पवित्र विचारों से दूसरे की मानसिक तरंगों को भी बदला जा सकता है। किसी पर पवित्र ढंग से चिंतन करने पर उसे इच्छानुकूल बदला जा सकता है।
कर्म के द्रष्टिकोण से मनुष्य शरीर के तीन चक्रों की प्राथमिकता होती है। नाभि क्षेत्र में मनीपुर जो कि रुद्र ग्रथि भी कहलाता है वह अत्यंत कठोर होता है, दूसरा विष्णु ग्रंथि के पास और तीसरा आज्ञा चक्र त्रिकुटी पर। गले में स्थित कूर्मनाड़ी पर स्थित होता है विशुद्ध चक्र जो बृहस्पति ग्रंथी भी कहलाता है क्योंकि इसकी सहायता से बुद्धि को शक्तिशली बनाया जाता है। इसी के आस पास थायरायड और पैरा थायरायड ग्रंथियाॅं होती हैं। जैव द्रव्य या लिंफ के साथ इन चक्रों की क्रिया और पारस्परिक संबंधों के फलस्वरूप अनेक प्रकार के ग्रंथिरस या हारमोन उत्सर्जित होते हैं जो प्रवाहित होकर नीचे की ओर आते हैं और नीचे के चक्रों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते है। अनाहत चक्र के पास स्थित सौर चक्र के द्वारा अधिकाॅंश  हारमोन्स अवशोषित कर लिये जाते हैं। आज्ञाचक्र के ऊपर की ग्रंथियों और उपग्रंथियों द्वारा जब हारमोन्स का स्राव किया जाता है तो आज्ञाचक्र उसे अवशोषित कर लेता है जिससे आॅंखों के रेटिना अत्यधिक आनन्द के प्रभाव से ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं। आॅंखों में नींद जैसी भर जाती है इसे योग निद्रा कहते हैं। इसके बाद ये हारमोन्स निचले चक्र विशुद्ध चक्र में अवशोषित हो जाते हैं और बहुत कम मात्रा में नीचे की ओर के चक्रों तक जा पाते हैं।  यदि साधना ठीक होती रहती है तो विशुद्ध चक्र पर हारमोन्स के अवशोषित होने पर आवाज मधुर हो जाती है और आनन्दातिरेक में कूर्मनाड़ी कंपित होने लगती है , शरीर अचल, द्रढ़ और त्वचा कोमल हो जाती है। अनाहत तक आते आते सभी सुधारस पूर्णतः शोषित हो जाता है और यदि  इस विंदु पर तक आ जाता है तो साधक को आनन्द के कारण मदहोशी  आ जाती है। यह वैसी ही होती है जैसी भगवान सदाशिव हमेशा  अनुभव करते थे। मनीपुर चक्र के नीचे भी अनेक ग्रंथियाॅं और उपग्रंथियाॅं होती हैं और उन से भी अनेक प्रकार के ग्रंथिरस स्रवित होते हैं पर वे किसी चक्र के द्वारा अवशोषित नहीं होते वे अपशिष्ट होकर बाहर निकल जाते हैं। तान्त्रिक क्रियाओं के द्वारा इन्हें रोका जा सकता है इसे स्तंम्भन कहते हैं। मनीपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्र भौतिक जड़ता से जुड़े होने के कारण इष्ट मंत्र को इन पर केन्द्रित नहीं करते हैं। अनाहत, विशुद्ध आज्ञा और गुरु चक्र पर ही इष्ट मंत्र से ध्यान किया जाता है। ग्रथियाॅं और उपग्रंथियाॅं मस्तिष्क के सैलों से नियंत्रित होती हैं जो हजारों की संख्या में होते हैं। इन्हीं से संवेदनाओं और स्वतः प्रतिक्रियाओं को भी नियंत्रण किया जाता है। इन सभी नर्वसैलों का अपना आपना प्राण केन्द्र होता है और इन सभी प्राण केन्द्रों को नियंत्रित करने वाला विंदु मस्तिष्क के भीतर होता है जो कुशा  की नोक के बराबर होता है इसे ही गुरुचक्र कहते हैं। इसी में गुरु, परमगुरु, परापरगुरु और परमेष्ठिगुरु रहते हैं। चिंतन मनन और ध्यान के लिये यह सर्वोत्तम बिंदु है। गुरुचक्र पर गुरु का ध्यान करना गुरुसकाश  कहलाता है जिसका अर्थ है गुरु की शरण में जाना उनके समीप बैठना। यदि कोई अपने बीज मंत्र को बिना रुके हमेशा  जाप करता है तो जाप का लय जो गुरु के घ्यान के समय उत्पन्न होता है, वह सोने के समय स्वप्रेरित होकर लगातार चलता रहता है, इसे साधक नहीं जान पाता और सबेरे जागने पर उसे पता ही नहीं लगता है कि वह किस अवस्था में था। जब जीवन के लय के साथ जप का लय मिल जाता है तो इसे धर्ममेघ समाधि कहते हैं । जब इस प्रकार की स्थिति लगातार बनी रहे और साधक साधना को नहीं छोडे़ तो स्मरण स्थायी हो जाता है इसे ध्रुवास्मृति कहते हैं। इस अवस्था में सोते समय भी ध्यान चलता रहता है भले ही औपचारिक रूपसे ध्यान नहीं किया जाता ,इसी लिये इसे अजपा जप या अध्यानध्यान कहते हैं । वे जिनका समय भावप्रवणता या अतिसंवेदनाओं के कारण व्यर्थ नष्ट होता है उन्हें गुरुचक्र पर गुरु का ध्यान सिद्धासन में उसी कंबल या विस्तर के वस्त्र पर बैठकर करना चाहिये जिस पर सोते है। सोकर उठने पर तत्काल बिना कोई भी कार्य किये , बिना कोई बिचार मन में लाये, बिना किसी प्रातःकालीन आवश्यक  कार्य किये गुरुध्यान करना उच्चस्तर का गुरुध्यान कहलाता है।  कहा गया है कि
 ‘‘प्रातः शिरसि शुक्ले अब्जे द्विनेत्रम द्विभुजम गुरुम् वराभयकृत हस्तम् स्मरेत्तम् नामपूर्वकम्।‘‘
अर्थात् रोज शीघ्र सुवह उठते ही दो नेत्र और दो भुजाओं वाले, गुरुचक्र पर श्वेत  कमल पर वराभय मुद्रा में
बैठे गुरु को अपने प्यारे  ‘‘बाबा‘‘ इस नाम से पुकारते हुए ध्यान करना चाहिये।

Tuesday, 17 February 2015

6.7 मन और मानव तन की ऊर्जा ग्रंथियाॅं।

6.7 मन और मानव तन की ऊर्जा ग्रंथियाॅं।
मन जड़ की ही सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है, यह सूक्ष्मतर सत्ता ही स्तर भेद के अनुसार कहीं अस्तित्व बोध के साथ जड़ का संबंधीकरण करती है और कहीं वह जड़ का भाव रूप ग्रहण करती है।
1. जिस सत्ता के द्वारा अस्तित्व बोध जागता है वह सबसे सूक्ष्म है इसे महत तत्व कहते हैं। उन्नत श्रेणी के जीव इस कोटि में  आते हैं।
2. जिस सत्ता से अस्तित्व बोध के साथ जड़ के संबंध का निर्णय होता है वह अपेक्षतया स्थूल होता है इसे अहंतत्व कहते हैं।
3. जिस सत्ता से जड़ का भाव रूप ग्रहण होता है इस स्थूलतम अंश  को चित्त कहते हैं। इस से जड़ भाव ग्रहीत होता है पर अस्तित्व बोध नहीं।
   उदाहरणः- अवनत श्रेणी के लता गुल्म या जीव। इनमें महततत्व जाग्रत न होने से स्थूल देह काट कर दो टुकड़े कर देने पर भी वे दो अलग अलग प्राणियों में परिणत हो जाते हैं। चैत्तिक संघर्ष के बढ़ने से अहं और महत, आयतन में बढ़ते जाते हैं।

दार्शनिक  चर्चाओं में  मानस (mind) उसे कहते हैं जब अहं का आयतन चित्त के आयतन से कम होता है, मनीषा (intellect) उसे कहते हैं जब अहं का आयतन चित्त के आयतन से अधिक होता है और बोधि (intuition) उसे कहते हैं जब महत का आयतन अहं के आयतन से अधिक होता है।

मानसिक प्रगति एक्टोप्लाज्म और एन्डोप्लाज्म के धरातल में होती है जबकि आध्यात्मिक प्रगति संज्ञानात्मक संकाय (cognitive faculty) में होती है जिसमें सभी इच्छायें और वृत्तियाॅं परम सत्ता की ओर भेज दी जाती हैं। एन्डोप्लाज्म, एक्टोप्लाज्म का बाहरी आवरण है । एक्टोप्लाज्म का सामूहिक रूप ‘‘मैं हूॅं‘‘ की भावना जाग्रत करता है । एक्टोप्लाज्म में बृद्धि होने पर उसका आयतन और प्रभावी क्षेत्र बढ़ता जाता है। एक्टोप्लाज्म की सामूहिक बृद्धि होने पर एन्डोप्लात्म भी क्रमशः  फैलते हुए टूट जाता है और ‘‘ इकाई मैं ‘‘ ‘‘ ब्राह्मिक मैं‘‘ में मिल जाता है। वास्तव में एक्टोप्लाज्म मानसिक संकाय प्रदान कारता है जब कि एन्डोप्लाज्म ‘‘मैं‘‘ की भावना। एन्डोप्लाज्मिक संरचना में ‘‘मैं‘‘ की भावना न्यूनतम होती है वह एक सामूहिक संरचना और प्रकृति का होता है जबकि एक्टोप्लाज्मिक संरचना इकाई संरचना और प्रकृति का होता है, इसे ही इकाई अस्तित्व संकाय और ज्ञान संकाय कहते हैं। संज्ञानात्मक संकाय दोनों संरचनाओं से सामान्य अर्थात् ‘प्रोतयोग‘ और विशेष अर्थात् ‘ओतयोग‘, दोनों प्रकार से संपर्क बनाये रखता है। जटिल संरचनाओं में मैंपन का बोध सामूहिक ‘‘मैं‘‘ होता है जबकि इकाई संरचना में प्रोटोजोइक ‘मैं‘ होता है। इसलिये समग्र विश्व  के साथ परम सत्ता का संबंध होना प्रोत योग ही है। एक्टोप्लाज्म की प्रकृति इकाई संरचना और एन्डोप्लाज्म की प्रकृति सामूहिक संरचना की होती है। उन्नत जीवों का मैंपन बोध जटिल होता है उसे विभिन्न कोणों और प्रकारों से समझाया जाता है। सामूहिक मानसिक संरचना इकाई ‘मैं‘ की भावना देती है जिसमें अनेक एक कोषीय, बहुकोषीय, प्रोटोजोइक और मेटाजोअक  सैल होते हैं जो अनेक प्रकार के संवेदन, विचार और ज्ञान संसूचित करते हैं। पौधों के प्रोटोप्लाज्मिक सैलों और मनुष्य के प्रोटोप्लाज्मिक सैलों में  अधिक अंतर नहीं होता । पौधों के सैलों में एन्डोप्लाज्मिक आवरण नहीं होता मनुष्यों में होता है। एन्डोप्लाज्मिक सैलों कार्य यह होता है कि वे मनुष्यों की संवेदनाओं के परावर्तन और अपवर्तनों को अंकित कर सकें। यही कारण है कि मानव मन अधिक सूक्ष्म और ग्राही होता है। यदि मन अनेक दिशाओं में गति करता रहता है तो वह परम सत्ता के साथ सामंजस्य नहीं कर पाता पर यदि सभी वृत्तियों को केन्द्रित करके उन्हें परम पुरुष की ओर प्रवाहित कदिया जाता है तो वह परम पुरुष के साथ एकाकार होकर अपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर देता है और सगुण या निर्गुण समाधिप्राप्त करता है। अब प्रश्न  यह है कि मनुष्य अपनी वृत्तियों को एक विंदु पर एकत्रित कर परम सत्ता की ओर किस प्रकार प्रवाहित कर सकता है? इसका उत्तर पाने के लिये वायोसाइक्लाजी को जानना आवश्यक  है। इसके कुछ तथ्य नीचे दिये जा रहे हैं।

लिंफ (lymph) या लसिकाः  यह मानव शरीर का महत्वपूर्ण  घटक है जिस पर शरीर की विभिन्न ग्रंथियाॅं निर्भर होती हैं। लिंफ वास्तव में जो कुछ हम खाते हैं उसकी क्रीम है और इसके प्रभावी होने के लिये सात्विक भोजन आवश्यक  है। लिंफ का  अंततः अस्थि मज्जा में परिवर्तन हो जाता है जिसे सब क्रीमों की क्रीम कहा जा सकता है। लिंफ एक प्रकार के हारमोन्स हैं जो अनेक लिंफ ग्रंथियों के द्वारा निर्मित किये जाते हैं। इसकी सहायता से ही अन्य सक्रिय ग्रंथियाॅं अपने अपने लिये नये हारमोन बनाती हैं। इसी से त्वचा पर चमक बनी रहती है। सभी देशों  में सोलह से अठारह वर्ष की आयु में युवावस्था के आरंभ होते ही लिंफेटिक ग्रंथियाॅं सक्रिय हो जाती हैं यह वह समय होता है जब प्रत्येक युवा के मन में कुछ अनोखा करने का उत्साह होता है । यदि उचित मार्गदर्शन  और वातावरण नहीं मिला तो इस अवस्था में युवा पथभ्रमित हो जाते हैं। टेस्टिस ग्रंथि लिंफ को सीमेन में परिवर्तित करती है, यदि यह ग्रंथि सही ठंग से काम करे और लिंफेटिक ग्रंथियों में कोई व्यवधान न हो तो बुद्धि उत्पन्न होती है। टेस्टिस के विना सौर ग्रंथि विकसित नहीं हो पाती अतः बुद्धि भी कम हो जाती है। लिंफ मस्तिष्क के सैलों का भोजन भी है, यदि इन सैलों को उचित मात्रा में लिंफ नही मिल पाता तो व्यक्ति का बौद्धिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। सभी मानवीय गुण लिंफ से ही प्राप्त होते हैं अतः ब्रह्मचर्य का महत्व समझना चाहिये। जब लिंफेटिक ग्रंथी और टेस्टिस एक साथ क्रियाशील होते हैं तो वे उचित प्रकार से सक्रिय रह कर, टेस्टिस द्वारा लिंफ को सीमेन में बदल दिया जाता है जो पुरुषों में बच्चों के प्रति प्रेम और कुछ भाग शरीर में उचित ऊर्जा और आकर्षण और महिलाओं में अंडाणु तथा दूध का निर्माण करने में प्रयुक्त होता है। आध्यात्मिक साधकों में यह परम पुरुष के प्रति प्रेम जाग्रत करता है और छाती कोमल तथा दाढ़ी सघन हो जाती है। इस प्रकार लिंफ मानसिक परिवर्तन का प्रमुख कारण बनता है। लिंफ के अधिकाधिक निर्माण के लिये क्लोरोफिल बहुत सहायक है। शाकाहारी भोजन जिसमें हरी सब्जियाॅं प्रचुर मात्रा में होती हैं वे लिंफ के निर्माण में त्वरित सहयोग करती हैं। माॅंसाहारी बालकों की तुलना में शाकाहारी बालकों की बुद्धि इसी लिये तेज होती है। मांसाहार तेज गति से लिंफ को सीमेन में बदलता है जबकि लिंफ का उत्पादन कम करता है इस लिये बुद्धि का विकास रुक जाता है। भौतिक और मानसिक अच्छा वातावरण, सात्विक भोजन, सात्विक पुस्तकों  का अध्ययन, सात्विक विचार और सत्संगति आदि लिंफ के उत्पादन में धनात्मक उत्प्रेरक और इसके विपरीत ऋणात्मक उत्प्रेरक का काम करते हैं। साधकों और आध्यात्मिक प्रगति करने वालों का अधिकाॅंश  लिंफ शरीर में ही रहता है जो अधिक होता है वह मस्तिष्क के भोजन के रूपमें प्रयुक्त हो जाता है यही कारण है कि साधारण लोगों की अपेक्षा साधकों का बौद्धिक स्तर अधिक ऊंचा होता है।

कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथियाॅं (glands) :-  मानव शरीर में अनेक ग्रंथियाॅं और उप ग्रंथियाॅं पाई जाती हैं जो विशेष प्रकार के ऊर्जा केन्द्र या (plexus) निर्मित करती हैं और उसी केन्द्र के द्वारा नियंत्रित की जाती है। बालक जब गर्भ में होता है तो सभी ग्रंथियाॅं माता की प्रणाली  द्वारा ही नियंत्रित होती हैं , जन्म के समय सभी plexus होते हैं पर सभी सक्रिय नहीं होते वे तभी सक्रिय होते हैं जब वह अपनी प्रणाली से श्वाश  लेने लगता है। प्लेक्सी के सक्रिय होते ही भौतिक शरीर, नर्व और हारमोन संरचना आदि सब कुछ बदलने लगते हैं। ग्रंथियों के अधिक या कम स्रवित होने पर पिट्युटरी ग्रंथि प्रभावित होती है जो दूसरी ग्रंथियों को भी प्रभावित करती है और पूर्व जन्म की वृत्तियाॅं भी प्रभावित होती हैं। ठंडे देश  के लोगों में इन ग्रंथियों में धीमे और गर्म देश  के लोगों में यह परिवर्तन तेजी से होता है। जन्म के समय जन्मजात प्रवृत्तियों के कारण केवल 10 नाडि़यों की सक्रियता होती है पर पाॅंच वर्ष की आयु होने तक अन्य ग्रंथियों के हारमोन्स का स्राव होने से  अधिक संकाय सक्रिय होजाते हैं कुल मिलाकर मानव संरचना में 1000 ग्रंथियाॅं होती हैं पर यहाॅं कुछ महत्वपर्ण ग्रंथियों का ही उल्लेख किया जा रहा है।

यौनग्रंथियाॅं (gonads): टेस्टिस अथवा ओवरी के विकास के साथ बच्चे की त्वचा में कुछ परिवर्तन आ जाते हैं वह कुछ मोटा हो जाता है और क्रोध, लोलुपता, आज्ञाकारिता, भाई बहिनों और मित्रों के प्रति प्रेम बढ़ने लगता है। विचारों में भी परिवर्तन होने लगता हे। 13 वर्ष  की आयु में टेस्टिस से निकलने वाले हारमोन, लिंफ को सीमेन में बदलने लगते हैं और यदि सामान्य रूपसे यह स्राव होता है तो मन में सेक्स संबंधी विचार आने लगते हैं । यदि टेस्टिस अधिक सक्रिय हो जाते हैं तो विवेकपूर्ण भावना मन में आती है यह मनोवैज्ञानिक है। 15 वर्ष की आयु में टेस्टिस के चारों ओर और 17 वर्ष की आयु में कंधों की संधियों में बाल आ जाते हैं। बालक इस अवस्था में आने तक अपने माता पिता का बहुत आज्ञाकारी हो जाता है पर इसके बाद वह अपने विचारों के साथ तर्क करने लगता है। यदि टेस्टिस से हरमोन्स का स्रवित होना कम होता है तो इन स्थानों के बाल कम होते है। यदि 13 से 15 वर्ष की आयु के दौरान सेक्स हारमोन उचित रूपसे नहीं स्रवित होते तो  17 वर्ष की आयु तक बालक असामाजिक हो जाता है। इस प्रकार के बच्चे कीडे़ मकोड़ों को बड़ी निर्दयता से उनके एक एक अंग को खींच खींच कर मारने में आनन्द पाते हैं। जब तक पीनियल ग्रंथी कार्य करना प्रारंभ नहीं करती लिंफ का परिवर्तन सीमेन में नहीं होता। 17 वर्ष की आयु में टेस्टिस के अधिक स्रवित होने पर सार्वभौमिक प्रेम और परमपुरुष के प्रति प्रेम जा उठता हैं। हारमोन्स के कम स्रवति होने पर संधि स्थल पर कम बाल होना, दुष्टता और भीरुता के साथ संकीर्ण विचारों और रूढि़वादी हो जाना, और नये विचारों को सहन नहीं कर पाना जैसे गुण उत्पन्न हो जाते हैं। यदि टेस्टिस / ओवरी को शरीर से अलग कर दिया जाता है तो मृत्यु नहीं होती पर नपुंसकता, कर्तव्यहीनता और गैरजिम्मेदारी जैसी आदतें बढ़ जाती हैं।

पौरुष ग्रंथियाॅं(prostrate): तीन, चार या पाॅंच वर्ष की आयु तक बच्चों में शर्म  नहीं होती परंतु पौरुष ग्रंथियों के सक्रिय होते ही यह आ जाती है। यहाॅं हारमोन्स का सामान्य स्राव होने पर मनीपुर चक्र की प्रथम उपग्रंथी द्वारा लज्जा और शरमीलेपन की भावना उत्पन्न होती हैं। पाॅंचवी और छठवीं उपग्रंथी का एकसाथ अधिक स्रवित होना अवसाद उत्पन्न करता है। नवीं और दसवीं उपग्रंथी का कम स्रवित होना भीरुता पैदा करता है और मानसिक विभ्रम के कारण भूत दिखने जैसा आभास होता है। सभी ग्रंथियाॅं लिंफ से ही कच्चा माल पाकर अपनी आपनी उन्नति करते हैं अतः उस पर अधिक आश्रित  होते हैं जबकि लिंफेटिक ग्लेंड अन्यों पर आश्रित नहीं होता है। लिंफ की अधिक आपूर्ति मस्तिष्क के तंतुओं को भोजन देने का कार्य करती है।

सौर ग्रंथी (solar plexus)  सौर ग्रंथी में हारमोन्स का सामान्य प्रवाह बच्चों, मित्रों और भाई बहिनों में प्रेम उत्पन्न करता है। यह सभी स्तनपायी जीवों में होता है पर वे प्राणी जिनके काट देने पर अलग अलग भी जीवित बने रहते हैं उनमें यह ग्रंथी नहीं होती इस लिये उनमें बच्चों के प्रति प्रेम नहीं होता । लिंफेटिक ग्रंथी और टेस्टिस के उचित कार्य करते हुए सौर ग्रंथी का विकास होने पर पुरुषों में दाढ़ी मूछ और महिलाओं में स्तनों की बृद्धि होने लगती है और सबके प्रति प्रेम जाग्रत हो जाता है। महिलाओं में लिंफ, दूध निर्माण करता है। सौर ग्रंथी में अधिक स्राव होने ने से दाढ़ी मूछ और छाती के बाल घने हो जाते हैं और परमपुरुष के प्रति प्रेम बढ़ जाता है। सौर ग्रंथी अन्य सब ग्रंथियों का आधार है अतः यदि इसको शरीर से अलग कर दिया जाये तो  जीवन समाप्त हो जाता है। यथार्थता यह है कि किसी भी प्राणी के शरीर से एक भी ग्रंथी अलग कर दी जावे तो वह जीवित नहीं रहता।

पेराथायरायड ग्रंथीः इस ग्रंथी के सक्रिय होने पर पुरुषों के गले की आवाज मोटी और मूछें घनी हो जाती हैं। महिलाओं में आवाज मोटी नहीं होती और न ही मूछे होती है पर इनमें विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है क्योंकि महिलाओं में इस ग्रंथी का विकास पुरुषों से कम होता है। इसके उचित रूप से विकसित न होने पर या इसके हारमोन्स का उचित स्राव न होने पर पुरुषों में आत्मविश्वाश  की कमी, तानाशाही प्रवृत्ति और आत्मश्लाघा  करने की आदतें और महिलाओं में झगड़ा करने और स्वार्थी होने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। गर्म देशों  में यह ग्रंथी 24 और ठंडे देशों  में 25 वर्ष की आयु में विकसित होती है। 39 वर्ष की आयु के बाद शरीर का विकास कम होने लगता है पर मानसिक विकास 54 वर्ष की आयु तक जारी रहता है, 60 वर्ष की आयु में सोचने की क्षमता भी कम होने लगती है।

पिट्यूटरी ग्रंथीः  शिव के समय योगियों और बायोसाक्लाजिस्टों  ने हिमालय की ठंडी जलवायु को परामनोविज्ञान के शोधकार्य करने के लिये प्राथमिकता दी। उनका मुख्य विषय था ज्ञानात्मक संकाय का संप्रेषण करना , परामनोविज्ञान उसकी छोटी सी शाखा है। इस ग्रंथी का दाॅंया भाग वाॅयें भाग को और  वाॅयां भाग दाॅयें भाग को नियंत्रित करता है। वाॅयें भाग की वृत्तियाॅं 400 से कुछ अधिक होती हैं जो अधोगति और अवसाद , लज्जा और उन्हीं जैसे गुणों को उत्पन्न करती हैं और दाॅयें भाग की वृत्तियाॅं भी 400 से कुछ अधिक होती हैं जो परासत्ता की ओर ले जाने का रास्ता बतातीं हैं। पिट्यूटरी परा और अपरा ज्ञान दोनों  पर नियंत्रण रखती है और संतुलन बनाती है। यदि दायाॅं भाग विकसित होता है और वाॅंया भाग अविकसित रहता है तो मनुष्य को अगले जन्म में मनुष्य का शरीर मिलता है पर उसका सेक्स बदल जाता है, नर से मादा और मादा से नर हो जाता है, पर आत्म ज्ञानी रहता है जिससे साधना कर सके। यदि दायाॅं भाग अविकसित और वांयाॅं भाग विकसित होता है तो  उसे अगले जन्म में मनुष्य शरीर नहीं मिलता वरन् उन्नत जीवों जैसे गाय बैल , कुत्ता , बंदर आदि का शरीर मिलता है। इस अवस्था में वह अपने पूर्व जीवन को याद रखता है परंतु ज्योंही यौन ग्रंथियाॅं विकसित होने लगती हैं वह भूल जाता है और यदि नहीं भूलता तो मृत्यु हो जाती है। इस ग्रंथी के दोनों पक्ष अच्छी तरह विकसित हो जाने पर व्यक्ति आत्म ज्ञानी हो जाता है यदि इस जन्म में वह मुक्त नहीं हो पाता तो अगले जन्म में संस्कारों के क्षय करने के लिये वह परामनोविज्ञान द्वारा मार्गदर्शित  होता है और ज्योंही यौन ग्रंथियाॅं विकसित होती हैं वह सब कुछ छोड़कर अच्छा साधक बन जाता है और जीवन में सफल होता है। यदि कोई अपने जीवन में साधना करते हुए मुक्त नहीं हो पाता तो उसे पुनः मनुष्य जन्म मिलता है वह अपने पिछले जन्म को याद रख सकता है और नहीं भी । पर यदि कोई जीवन के अतिम भाग में साधना प्रारंभ करता है और पिट्यूटरी ग्रंथी का दायां  भाग विकसित हो जाता है तो पिछला जीवन याद रहता है। अच्छा यह है कि सब को जितने जल्दी हो सके यौन ग्रंथियों के विकसित होते ही साधना करना प्रारंभ कर देना चाहिये। सबसे अच्छी आयु  13 वर्ष है। जिन्होंने पिट्यूटरी से पीनियल ग्रंथी की ओर  जाने का अभ्यास करते हुए साधना की होती है और वे मुक्त नहीं होते तो उन्हें अगले जन्म में मनुष्य शरीर मिलता है और वे परामनोविज्ञान के द्वारा मार्गदर्शित  होते हैं और 13 से 15 वर्ष तक की आयु तक पिछले जन्म का स्मरण रखते हेैं पर यौन ग्रथियों के सक्रिय होते ही वह भूल जाते हैं। जिन्हें मुक्ति मिल जाती है वे अपने पूर्व जीवन को अपनी इच्छानुसार याद रख सकते हैं या नहीं रख सकते। कुछ विशेष मामलों में यौन ग्रंथियों के सक्रिय हो जाने के बाद भी पुराना जीवन याद बना रहता है और मृत्यु भी नहीं होती पर वे अच्छे आध्यात्मिक संत हो जाते हैं क्योंकि पारिवारिक जीवन में वे संतुलन स्थापित नहीं कर पाते हैं। इस लिये पिट्यूटरी ग्रंथी बहुत ही महत्वपूर्ण है और उसका दाॅंया भाग बहुत महत्व रखता है। यदि दोनों भाग अच्छी तरह विकसित कर लिये जावें तो व्यक्ति आत्मज्ञानी अवश्य  हो जाता है भले ही सर्व ज्ञाता न हो।

पीनियल ग्रंथी:  यह शुद्ध रूपसे आध्यात्मिक ग्रंथी है, इस के ऊपरी भाग को सहस्त्रार और निचले भाग को गुरु चक्र कहते हैं। यह जीवन के अंतिम भाग में पूर्णतः विकसित होती है । यदि कोई अपने जीवन में इस पर मन केन्द्रित करते हुए साधना करता है तो वह अवश्य  ही मुक्त होता है। यदि कोई साधना कर केद्रित मन विकसित कर लेता है तो वह मुक्त हो जाता है अन्यथा फिर से जन्म पाता है। अतः साधक तब मुक्त होता है जब वह मन को केन्द्रित कर इस ग्रंथी पर आघात करता है। इसलिये मनुष्य को साधना जल्दी ही प्रारंभ कर देना चाहिये ताकि पीनियल ग्रंथी के विकसित होते ही वह मुक्त हो जावे। यदि कोई  इसी जीवन में साधना करते हुए मुक्त नहीं हो पाता तो उसे अगले जन्म में उन्नत पीनियल और पिट्यूटरी ग्रंथी  प्राप्त होती है। साधक को पूरी ताकत से गुरु चक्र पर अपने मनको केन्द्रित करके ध्यान करना  चाहिये क्योंकि वही सहस्त्रार और सम्पूर्ण पीनियल ग्रंथी को नियंत्रित करता है। जब पीनियल ग्रंथी का स्राव पिट्यूटरी को अभिभूत कर लेता है तो आध्यात्मिक अखंडता अर्थात् समाधि की स्थिति में इसे तीसरा नेत्र कहते हैं। जहाॅं तक पीनियल और पिट्यूटरी ग्रंथी का प्रश्न  है नर और नारियों के लिये इनमें कोई भिन्नता नहीं है पर अन्य ग्रंभ्थियों के लिये भिन्नता पाई जाती है। अतः यह कहना गलत है कि महिलायें मुक्ति के लिये पात्रता नहीं रखती। मनुष्य परमपुरुष के हाथों में एक खिलोने की तरह है , साधना और ध्यान उन्हीं को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है। वे ही परम गुरु हैं अतः गुरुचक्र  पर मन और सभी वृत्तियाॅं केन्द्रित कर उनका ध्यान करने से वे संतुष्ठ होकर आवागमन से मुक्त कर देते हैं ।

चक्र और माक्रोवाइटाः आध्यात्मिक प्रगति के लिये चक्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है यथार्थतः चक्रों की शुद्धि और नियंत्रण करना। चक्र क्या है? ग्रंथियों और उपग्रंथियों का  समूह। सभी प्राणियों में इन चक्रेां की अलग अलग स्थितियाॅं होती हैं। मनुष्यों में सूक्ष्म ऊर्जा नाडि़यों इडा, पिंगला और सुषुम्ना के परस्पर संपर्क बिंन्दुओं पर इनकी स्थिति होती है। मनुष्यों के मन में अनेक प्रकार के विचार आते जाते रहते हैं जो उनके संस्कारों द्वारा जनित वृत्तियों से निर्मित होते हैं। इन वृत्तियों का नियंत्रण और प्रवाह इन चक्रों पर निर्भर होता है। मुख्यतः 50 वृत्तियाॅं भीतर और बाहर इन्हीं चक्रों के कंपनों द्वारा कार्यरत रहती हैं। इन्हीं कंपनों के कारण विभिन्न ग्रंथियाॅं हारमोन्स का स्राव करती हैं और सामान्य या असामान्य वृत्तियों का उत्पन्न होना इन हारमोनों के सामान्य या असामान्य स्राव पर निर्भर होता है। मानव मन तभी तक कार्य करता है जब तक ये वृत्तियाॅं प्रदर्शित  होती हैं, इनके समाप्त होते ही मन भी समाप्त हो जाता है।विभिन्न चक्रों के नाम और उनके क्षेत्र इस प्रकार हैं।

मूलाधार चक्र- भौम मंडल। स्वाधिष्ठान चक्र-तरल मंडल। मणिपूर चक्र-अग्नि मंडल। अनाहतचक्र’-सौर मंडल। विशुद्ध  चक्र- नक्षत्र मंडल। आज्ञाचक्र-चंद्रमंडल। संस्कृत में मंडल को वृत्त, थायरायड ग्लेंड को बृहस्पति ग्रंथी, हारमोन्स को ग्रंथी रस, पैराथायरायड को बृहस्पति उपग्रंथी, पिट्यूटरी ग्लेंड को मायायोगिनी ग्रंथी और पीनियल ग्लेंड को सहस्त्रार ग्रंथी कहते हैं। चक्र अपने भीतर अनेक वृत्तियों और उनके ध्वन्यात्मक बीजों  को समेटे रहते हैं।जैसे,
मूलाधार चक्र में चार वृत्तियाॅं धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक बीज  क्रमशः  व,श ,ष और स होते हैं।
स्वाधिष्ठान चक्र में छः वृत्तियाॅं अवज्ञा, मूर्छा, प्रणाश , अविश्वाश , सर्वनाश , क्रूरता आदि होती हैं इनके ध्वन्यात्मक बीज  क्रमशः  ब, भ, म, य, र, ल होते हैं।
मनीपुर चक्र में दस वृत्तियाॅं लज्जा, पिशूनता, ईर्ष्या , सुसुप्ति, विषाद, क्षय, तृष्णा, मोह, घृणा और भय की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक बीज  क्रमशः  दा, धा, ना, त, थ, द, ध, न, प, फ होते हैं।
अनाहत चक्र में बारह वृत्तियाॅं आशा , चिंता, चेष्टा, ममता, दम्भ, विवेक, विकलता, अहंकार, लोलता, कपटता, वितर्क, अनुताप की होती हैं इनके ध्वन्यात्मक बीज  कंमशः  क, ख, ग, घ, डॅ., च, छ, ज, झ, ´, ता, था, आदि होते हैं। यह चक्र श्वशन  प्रणाली को प्रभावित करता हैं यहाॅं पर धनात्मक माइक्रोवाईटा अधिक प्रभावी हो जाते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होते हैं इससे नीचे के चक्रों पर नकारात्मक माइक्रोवाइटा प्रभावी होते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में बाधक होते हैं।
विशुद्ध चक्र में सोलह वृत्तियाॅं षडज, ऋषभ, गाॅंधार, मध्यम, पंचम, धैवत्, निषाद, ओम, हुंम, फट्, वौषट, वषट्, स्वाहा, नमः, विष और अमृत की होती हैं। प्रत्येक प्राणी अपनी लाक्षणिक विशेषताओं से नियंत्रित होते हैं अतः इस चक्र की प्रथम सात ध्वनियाॅं संबंधित प्राणियों से ली गई हैं। वाॅंये कान के नीचे से दाॅंये कान के नीचे तक का क्षेत्र इस चक्र का होता है इसमें धनात्मक माइक्रोवाईटा संपर्क में आते हैं। विशुद्ध चक्र में 16 उपग्रंथियाॅं होती हैं जो चारों  दिशाओं में 4, 4, 4, 4 की संख्या में होती हैं , इनके माध्यम से मित्र और शत्रु दोनों प्रकार के माइक्रोवाइटा  सक्रिय होते हैं।
आज्ञाचक्र में दो वृत्तियाॅं अपरा और परा होती हैं इनके ध्वन्यात्मक बीज  क्रमशः  क्ष और ह होते हैं। दोनों नेत्रों के बीच अर्थात् त्रिकुटी का क्षेत्र इस का प्रभावी क्षेत्र होता है । मानव शरीर के ऊपरी भाग और नाभि के नीचे का भाग चंद्रमा के परावर्तित प्रकाश  से प्रभावित होता हैं । आज्ञा चक्र का वायाॅं भाग नाभि से नीचे वाह्य प्रभावों से संबंधित होता है और उसका स्वर क्ष होता है। दायाॅं भाग शरीर के ऊपरी भाग से संबंधित वाह्य प्रभावों से संबद्ध होता है और उसका बीज  ह होता है। चंद्रमा का विशेष बीज  ‘‘था‘‘ है जो ह और क्ष को नियंत्रित करता है आज्ञाचक्र को नहीं।

मानव शरीर में असंख्य नाडि़याॅं और सैल होते हैं जिनका नियंत्रण चक्रों द्वारा होता है चक्रों में होने वाले कंपनों से ग्रंथियों में हारमोन्स का निस्सारण संतुलित होता है जिससे शरीर और मन संतुलित रहता है पर यदि किसी कारण से इनमें  असंतुलन हो जाता है तो अनेक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं । जैसे यदि इफेरेन्ट और अफेरेन्ट नाडि़यों में असंतुलन उत्पन्न हो जाये तो व्यक्ति की विभेदन क्षमता प्रभावित होती है और वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या करे। स्वप्न में भयभीत होने पर जाग्रत अवस्था  में भी डर बना रहता है। यदि योगासनों को नियमित रूप से सही ढंग से किया जाये तो मनुष्य निरोगी रहने के साथ साथ अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण रख सकता है क्योंकि आसनों से चक्रों पर या तो दबाव बढ़ता है या घटता है अतः हारमोन्स का संतुलन बनाये रखकर वे संबंधित वृत्तियों को कम या अधिक कर सकते है। जैसे किसी को भाषण देने में डर लगता है और वह मयूरासन नियमित रूप से करने लगे तो वह मनीपुर चक्र को प्रभावित कर हारमोन्स में संतुलन लाकर भय वृत्ति को कम कर देगी। हारमोन्स के अधिक स्राव होने पर वृत्तियाॅं बढ़ती हैं और कम होने पर घट जाती हैं। अनाहत चक्र हृदय को, लिंफेटिक ग्लेंड भौतिकता को और थायरायड तथा पैराथायरायड ग्लेंड मानसिक और बौद्धिक स्तर को प्रभावित करते हैं। गुरु चक्र पर ध्यान करने से शरीर और मन दोनों पर नियंत्रण हो जाता है। जब कोई महापुरुष आशीष देता है तो वह अपना हाथ सहस्त्रार चक्र पर रखता है जिसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है इससे उच्च वृत्तियाॅं बढ़ जाती हैं। यदि मौखिक ही बोलकर आशीर्वाद दिया जाता है तो भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। किसी महान व्यक्तित्व को साष्टाॅंग प्रणाम करने पर उसके द्वारा हाथ से स्पर्श  कर या बोलकर ध्वनि से ही आशीष दिया जाता है तो उसका धनात्मक प्रभाव पड़ता है। आप जिन्हें चाहते हैं उन्हें ही आशीष देंवे, यदि जिन्हें नहीं चाहते और उनके प्रणाम स्वीकार कर आशीष देते हैं तो उसके नकारात्मक संस्कार और कुवृत्तियाॅं आपके मन में आ सकते हैं । इसलिये आपको यह अधिकार नहीं है कि जिस चाहे को आशीष दे दो और जिस चाहे का प्रणाम स्वीकार कर लो। महिलाओं का क्रेनियम पुरुषों से थोड़ा छोटा होता है अतः उसमें नर्व सैल भी संख्या में कम होते हैं अतः यदि समान स्तर के महिला और पुरुष एक सी गति और सच्चाई से साधना करते हैं तो महिला के 99 प्रतिशत नर्व सैल प्रयुक्त होते हैं जब कि पुरुष के अपेक्षतया कम, पर महिलाओं में संतान के प्रति पुरुषों की अपेक्षा अधिक प्रेम होता है। किसी भी एक वृत्ति की अधिकता हानिकारक होती है अतः सब को चाहिये कि सभी वृत्तियों को परमपुरुष की ओर संम्प्रेषित करता जाये जिससे सभी कुछ संतुलन में बना रहेगा और समाज की अग्रगति होगी।

Sunday, 15 February 2015

6.6 ज्ञान संकाय

6.6 ज्ञान संकाय
याॅंत्रिक क्षेत्र में जानना या ज्ञान का क्रियात्मक पक्ष प्राप्त करना प्रकाश , ध्वनि या स्पर्श  तरंगों के परावर्तन या अपवर्तन के द्वारा ही संभव होता है परंतु मानसिक क्षेत्र में यह, वस्तुनिष्ठता का व्यक्तिकरण करने के परिणामस्वरूप प्राप्त होता है। ज्ञान शब्द  का उद्गम संस्कृत की क्रिया ‘ज्ञा‘ अर्थात जानना से हुआ। वैदिक संस्कृत में यह उतना प्रचलित नहीं था। रूस के मध्य क्षेत्र से आकर  आर्य जहाॅं तहाॅं यात्रा करते हुए भारत आये और उन्होंने अपने शब्द  भंडार को बढ़ाया। आर्य लोग ज्ञान के अर्थ में विद् क्रिया का उपयोग करते थे भारत में आने के बाद संस्कृत के प्रभाव से वैदिक भाषा में विद् और ज्ञा दोनो ही स्वीकृत हो गये। कोई भी भाषा प्ररंभ में कुछ ही शब्दों  में होती है पर जैसे जैसे समाज एक स्थान से दूसरे और तीसरे स्थान पर जाता है उसके अनुभवों के बढ़ने के साथ साथ शब्द  ज्ञान भी बढ़ता है। आर्यों के शब्द  भंडार में इसी प्रकार बहुत बृद्धि हुई।  आसपास का वातावरण भी ज्ञान बृद्धि में सहायक होता है। ‘ज्ञा‘ पुरानी लेटिन में ‘केनो‘ और अंग्रेजी में ‘नो‘ हो गया यद्यपि उच्चारण में ‘के‘ छोड़ दिया जाता है पर लिखने में नहीं। भाषायें इसी प्रकार एक दूसरे के संपर्क में आने से समृद्ध होती हैं। जिन्होंने शिव से राजयोग और तंत्र की शिक्षा ली उन्होंने भौतिक और मानसिक दोनों पक्षों का उपयोग ज्ञानवर्धन में किया इस लिये शैव व ज्ञानमार्गी कहलाये। और अशैव प्रपत्तिमार्गी अथवा भक्तिमार्गी कहलाये ।इन दोनों में क्या अंतर है यह जानना आवश्यक है। ज्ञानमार्गी किसी को जानने के पहले प्रथम प्रश्न  करते हैं यह क्या है? इसका श्रोत क्या है? आदि। इस प्रकार प्रश्न  करते करते जब उनका मन एक विंदु पर आकर रुक जाता है और किसी भी प्रकार का विश्लेषण नहीं कर पाता उसे परम विंदु कहते हैं और इसी प्रकार अधिकाधिक ज्ञानार्जन करते जाते हैं। यह ज्ञान ही मनुष्यों को पशुओ से पृथक करता है। ज्ञान का स्थायी प्रयास उन्नत चेतना और अन्तर्वोध को प्रदान करता है । यही कारण है कि साधना के इस क्षेत्र में अंधानुकरण और रूढि़वाद का कोई स्थान नहीं होता। दूसरी ओर प्रपत्तिवादी प्रारंभ से ही यह कहने लगते हैं कि जो कुछ भी हो रहा है सब उस परमपुरुष की इच्छा से हो रहा है घास की पत्ती भी उसकी इच्छा के बिना नहीं हिलती। इसे गलत सिद्ध करते हुए ज्ञानमार्गी तर्क देते हैं कि यह बिलकुल सत्य है कि परमपुरुष की इच्छा के बिना घास की पत्ती भी नहीं हिल सकती परंतु यह जानने का प्रयास करने में क्या हानि है कि परमपुरुष की इच्छा, किस प्रकार सब कुछ कार्य करती है। यही इन दोनों पद्धतियों में अंतर है।
अब प्रश्न  यह है कि क्या सामान्य ज्ञान पदार्थों तक ही सीमित है या मानसिक स्तर तक या आधा पदार्थ और आधा मानसिक स्तर तक? यदि आधा मानसिक और आधा पदार्थिक स्तर तक है तो क्या कोई असाधारण ज्ञान भी है जो पदार्थिक स्तर पर बिलकुल संबद्ध न हो पर मानसिक स्तर पर विशिष्ट स्तर पर संबंधित हो? वास्तव में वह विधि जिससे कोई अपने आपको भौतिक घटकों से पृथक करता है, निर्धारण करती है कि ज्ञान पाने की क्रिया किस प्रकार हो रही है। ‘‘ यच्छेद वाॅममनसि प्रज्ञस्तद यच्छेदज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महतीनियच्छेद तदयच्छेच्छान्तात्मनि ‘‘। अर्थात् विचारित वस्तु को इंद्रियों में , इंद्रियों को कर्ता मैं में, कर्ता मैं को आस्तित्विक या ज्ञाता मैं में, आस्तित्विक मैं को इकाई चेतना में और इकाई चेतना को परम चेतना में मिलाना चाहिये । बाह्य संसार से आने वाले किसी भी प्रकार के कंपन चाहे वे प्रकाश , घ्वनि, स्पर्श  आदि के हों सबसे पहले संबंधित इंद्रिय द्वारा ग्रहण किये जाते है, जैसे इमली, बेर और नीबू खाने पर सभी के खट्टे होने का पृथक पृथक अनुभव होता है क्योंकि जीभ के भिन्न भिन्न हिस्सों पर उनके स्पंदन ग्रहण होकर मन को मस्तिष्क के तन्तुओं द्वारा सबके अलग अलग स्वाद की अनुभूति कराते है। बस्तु से मस्तिष्क तक कंपनों के जाने की क्रिया सूक्ष्म होती है पर वह भौतिक क्षेत्र में ही होती है, यह तीन प्रकार के कंपन मन को अलग अलग अनुभव होने से ही तीनों के स्वादों में अंतर समझ में आता है यह मन का क्षेत्र कहलाता है। मस्तिष्क में इन कम्पनों की छाप बनी रहती है जो कभी बाद में इसी प्रकार की वस्तु के स्वाद से कंपित होने पर ज्ञान करा देती है कि यह नीबू या बेर या इमली है, इसे स्मृति कहते हैं। इसी प्रकार अन्य स्वादों के संबंध में होता है। मानव मन में दो विपरीत प्रकार की प्रवृत्तियाॅं पाई जाती हैं एक संग्रह करने की और दूसरी त्याग करने की। जब कोई उन्नति के पथ पर बढ़ने लगता है तो त्याग करने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। ध्वनि के द्वारा भी ज्ञान ग्रहण किया जाता है, ध्वनि तरंगें कान के परदे पर कंपन उत्पन्न कर श्रवण तन्त्रिकाओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचते हैं जो विश्लेषण कर मन को सूचना देता है। कंपनों की मस्तिष्क तक की यात्रा भौतिक और मस्तिष्क से मन तक की यात्रा मानसिक क्षेत्र में आती है। एक बार सुनी हुई ध्वनि या राग मस्तिष्क में अपनी छाप लगा देती है जो बाद में उसी प्रकार के कंपन अनुभव होने पर बता देती है कि यह किसकी घ्वनि है। किसी संगीत सभा में किसी संगीत ध्वनि को सुनकर कुछ लोगों को पैर हिलाते सब ने देखा है यह उस ध्वनि के प्रति उनकी पूर्व स्मृति को प्रकट करता हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान प्रक्रिया का अधिकाॅंश  भाग भौतिक और थोड़ा सा भाग मानसिक होता है। मन के दो कार्य होते हैं सोचना और याद करना। पुराने अनुभवों पर आधारित निष्कर्षों को स्मृति कहतेे हैं , जब यह अच्छी तरह स्थापित होकर त्वरित और सफलता दायक हो जाती है तो इसे ध्रुवास्मृति कहते हैं। आध्यात्मिक समाधि का अनुभव करने में ध्रुवास्मृति अनिवार्य आवश्यकता मानी जाती है।
जब कोई जानने की क्रिया मन के भीतर होती है तो मन का कुछ भाग व्यक्तिगत या ‘‘सब्जेक्टिव‘‘और दूसरा बस्तुगत या ‘‘आब्जेक्टिव ‘‘ भूमिका निभाता है। मन का वस्तुगत भाग एक्टोप्लाज्मिक स्टफ से और व्यक्तिगत भाग स्वयं को जानने से संबद्ध होता है। जैसे किसी हाथी की मन में कल्पना करने पर मन का अधिकाॅंश  भाग मानसिक हाथी के रूप में बदल जाता है जागते हुए यह अनुभव होता है कि कि मैं हाथी को देख रहा हॅूं पर इस का आभास बिल्कुल नहीं होता कि मन का अधिकाॅंश  भाग हाथी में बदल चुका है। स्वप्न में देखा गया हाथी सत्य प्रतीत होता है क्योंकि वहाॅं वास्तविक संसार नहीं रहता। स्वभावतः स्वप्न में व्यक्ति अपनी जाग्रत अवस्था के अनुभूत तथ्यों के ही जाल बुनलेता है और उन्हें सत्य समझता है। परंतु चाहे स्वप्न हो या जागरण मन के संतुलन में विघ्न आने पर सब कुछ छिन्न भिन्न हो जाता है। शरीर की तुलना में मन की गति अधिक तेज होने के कारण मन से किसी कार्य करने का स्वप्न देखना कम समय में ही संभव हो जाता है। जब कल्पना का विषय निर्पेक्ष रूप से वास्तविक दिखाई देने लगता है तो व्यक्तित्व भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। जैसे भूत से प्रभावित व्यक्ति सोचता है कि वह भूत है या कोई देवता है, ऐंसी स्थिति में उनके मन पर बहुत जोर की चोट करना होती है और उनका मानसिक भूत दूर हो जाता है। कभी कभी किसी बाहरी वस्तु का गहरा चिंतन, मन के वस्तुगत भाग में स्थान बना लेता है और व्यक्ति का एक्टोप्लाज्मिक स्टफ इतना केन्द्रित हो जाता है कि उसका विभिन्न प्रकार से उपयोग या दुरुपयोग किया जा सकता है। कुछ लोग दुरुपयोग करते हुए अपने शत्रुओं के घर हड्डियाॅं , ईंट पत्थर आदि फेकने लगते हैं और लोग समझते हैं कि यह भूत कर रहा है। पर यदि सतर्कता से देखा जावे तो यह व्यक्ति वहीं कहीं आसपास अपनी द्रढ़ आसन जमाये बैठा यह सब करता रहता है। यदि उसे जोर से हिला कर मन में असंतुलन पैदा कर दिया जावे तो सभी रहस्य पता चल जाता है। इसे राक्षसी विद्या कहते हैं। एक कहानी में बताया गया है कि रावण के दरवार में इंद्रजीत और अठारह मंत्री बैठे थे, उन्हें पता चला कि अंगद रावण से मिलने आ रहा है। मंत्रियों ने अंगद को परेशान करने के उद्देश्य से  अपने अपने एक्टोप्लाज्मिक स्टफ से रावण का रूप बना लिया, इंद्रजीत को यह जानकारी नहीं थी अतः वह अपने रूप में ही रहा। अंगद बहुत परेशान हुए पर राक्षसी विद्या का तोड़ जानते थे अतः बोले क्यों इंद्रजीत तुम्हारे क्या 19 पिता हैं? यह सुन कर सभी मंत्रियों का मानसिक संतुलन बिगड़ गया और अपने मूल रूप में आगये। वस्तुगत या आब्जेक्टिव मन के संबंध में और भी बहुत तथ्य जान लेना चहिये। अनेक मनोरोग भी इसी से उत्पन्न होते हैं। ध्यान रहे मस्तिष्क की बीमारी और मानसिक बीमारी में बहुत अंतर है। मस्तिष्क के किसी भाग में अव्यवस्था होने पर या समतुल्य दोष होने या वंशानुगत ये रोग हो सकते हैं पर मनोरोग आब्जेक्टिवेटेड मन में अव्यवस्था होने पर होते हैं। इस असंतुलन के कारण इस प्रकार के मनुष्य बार बार अपने मन में भय या कमजोरी के कारण एक जैसा प्रतिबिंब बना लेते हैं इसे फोबिया कहते हैं। कंस ने मृत्यु के एक सप्ताह पहले से अपने वस्तुगत मन में कृष्ण का प्रतिबिंब बना लिया था और सोचने लगा था कि कृष्ण मुझे मार डालेगा और वह हर जगह कृष्ण को देखने लगा था अतः उसका आव्जेक्टिवेटेड मन सब्जेक्टिवेटेड मन से प्रबल हो गया और उसकी मानसिक मृत्यु पहले ही हो गयी। हाइड्रोफोबिया भी इसी प्रकार की बीमारी है कुत्ते के काटे जाने पर रेबीज के कारण भयग्रस्त वस्तुगतमन उस कुत्ते को हर जगह देखता है। अतः इन समस्याओं से बचने के लिये वस्तुगत मन पर नियंत्रण रखना आवश्यक हैं। बहुधा देखा जाता है कि मानसिक कमजोरी के कारण कुछ प्रतिबिंब बार बार मन में दिखाई देते हैं इसे ‘‘मीनिया‘‘ कहते हैं, जैसे स्पर्श  मीनिया में कुछलोग नीची जाति के लोगों को छूते नहीं हैं अन्यथा अशुद्ध हो जाना मानते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग स्वस्थ होते हुए भी अपने को कुछ न कुछ बीमारी होने का अनुभव करते रहते हैं, कुछलोग अवसाद से घिर
 जाते हैं, कुछ लोग सुपीरियरटी और इनफीरियरटी काॅंप्लेक्स से ग्रस्त हो जाते हैं। अतः अधिकाॅंश  मानसिक बीमारियाॅं वस्तुगत मन पर उचित नियंत्रण न होने से हो जातीं हैं। अतः जो नियमित रूपसे ईश्वर  प्रणिधान और ध्यान करते हैं उनका मन संतुलित बना रहता है और वे मानसिक बीमारियों से कोसों दूर रहते है।
व्यक्तिगत मन और वस्तुगत मन से बहुत सी वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है जो बाहरी संसार से संबंधित नहीं होती। वे भीतरी मन की सीमा तक ही सीमित रहती हैं और मानसिक वस्तुओं की तरह रहती हैं और बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के वस्तुगत हो सकती हैं। पिछले अनुभव को पुनः प्रकट करना स्मृति कहलाता है। जैसे किसी राग को सुना और जानकार ने बताया कि यह अमुक राग है अब फिर कभी वही घ्वनि सुनने पर याद आ जाता है कि यह वह राग है जो उस स्थान पर सुना था। इसी प्रकार देखकर सुन कर सूंघकर या स्वाद लेकर जो भी कम्पन इंद्रियों के द्वारा मन को भेजे जाते हैं मन का आव्जेकिटवेटेड भाग उन्हें अपने में अंकित करता है और सव्जेक्टिवेटेड भाग उसका साक्ष्य देता है। मानसिक रचनायें वे हैं जिनमें सब्जेक्टिवेटेड मन के आमंत्रण पर आब्जेक्टिवेटेड मन उन्हें अपने में अंकित कर रोक लेता है। जैसे किसी गीत या कविता को सुनने पर उसका भाव और लय ग्रहण कर लिया जाता है और वह याद बनी रहती है। पढ़ते समय भी शब्दों के अर्थो को समझते जाने पर उनका चित्राॅंकन आब्जेक्टिव मन में हो जाता है यदि जोर से बोलकर पढ़ा जाये तो याद रखने में सरलता होती है क्योंकि आॅंखें  और कान दोनों के माध्यम से तरंगे मन के पास पहुंचने लगती हैं। लय छंद और अलंकार की सहायता से याद रखने में सरलता होती है इसी लिये वेदों की सभी ऋचाऐं लयबद्ध और अलंकारिक हैं ।
जानने के लिये तीसरा घटक व्यक्तिगत मन और दूसरा घटक वस्तुगत मन तथा पहला और तात्विक घटक वह परम सत्ता है जिसकी उपस्थिति हर कार्य में अपरिहार्य रहती है। यह उसी प्रकार है जैसे रासायनिक क्रियाओं में  उत्प्रेरक। यह उत्प्रेरक  क्रिया में भाग नहीं लेता पर उसकी उपस्थिति के बिना क्रिया नहीं हो सकती। इस तरह व्यक्तिगत मन तथ्यात्मक मन का साक्ष्यी भाग होता है  जो भीतरी मानसिक  और बाहरी भौतिक संसार दोनों से तथ्यों को ले सकता है। वह तथ्य को उसी के भीतर निर्मित कर सकता है और स्वयं को तथ्य में परिवर्तित भी कर सकता है। जैसे, पहला, बाहर हाथी को देखा, आब्जेक्टिव मन ने उसका रूप लिया और सब्जेक्टिव मन ने साक्ष्य दिया। दूसरा, मन पहले कभी देखे गये हाथी की कल्पना कर उसे आकार दे सकता है और तर्क वितर्क कर उसके छोटे बड़े या अन्य किसी प्रकार की कमी को बता कर पूर्व में देखे गये हाथी के समान काल्पनिक हाथी का निर्माण कर सकता है। तीसरा, ‘‘उस दिन रामबाबू ने मुझे बहुत खरी खोटी सुनाई , मैं चुप रहा और सहता रहा पर अब यदि भविष्य में यह हुआ तो मैं चूकॅंगा नही,‘‘ इस सोचने में सोचने वाला वही बन जाता है जो वह आभास पाता है।  इस प्रकार प्रश्न  उठता है कि क्या इकाई सब्जेक्टिव मन कभी जान पाता है या सोचता है कि परम सत्ता क्या है? जैसे किसी बड़े आयोजन में विभिन्न लोग अपनी अपनी ड्युटी करते हैं परंतु आयोजनकर्ता को याद करते रहते हैं क्योंकि यदि ठीक तरह काम नहीं किया तो कहीं वह नाराज न हो जाये । बिना कुछ काम किये आयोजनकर्ता की व्यर्थ प्रशंसा करने पर भी वह प्रसन्न नहीं हो सकता उलटे डाॅंट पड़ सकती है। इसे मनोवैज्ञानिक तरीके से समझने पर  हम देखते हैं कि सब्जेक्टिव मन, आब्जेक्टिव मन का सब्जेक्टिव भाग है अर्थात् आब्जेक्टिव मन  ‘‘ज्ञात‘‘ और और सब्जेक्टिव मन ‘‘ज्ञाता‘‘ है। इसी प्रकार इकाई सत्ता और परम सत्ता के बीच संबंध के अनुसार भी इकाई सत्ता ‘‘ज्ञात‘‘ और परम सत्ता ‘‘ज्ञाता‘‘ है। साॅंप, मेंढक को देखता है साॅंप सब्जेक्ट और मेंढक आब्जेक्ट। मेंढक , मच्छर को देखता है मेंढक सब्जेक्ट और मच्छर आब्जेक्ट। पर साॅंप अपने आपमें यह भूला रहता है कि उसे मोर देख रहा है, मोर भूल जाता है कि उसे बहेलिया देख रहा है। इस प्रकार कोई भी अपने सब्जेक्ट को नहीं देखता है। यदि सब अपने अपने सब्जेक्ट को देखना  प्रारंभ कर दें तो सब कुछ ब्यवस्थित हो जाये। स्पष्ट है कि सब कुछ उस परम सत्ता के मन में घटित हो रहा है और आब्जेक्टिव भाग भी उसी के भीतर है, यथार्थतः संसार के सब आब्जेक्टिव एक साथ परम सत्ता के आब्जेक्ट हैं। यदि कोई परीक्षा देने के लिये तैयारी करे और पढ़ते समय आधा मन इधर उधर की बातें सोचे और आधे मन से याद करे तो उसे कुछ भी याद नहीं होगा । याद करने के लिये आॅंखों से शब्दों  को सही सही देखना , जीभ से उन्हें जोर से उच्चारित करना और कानों से उन्हें सुनने पर सरलता से याद किया जा सकता है और बाहरी विचार भी मन में नहीं आ सकते क्यों कि आॅंखे, जीभ और कान सब मिलकर याद करने के काम में लग जाते हैं।  याद रखने के लिये विशुद्ध मनोवैज्ञानिक विधि यह है कि याद की जाने वाली सामग्री को लयबद्ध बनाया जाये क्यों कि लय आब्जेक्टिव मन पर स्थायी अंकन करता हैं और दूसरी विधि है मनोआत्मिक पद्धति, इसमें बुद्धि व्यापक होकर स्मृति को बढ़ा देती है। इसके द्वारा स्थायी स्मृति लाने का अच्छा उपाय यह है कि उसका चिंतन/ ध्यान किया जाये जिसे आप जानते हों या सुना हो कि उसकी स्मरण शक्ति अतुलनीय और फोटोग्राफिक है। यह तो परम सत्ता की शक्ति ही हो सकती है, पर उसे कैसे जान सकते हैं? इसके लिये यह सोचना पर्याप्त है कि वह परम सत्ता मेरे द्वारा किए जाने वाले हर काम को देख रही है, इस प्रकार हम उसे याद करने के साथ साथ चिंतन भी कर रहे होंगे अतः यह बिचार आब्जेक्टिवेटेड हो जायेगा। परम सत्ता आब्जेक्टिवेट नहीं होती पर उसका विचार आब्जेक्टिवेट हो जाता है। अतः सर्वोत्तम तरीका यही है कि परमपुरुष का हमेशा  , हर काम में चाहे छोटा हो या बड़ा सोते, जागते, स्वप्न और यथार्थ सब में चिंतन करते हुये सचेत रहा जाये कि वह लगातार स्थायी रूपसे देख रहे हैं। इस प्रकार जब परम सत्ता का चिंतन करते करते वह स्थिर और स्थायी हो जायेगा तो एक दिन उस परम सत्ता के साथ एकीकरण भी हो जायेगा जो कि ज्ञान प्राप्त करने का अंतिम स्तर है।

6.5 मन की आन्तरिक और बाह्य पहुंच

6.5 मन की आन्तरिक और बाह्य पहुंच
 बाह्य वस्तुओं से टकराकर आने वाली प्रकाश  किरणें जब हमारी आॅंख में से प्रकाश  नाड़ी के माध्यम से मस्तिष्क के तंतुओं पहुचती हैं तब हम उस वस्तु को देख पाते हैं क्योंकि देखी गयी वस्तु का प्रतिविंब वहाॅं बन जाता है। मन में वाह्य प्रभावों से आकार का निर्मित होना वाह्यान्तरिक पहुंच कहलाती है। अब यदि किसी हाथी का आकार आपने अपने मन में भीतर ही भीतर बनाया और अपने एक्टोप्लाज्मिक सैलों के प्रबल प्रभाव से हाथी के सहानुभूतिक कंपनों को बाहर प्रक्षेपित कर दिया तो वह प्रक्षेप आपके साथ साथ वहाॅं उपस्थित अन्य लोग भी देखेंगे। मनोविज्ञान में इसे धनात्मक मतिभ्रम कहते हैं। इसी प्रकार यदि वाह्य दिखाई दे रहे हाथी पर आपने अपनी एक्टोप्लाज्मिक शक्ति से उससे परावर्तित होने वाली प्रकाश  किरणों को अपनी ओर खींच लिया, तो हाथी के वहाॅं रहते हुए भी अन्य लोग उसे नहीं देख पायेंगे, इसे ऋ़णात्मक मतिभ्रम कहते हैं। इसतरह धनात्मक मतिभ्रम में बस्तु न होते हुए भी दिखती है जबकि ऋणात्मक मतिभ्रम में बस्तु होते हुए भी नहीं दिखती। यह मन की आन्तर्वाह्य पहुंच कहलाती है। स्पष्ट है कि एक्टोप्लाज्मिक तरंगों की तीव्र शक्ति से डाला गया दबाव धनात्मक अथवा ऋणात्मक मतिभ्रम पैदा करता है। परमपुरुष कौन हैं? वह जो अपने एक्टोप्लाज्मिक बल से सब कुछ निर्मित कर रहे हैं। अतः सब कुछ उनके मन के भीतर ही हो रहा है बाहर कुछ नहीं है अतः उनके लिये वाह्यान्तरिक अथवा आन्तर्वाह्य किसी भी प्रकार के प्रक्षेप की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि वह जो अपने मन में सोचते हैं वह दूसरों को वास्तव में घटित प्रतीत होता है। प्रषान्त महासागर हमें बाहर दिखाई देता है पर वह परमपुरुष के मन में ही है, मन से निर्मित कर वे उसे मन से ही देखते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि मन से देखने के लिये आॅंखों की आवश्यकता नहीं होती। उनके लिये वाह्य कुछ नहीं सब कुछ आन्तरिक है। इस लिये उन्हें पाने के लिये मन से ही जुड़ने का अभ्यास करना होगा। उनकी दो कमियाॅं हैं, एक तो वे दूसरा परमपुरुष नहीं बना सकते  और दूसरा वे किसी से घृणा नहीं कर सकते। जब समस्त ब्रह्माॅंड उनके मन के भीतर ही है तो अन्य किसी चीज की उन्हें क्या आवश्यकता? पर भक्त गण उपाय ढूॅंड ही लेते हैं, वे कहते हैं ए परमपुरुष! तुम्हारे बड़े बड़े भक्तों ने तुम्हारा मन छीन लिया है, तुम मन हीन हो गये हो, मैं तो मामूली भक्त हूँ  पर मेरे पास मन है , मैं तुम्हें प्रेम करता हॅूं इसलिये मेरा मन तुम ले लो, तुम्हारे पास किसी चीज की कमी क्यों रहे?

Friday, 13 February 2015

6.4 स्वप्न, दूरबोध और अतीन्द्रिय बोध

6.4 स्वप्न, दूरबोध और अतीन्द्रिय बोध
 जब इंद्रियों के द्वारा प्राप्त कोई स्पंदन चाहे वह भौतिक विचारों या इंद्रियों की तृप्ति के लिये हो , चेतन मन में प्रवेश  कर जाते हैं तो यह क्रूड मन बेचैन और अस्थिर हो जाता है। नाडी़ तन्तुओं में इस स्पंदन का बना रहना उस अस्थिरता की तीब्रता पर निर्भर करता है। कभी कभी ये अन्य सहायक प्रभावों और अस्थिरता के कारणों से क्षीण भी हो जाया करते हैं। सोयी अवस्था में यदि किसी व्यक्ति के नाड़ी तन्तु बिना किसी वाह्य कारण के कंपित हो जाते हैं तो उसके मानसिक पटल पर वही कंपन विचार उत्पन्न कर जड़ तन्तुओं को सक्रिय कर देते हैं और पूर्व में आने वाले विचार काल्पनिक न लगकर वास्तविक प्रतीत होते हैं इन्हें स्वप्न कहते हैं। ये विचार स्थिर नहीं होते और बदलते रहते हैं और किसी बीमारी के कारण , अधिक भोजन करने के कारण उत्पन्न गैस के कारण आते हैं । जिनके विचार और भोजन सात्विक होते है उन्हें ये स्वप्न कभी नहीं आते। प्रगाढ़ निद्रा में आये स्वप्न में किसी दुर्घटना या अच्छी बुरी खबर की सूचना मिल सकती है यह तब होता है जब सर्वज्ञाता कारण या अचेतन मन से निकले स्पंदन शांत  अवस्था के क्रूड या चेतन और सूक्ष्म या अवचेतन मन में प्रवेश  कर जाते हैं । अचेतन मन के शीर्ष से निकले ये स्पंदन अवचेतन मन या सूक्ष्म मन को स्पंदित कर वर्तमान भूत और भविष्य में होने वाली घटनाओं की पूर्व सूचना दे सकते हैं ये भी स्वप्न  ही होते हैं इसे परामानसिक बोध कहते हैं। कभी कभी जाग्रत अवस्था में भी अचेतन मन से निकले स्पंदन व्यक्ति के अवचेतन में प्रवेश कर जाते हैं तो थोड़े से अभ्यास करने पर इन कंपनों में निहित सूचनायें पाकर अपने निकटतम संबंधियोें के बारे में जान सकते हैं इसे दूरबोध कहते हैं। इस दूरबोध को एकाग्रता से नियंत्रित कर लेने पर जब चेतनमन या क्रूड मन शान्त  और गंभीर हो तब दूरस्थ किसी निकटतम संबंधी को अपनी आॅंखों के सामने फिल्म की तरह देखा जा सकता है, इसे अतीन्द्रिय बोध कहते हैं। वास्तव में यह सब अचेतन या कारण मन की ही योग्यतायें होती हैं जो सर्वज्ञाता होता है। परामानसिक बोध की तुलना में दूरबोध विरला ही होता है और इससे भी विरला होता है अतीन्द्रियबोध। किसी महापुरुष के जीवन में अतीन्द्रियबोध आठ या दस बार से अधिक नहीं होता वह भी उसके अन्तर्बोधात्मक अभ्यास और संस्कारों पर निर्भर करता है। इस प्रकार के बोध में द्रष्टा या अनुभव करने वाले व्यक्ति के संस्कारों के कारण बिलकुल स्पष्ट जानकारी मिल पाना भी संभव नहीं होता। कुछ लोग भविष्य की जानकारी देने के लिये दर्पण, प्लेनचिट या अंगुली के नाखून पर पालिश  का प्रयोग करते हैं। यह भी चेतन मन और अवचेतन मन का अल्पकाल के लिये अचेतन मन में अवशोषित हो जाने के कारण होता हैं और द्रष्टा का ज्ञान कुछ अधिक हो जाता है और अपने संस्कारों के आधीन वह बताने लगता है।

6.3 साधारण और असाधारण स्मृति

6.3 साधारण और असाधारण स्मृति
मन के द्वारा पूर्व से अनुभव में लाई गई वस्तुओं की प्रतिक्रिया को स्मृति कहते हैं।स्मृति को भीतरी और बाहरी दो प्रकार की विधियों से सक्रिय किया जा सकता है। भीतरी विधि में, नर्व सैलों के द्वारा प्रारंभिक स्तर पर संचित किये गये कंपन अलग अलग सैलों जैसे, ज्ञान के अलग और कर्म के अलग, व्याप्त रहते हैं अतः तन्मात्राओं द्वारा मन में लाये गये विचारों को मस्तिष्क में उत्पन्न होने में कोई कठिनाई नहीं होती। जैसे पहले किसी गाय को देखा हो और फिर उसके बारे में पूछे जाने पर थोड़े से प्रयास से ही याद आ जाता है कि गाय इस प्रकार की थी पर अधिक दिन बीतने के बाद मस्तिष्क पर अधिक जोर लगाने पर भी वह पूर्व की तरह वर्णन नहीं कर सकेगा क्यों कि मस्तिष्क के सैलों में संचित गाय के चित्र धूसर हो चुकते हैं। स्मृति के तरो ताजा बने रहने के लिये वाह्य घटकों को अपरिवर्तित बने रहना भी सहायक होता है। जैसे जिस स्थान पर गाय को देखा था यदि वहाॅं वह व्यक्ति जाये तो उसे याद आ जायेगा कि इस स्थान पर गाय को देखा था, पर बहुत उिनों बाद यदि बाहरी घटक नष्ट हो जाये तो मस्तिष्क को घटना की याद करने में कठिनाई जाती है। इस अवस्था में घटना के स्मरण करने के लिये इकाई मन के चित्त में प्रवेश  करना होता है और एक बार स्मरण में आ गया तो फिर कुछ समय तक याद बना रहता है। इसलिये मस्तिष्क और कुछ नहीं मानसिक स्मरण करने की साॅंसारिक मशीन है। उसके विभिन्न अवयव उसे याद करने में सहायता करते हैं पर स्मृति का स्थायी आवास चित्त में होता है। जब मस्तिष्क के तंतु याद करने में सहायता करके स्मरण कराते हैं तो इसे साधारण स्मृति कहते हैं।   मानव मन के तीन स्तर होते हैं क्रूड, सूक्ष्म और कारण तथा मानव अस्तित्व के भी तीन स्तर होते हैं जाग्रत, स्वप्न और सुसुप्ति। जाग्रत अवस्था में क्रूड मन और सुसुप्ति अवस्था में कारण मन सक्रिय होते हैं। कारण मन में अनन्त ज्ञान और स्मृतयों का भंडार होता है। जाग्रत अवस्था के सभी प्रकार के संस्कार कारण मन में संचिंत होते जाते हैं। कारण मन के सो जाने को मृत्यु कहते हैं। मरने के बाद शरीरहीन मन अपने संस्कारों को लादे अपार अन्तरिक्ष में भटकता है ताकि उसे फिर से अपने उन संस्कारों का भोग करने के लिये उचित शरीर  मिले। प्रकृति की राजसिक शक्ति से उसे अनुकूल परिस्थितियों वाला शरीर उपलब्ध करा देने पर पुराने जीवन की स्मृति पाॅंच वर्ष की आयु तक बनी रहती है । भले ही उसे नया शरीर मिल गया होता है पर वह मानसिक रूप से पूर्व जन्म के सुख और दुखों में ही उलझा रहता है। यही कारण है कि बच्चे सोते सोते कभी रोने लगते हें और कभी अचानक ही हॅंसने लगते हैं। पूर्व जन्म की स्मृतियों के लिये पुराने मस्तिष्क की आवश्यकता  नहीं होती और नये मन और मस्तिष्क में निकट संबंध बन नहीं पाता है अतः इस प्रकार की समृतियों का स्मरण में आना असाधारण स्मृति कहलाता है। क्रूड मन के अनुभव सूक्ष्म मन में परावर्तित नहीं हो पाते। बच्चों के मामले में तो क्रूड मन के अनुभव थोड़े से होते हैं और सूक्ष्म मन बिलकुल शांत  होता है अतः कारण मन से तरंगे उसके सूक्ष्म मन में सरलता से आ जाती है, अतः पिछले जन्म की स्मृतियाॅं बच्चों के मन में सरलता से आ जाती हैं। चूॅंकि बच्चों का क्रूड मन पर्याप्त प्रबल नहीं हो पाता है अतः वे अपने स्वप्नों को जाग्रत अवस्था में नहीं बता पाते हैं। यह असाधारण स्मृति 5वर्ष की आयु के बाद घटने लगती है, जैसे जैसे बच्चे की आयु बढ़ती जाती है वह नये वातावरण के संपर्क में आकर नये प्रश्न  पूछता और अपने अनुभवों को बढ़ाने लगता है  और भौतिक जगत के संबंध में जानकारी को संग्रह करने लगता हेै, और क्रूड मन के अनुभव स्वप्न अवस्था में परावर्तित होने लगते हैं । इस कारण मन के कंपन और तरंगे क्रूड मन की सतह तक नहीं आ पाती हैं जिससे आयु बढ़ने के साथ पिछले जन्म की स्मृतियाॅं वह भूलता जाता है। कुछ बच्चों के मन पर वाहरी वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ पाने से वे 5 वर्ष की आयु से अधिक तक भी पिछले जन्म की स्मृतियाॅं बनाये रखते हैं पर यह 12 वर्ष की आयु तक ही रह पाता है । यदि वह इससे अधिक पिछले जन्म की स्मृतियाॅं बनाये रखता है तो उसे दो मनों को एक शरीर में रखपाना और उनके साथ संतुलन बनाये रखपाना कठिन होजाता है अतः इस अवस्था में उसकी मृत्यु हो जाती है। इसलिये भूलना ईश्वरीय विधान ही है। यदि भूलना एक वरदान न होता तो, मनुष्य जबकि एक जन्म के बोझ में ही इतना दबा रहता है अनेक जन्मों का बोझ एक साथ  इस जीवन में  कैसे उठाता? मनुष्य का इतिहास,  आशायें , शोक निराशायें सब कुछ सूक्ष्म मन में संचित रहता हैक्रूड और सूक्ष्म मन के बेचैन बने रहने के कारण कारण मन अपना दावा नहीं करता, पर पिछले सभी जन्मों का पूरा पूरा लेखा क्रमागत रूपसे कारण मन में संचित होता जाता है। इस  प्रकार प्रत्येक संचित सतह प्रत्येक जीवन की होती है और चित्रमाला की तरह बनी रहती है जब तक कि वे सब संस्कार भोगकर समाप्त नहीं हो जाते हैं। साधना के द्वारा जब क्रूड मन को सूक्ष्म मन में और सूक्ष्म मन को कारण मन में निलंबित करने का अभ्यास हो जाता है तो साधक अपने पिछले जन्मों का क्रमशः  द्रश्य  देख सकता है बिलकुल सिनेमा की तरह। दूसरों के पिछले जन्म को देख पाना स्वयं के पिछले जन्मों को देख पाने से सरल होता है, पर क्या यह करना उचित होगा? नहीं । यह भी ईश्वरीय विधान है, पिछले जन्म को जानने पर आगे बढ़ने के लिये मिल रहे अवसरों का लाभ नहीं मिल पाता और अवसाद में ही जीवन निकल जाता है।
पिछले जन्मों की स्पष्ट स्मृति केवल तीन प्रकार की स्थितयों में ही हो सकती है, 1, उनमें जिनका व्यक्तित्व अच्छी तरह उन्नत हो, 2, जो स्वेछा से पूर्ण सचेत होकर मरे हों, 3, जो दुर्घटना में मरे हों। इस स्थिति में भी 12 या 13 वर्ष की आयु तक ही यह स्मरण रह पाता है अन्यथा उस व्यक्ति को दुहरा व्यक्तित्व जीना पड़ता है जो पुनः मृत्यु का कारण बनता है। जो 12/13 वर्ष  तक पिछले जन्म की घटनाओं को याद रख पाते हैं वे संस्कृत में यतिस्मर कहलाते हैं। यदि कोई अपने मन को केन्द्रित कर एक विंदु में रूपान्तरित कर दे तो उसे अपने पिछले जन्म का सब कुछ याद आ सकता है यदि उसके पिछले संस्कार अपूर्ण रहे हैं। पर इस प्रकार का परिश्रम करने का कोई उपयोग नहीं बल्कि उस पराक्रम को परमपुरुष को अनुभव करने में ही लगाना चाहिये उसे जान लेने पर सब कुछ ज्ञात और प्राप्त हो जाता है, पिछले इतिहास को जान लेने से क्या मिलेगा?

6.2 मानव शरीर और योग मनोविज्ञानः

6.2 मानव शरीर और योग मनोविज्ञानः
प्रत्येक मनुष्य का भौतिक शरीर असंख्य सैलों से मिलकर बना है जो दो प्रकार के होते हैं, प्रोटोजोइक और मेटाजोइक । दूसरे शब्दों में पूरी मानव संरचना को एक मेटाजोइक सैल कह सकते हैं। प्रत्येक सैल का स्वयं का मन और आत्मा होती है पर सैलों का मन मानव मन से भिन्न होता है। मेटाजोइक मन, प्रोटोजोइक मन से अधिक उन्नत होता है। मानव मन इन्हीं सैलों से बनता है पर उनके मन से अधिक उन्नत होता है। मानव मन इकाई लघु ब्रह्माण्ड  और प्रोटोजोइक तथा मेटाजोइक सैलों का समूह है जो कि व्यक्तिगत होता है। जिस प्रकार  ब्रहत्ब्रह्माॅंडीय मन, इस ब्रह्माॅंड की प्रत्येक सत्ता से अविभाज्य रूपसे जुड़ा होता है उसी प्रकार इकाई मन भी अपने संयोजी सैलों के साथ अविभाज्य रूपसे जुड़ा रहता है। इस तरह इकाई मन और सभी प्रकार के सैलों में एक सहसंबंध रहता है। सामान्यतः एक सैल 21 दिन तक जीवित रहता है उसके बाद उसके स्थान पर नया सैल जन्म ले लेता है। जब कोई अपने शरीर के किसी भाग को हाथ से रगड़ता है तो उस स्थान के कुछ सैल नष्ट हो जाते हैं पर शरीर ज्यों का त्यों बना रहता है, इस लिये कि अधिकाॅंशतः वहाॅं सैकड़ों मृत सैलों के अवशेष जमे रहते हैं। नये सैल वायु, पानी, प्रकाश  और जो भोजन हम करते हैं उन से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार जिस प्रकार की प्रकृति का भोजन किया जाता है सैल भी उसी प्रकृति के उत्पन्न होते हैं और मन को प्रभावित करते हैं। इस लिये भोजन का चयन बड़ी ही सावधानी से करना चाहिये। अतः देशकाल और पात्र के अनुसार सात्विक या राजसिक भोजन लेना चाहिये तामसिक नहीं। सात्विक भोजन करने से सात्विक सैल उत्पन्न होंगे और वे आध्यात्मिक साधना के प्रति प्रेम और उन्नतिदायक वातावरण पैदा करेंगे। लगभग 21 दिन के बाद पुराने सैल मर जाते हैं और उनके स्थान पर नये सैल जन्म ले लेते हैं। अनुभवी डाक्टर इसी लिये बीमार व्यक्ति को उसकी मानसिक और शारीरिक ऊर्जा की पुनःप्राप्ति के लिये उसे कम से कम 21 दिन तक आराम करने की सलाह देते हैं। स्पष्ट है कि सैल जीवधारी हैं और अनेक जन्मों के रूपान्तरण के फलस्वरूप वे मानव शरीर में आ सके हैं और इसी क्रम में बढ़ते हुये  एक दिन मानव मन भी पा सकेंगे। मानव शरीर की चमक इन सभी सैलों की संयुक्त चमक का परिणाम होती है। अधिक उम्र होने पर या बीमार पड़ जाने पर यह चमक कम हो जाती है इस का कारण कुछ सैलों का मर जाना ही है। केवल मानव के चेहरे में ही दसलाख से भी अधिक सैल पाये जाते हैं। जब कोई व्यक्ति क्रोधित होता है तो उसके चेहरे से अधिक मात्रा में खून तेजी से बहता है जिससे अनेक सैल मर जाते हैं और चेहरा लाल हो जाता है। हत्या करने वाले दुष्ट लोग भी इसी कारण अपने चेहरे के आधार पर पहचाने जाते हैं। साधना करने वाले आध्यात्मिक और सात्विक व्यक्ति के चेहरे पर भी सात्विक चमक रहती है। अतः जब सैल, भोजन और पानी से और मनुष्य की प्रकृति सैलों की प्रकृति से प्रभावित होते हैं तो अवश्य  ही भोजन के चयन में बहुत सावधानी रखना चाहिये।

Wednesday, 11 February 2015

मध्य (भाग पाॅंच) मन और मानव शरीर 6.0: योगमनोविज्ञान और ब्रह्मविज्ञान

इस खंड में मानव मन और मानव शरीर के साथ योग मनोविज्ञान और ब्रह्म विज्ञान किस प्रकार सम्बंधित है और इन की सहायता से अपने आप को समझने में  किस प्रकार सरलता होती है ,  इन रहस्यों पर चर्चा की जाएगी। नौं उपखण्डों में दिया गया यह  विवरण गूढ़ है अतः इसे अनेक बार थोड़ा थोड़ा पढ़ने पर ही समझ में आएगा।  इसकी गंभीरता अनेक रहस्यों को लिए  हुए है।    


मध्य (भाग पाॅंच)  मन और मानव शरीर

     6.0: योगमनोविज्ञान और ब्रह्मविज्ञान

6.1 मन की संरचना
मन क्या है? न तो यह कोई भौतिक आकार का है और न ही विशुद्ध आत्मिक। यह वह हेै जो भौतिक और मानसिक जगत को इंद्रियों के माध्यम से जोडे़ रखता है। जैसे  द्रष्टि, इसके लिये आॅंखें दरवाजे का काम करतीं हैं और प्रकाश  तंत्रिका  के सहारे आॅंखों से देखा गया भौतिक द्रश्य  मानसिक संसार में सूचित कर दिया जाता है। इस तरह इंद्रियाॅं, शरीर से अधिक ताकतवर हैं। मन का कोई मानसिक या भौतिक दरवाजा नहीं है, इसलिये इसे बाहर से नहीं देखा जा सकता। परंतु वह इंद्रियों से जुड़ा रहता है अतः दार्शनिक  ने इसे भी विशेष सूक्ष्म इंद्रिय का नाम दिया है वह भी ग्यारहवीं। इसमें अन्य दस इंद्रियों से अंतर यह है कि इसका कोई भौतिक दरवाजा नहीं होता जब कि अन्य सबका होता है। इस सूक्ष्मता के कारण ही अन्य इंद्रियों की अपेक्षा मन का भौतिक शरीर पर अधिक प्रभाव होता है। अपने दरवाजों से आने वाली सूचनाओं को सभी इंद्रियाॅं मन को भेजती हैं फिर मन अपनी प्रतिक्रिया देकर भौतिक शरीर को कार्य करने का निर्देश  देता है। अतः यदि आप मन से अच्छा कार्य लेना चाहते हैं तो उसे प्रशान्त  रखा जाना आवश्यक  हैं, इसके लिये आपको दसों इंद्रियों और आठों अवयवों की सहायता से उसेे सूचित करते रहना होगा जो भारसाम्य और बलसाम्य बनाये रखने में मदद करेंगे।

मन का नियंत्रण

          इंद्रियाणांम् मनो नाथः मनो नाथश्च  मारुतः। मन इंद्रियों का स्वामी है और मन का स्वामी है प्राणवायु। मन के तीन क्रियात्मक भाग महत्तत्व, अहम्तत्व ओर चित्तत्व कहलाते हैं। वाह्य संसार के संवेदन इंद्रियों के द्वारा अहमतत्व को प्रेषित किये जाते हैं वह उन्हें अनुभव करता है और अपनी प्रतिक्रिया चित्तत्व की सहायता से इंद्रियों को वापस कर देता है। इस प्रकार मन भावजगत और भौतिक जगत दोनों के बीच घूमता रहता है, उसकी स्थिति मस्तिष्क में होती है जो कि भौतिक है और प्राणशक्ति के द्वारा नियंत्रित होता है। जब मन स्थिर होता है  श्वाश  धीमी चलती है परंतु जब मन अस्थिर होता है श्वाश   तेज हो जाती है। दौड़ते हुए कोई भी  किसी विषय पर गहराई से नहीं सोच पाता क्योंकि श्वाश  तेज चलती है। अतः प्राणऊर्जा मन को नियंत्रित करती है। प्रणायाम दस प्रकार की वायु को नियंत्रित करता है अतः वह मन को नियंत्रित करने की क्रिया है।
         किसी के विचारों के समयान्तराल के अनुसार उसकी साॅंस का प्रवाह रहता है अतः स्वाभाविक श्वसन क्रिया को विशेष प्रकार के लय अर्थात् रिद्म की ओर मोड़ देने पर मन नियंत्रित हो जाता है। प्रणायाम का यही अर्थ है। इंद्रियाॅं शरीर का नियंत्रण करती हैं मन इंद्रियों का नियंत्रण करता है और मन का नियंत्रण करता है प्राणवायु, अतः अष्टाॅंग योग में प्राणायाम का बड़ा महत्व है।
          जब किसी संस्कार के कारण श्वसन   क्रिया विचलित होने लगती है तो मन भी विचलित हो जाता है और मन के विचलित हो जाने पर संबंधित प्रवृत्ति या इंद्रिय भी विचलित हो जाती है। इसी कारण अन्य प्रवृत्तियाॅं या इंद्रियाॅं भी अक्रिय हो जाती हैं। परंतु यदि प्राणायाम की सहायता से श्वसन  क्रिया को लयबद्ध बना लिया जावे तो वृत्तियाॅं और इंद्रियाॅं शांत हो जाती हैं। इसे विशेष रूपसे याद रखा जाना चाहिये । लगातार के अभ्यास से यह पता लगना सरल हो जाता है कि किस वृत्ति की सक्रियता श्वास  के असंतुलित होने पर होती है और कौनसी वृत्ति श्वास  के शांत होने पर शांत हो जाती है। प्राणायाम का लगातार अभ्यास करने पर वासना, क्रोध, लोभ, दर्प, आसक्ति और ईर्ष्या  आदि वृत्तियों पर नियंत्रण हो जाता है।

मन जड़ की ही सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है, यह सूक्ष्मतर सत्ता ही स्तर भेद के अनुसार कहीं अस्तित्व बोध के साथ जड़ का संबंधीकरण करती है और कहीं वह जड़ का भाव रूप ग्रहण करती है। इस प्रकार इसके तीन खंड होते हैं।
- जिस सत्ता के द्वारा अस्तित्व बोध जागता है वह सबसे सूक्ष्म है इसे महत तत्व कहते हैं। उन्नत श्रेणी के जीव इस कोटि में  आते हैं।
-जिस सत्ता से अस्तित्व बोध के साथ जड़ के संबंध का निर्णय होता है वह अपेक्षतया स्थूल होता है इसे अहंतत्व कहते हैं।
-जिस सत्ता से जड़ का शव रूप ग्रहण होता है इस स्थूलतम अंश  को चित्त कहते हैं। इस से जड़ भाव ग्रहीत होता है पर अस्तित्व बोध नहीं।
जिनका चित्त अहं से बड़ा होता है उनकी मनीषा अविकसित होती है, जड़ भोग ही उनके जीवन का ध्येय होता है। उनकी मनन शक्ति जड़ या चित्त की सीमा में ही दौड़ती रहती है। बकरी हरे पत्ते देखकर खाने दौड़ेगी पर मनुष्य लोभनीय भोग वस्तु को देखकर हिताहित सोचकर ही उधर दौड़ेगा क्योंकि आदमी का अहं , चित्त से बड़ा होता है इस कारण मनीषा के जाग्रत रहने से वह चित्तवृत्ति का नियंत्रण करती है।
उदाहरणतः  अवनत श्रेणी के लता गुल्म या जीव। इनमें महततत्व जाग्रत न होने से स्थूल देह काट कर दो टुकड़े कर देने पर भी वे दो प्राणियों में परिणत हो जाते हैं। चैतिक संघर्ष के बढ़ने से अहं और महत  आयतन में बढ़ते जाते हैं। 
मानसः    (mind)     जब अहं का आयतन चित्त के आयतन से कम होता है।
मनीषाः (intellect)    जब अहं का आयतन चित्त के आयतन से अधिक होता है।
बोधिः  (intuition)    जब महत का आयतन अहं के आयतन से अधिक होता है।
- जिनका भाव संघात अधिक है उनमें ही वोधि विकास संभव है। यह बोधि तथा सुप्तावस्था में कुलकुडलनी अभिन्न हैं। भावसंघात और साधना से  प्रसुप्ता कुंडलनी को जगाकर उठाने का अर्थ है बोधि का विकास। जिनकी कुंडलनी जगी है वह जड़ जगत के निवासी नहीं, बोधि राज्य के निवासी हैं।

-जिनकी मनीषा नहीं जगी है वह प्रकृति की ताड़ना से चलते हैं और जिनकी मनीषा जगी है वे इसकी सहायता से विश्लेषण द्वारा अपने यथार्थ साध्य को निर्वाचित कर लेते हैं और फिर उसी साध्य की भावना में चलते हैं मनीषा जब साध्य की भावना में चलती है तो वाह्य और आंतरिक इंद्रियां उनकी आज्ञानुसार भृत्य की तरह कार्य करती हैं उनका मन इंद्रियों का दास नहीं रहता।

-निम्नतर जीवों में  स्थूलदेह की आवश्यकता की  पूर्ति करने के अलावा कोई वृत्ति नहीं होती, कुछ उन्नत जीवों का मन दो चार स्थूल वृत्तियों तक ही सीमित होता है अतः उनका मन भाव समझना सरल होता है।

-भाव संघात अधिक होने से मन की गति सूक्ष्मता की ओर बढ़ती जाती है जिससे उनकी भावग्रहण क्षमता बढ़ती जाती है, इस तरह जड़तथा सूक्ष्म दोनों ओर गति होने के कारण मन में प्रबल आंदोलन होता है जिससे मन में छोटी बडी अनेक तरंगें बनने लगती हैं यही मन की विभिन्न वृत्तियां कहलाती हैं।

-मनीषा का जागरण जितना अधिक होगा वृत्तियां उतनी ही अधिक होंगी और मन भी उतना ही विचित्र होगा और उसे पहचानना उतना ही कठिन होगा।

-बुद्धि जब बोधि के रूप में विकसित हो जाती है तो मनुष्य देखता है कि सब कुछ के मूल में एक ही सत्ता है अतः वह समस्त वृत्तियों को एकत्रकर उस एक की ओर दौड़ाता है अतः बोधि की बृद्धि के साथ वृत्तियां कम होने लगतीं हैं और अंत में एक ही वृत्ति रह जाती है उसे आनन्द कहते हैं संस्कृत में इसे हृदय या गुहा कहा जाता हैं। धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां। गुहा माने पहाड़ की गुफा नहीं इसका अर्थ है बोधि।

-intellect के जागने से मनुष्येतर प्राणियों में जो वस्तु ज्ञान होता है उसमें प्रशिक्षा की तुलना में सहजात संस्कार अधिक कार्य करते हैं परंतु मनुष्य में सहजात संस्कार से प्रशिक्षा का प्रभाव अधिक होता है अतःयदि वह आध्यात्मिक आदर्श  को सामने न रखकर  बस्तु विज्ञान की चर्चा में ही  रत रहता हो तो क्रमागत वस्तु के ध्यान से उसकी बुद्धि जड़ मानस में रूपान्तरित हो जायेगी। स्पष्ट है कि वैज्ञानिक यदि आध्यात्मिकता विमुख होते हैं तो वे पृथ्वी का कुछ भी अनर्थ कर सकते हैं।

-दर्शन  की अत्यधिक चर्चा व्यक्ति को तार्किक बनाती है, संदिग्ध कर अहंकारी बनाती हेै। चूंकि दर्शन  की दौड़ धूप बौद्धिकता के भीतर ही होती है अतः उसका उल्लंघन करना उसके सामर्थ्य  में नहीं होता अतः वह परमात्मा को छू नहीं सकता।

-बुद्धि के ऊर्ध्व  में जब बोधि का विकास होता है तभी पता चलता है कि वस्तु विज्ञान अथवा दर्शन  इनमें किसी से भी जीव का चरम कल्याण नहीं। केवल बोधि ही उस परम सत्ता को छू सकती है। जिसे बोधि प्राप्त हो गई उसे पंडित, डिर्ग्रीधारी होना आवश्यक  नहीं है। शास्त्रीय तर्कजाल की आवश्यकता  नहीं।

-वोधि प्राप्त व्यक्ति अपने अनुभव से बात करते हैं वे दर्शन  का चर्वित चर्वण नहीं करते, उनकी अनुभूतियों को ही पंडित लोग दर्शनशास्त्र  बनाकर व्याख्या करते हैं पर पाते कुछ नहीं।

Friday, 6 February 2015

5.96 माइक्रोवाइटा के शोधकार्य संबंधी सुझाव

5.96 माइक्रोवाइटा के शोधकार्य संबंधी सुझाव
1. माइक्रोवाइटा का क्षेत्र व्यापक है अतः इस पर शोधकार्य करने के लिये मानवमनोविज्ञान का अध्ययन करना आवश्य क होगा। भौतिकी , रसायन, चिकित्सा, औषधि और मनोवैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इसका शोध करना होगा। भौतिकी में अबतक परमाणु के स्थूल भाग पर ही शोध हुए है, सूक्ष्म भाग पर नहीं । माइक्रोवाइटा एटम के सूक्ष्म भाग से संबंधित है इस क्षेत्र में कार्य करने के लिये आध्यात्मिक साधना का अभ्यास करने वाले ही सफल हो सकते हैं। जब एटम का स्थूल भाग एटम बम जैसी ऊर्जा दे सकता है तो सूक्ष्म भाग तो और चमत्कार करेगा। इसलिये स्थूल भाग के अनुसंधान का उपयोग भौतिक जगत के लिये और सूक्ष्म भाग के अनुसंधान का उपयोग अन्य महान उपलब्धियों में किया जा सकेगा। अतः स्थूल और सूक्ष्म दोनों भागों में अनुसंधान एक साथ होना चाहिये, सूक्ष्म भाग विचारों के अधिक निकट है और स्थूल भाग पदार्थ के।
2. माइक्रोवाइटा जीवित अस्तित्व हैं अतः उनका शरीर है यद्यपि वह विचारों की तरह सूक्ष्म होता है। ये जीवात्मा को पदार्थ के निकट लाते हैं परंतु जो घटक जीवन के निर्माण में सहायक होते हैं वे आध्यात्मिक और परामानसिक जिज्ञासा के अंतर्गत आते हैं। माइक्रोवाइटा पदार्थ और विचारों के बीच की सुंदर कड़ी हैं । पदार्थ के प्रारंभ और माइक्रोवाइटा के अंतिम स्तर के  बीच  स्पष्ट विभाजक रेखा होती है। विचारों को आधार बनाकर चलने और उनसे प्रभावित होने के कारण माइक्रोवाइटा रिसर्च का काम सबसे पहले मानसिक प्रयोगशाला में होना चाहिये। पदार्थ या परमाणुओं  का सूक्ष्मतम भाग जो विचारों के अधिक निकट है उसे आध्यात्मिक साधना के द्वारा समझा जा सकता है। परमाणुओं के कुछ सूक्ष्म भागों पर अनुसंधान करना आध्यात्मिक विधियों से ही संभव है और माइक्रोवाइटा के स्थूल भाग का अनुसंधान भौतिक प्रयोगशालाओं में ही संभव है अतः दोनों क्षेत्रों में यह कार्य एक साथ किया जाना चाहिये।
3. माइक्रोवाइटा की प्रकृति आर्गेनिक और इनआर्गेनिक क्षेत्रों को जोड़ने की होती है अतः इनके शोध से एकीकृत क्षेत्र निर्मित होगा। डाक्टरों का काम ऋणात्मक माइक्रोवाइटा से अधिक होता है ये विभिन्न वीमारियों और तन्मात्राओं के दूसरे ग्रहों और अन्तरिक्ष से लाते हैं। डाक्टरों को चाहिये कि वे ऋणात्मक माइक्रोवाइटा के गुणों को पहचाने इससे एक ओर तो वे बीमारियों का उचित इलाज कर सकेँगे वहीं दूसरी ओर नयी बीमारियाॅं लाने वाले ऋणात्मक माइक्रोवाइटा के आक्रमण से बचने के लिये पहले से ही सतर्क रह सकेंगे। एलोपैथिक दवाइयों से ऋणात्मक माइक्रोवाइटा का साॅंद्रण बीमारी के स्थान पर अधिक हो जाता है दवा से वीमारी ठीक नहीं होती वह तो अपने आप होती है दवा केवल बीमारी को रोक लेती है। ऋणात्मक माइक्रोवाइटा के अधिक साॅंद्रण हो जाने पर वह दवा का प्रभाव कम कर देते हैं यही कारण है कि एलोपैथिक दवाओं से प्रत्येक दस वर्षों में अनेक नयी वीमारियों का जन्म हो रहा है। इसका समाधान केवल यह है कि हमें बाहर से तो दवा लेकर वीमारी को रोकना होगा और भीतर से आध्यात्मिक साधना करके ऋणात्मक माइक्रोवाइटा को समाप्त करने के लिये धनात्मक माइक्रोवाइटा के साॅंद्रण को बढ़ाना होगा।
4. कास्मिक क्षेत्र में असंबंधित तन्मात्राओं के तल जिनकी कहीं सघनता और कहीं विरलता होती है, जब केवल परावर्तन करती है तो परावर्तित ऊर्जा सात्विक संवेदन निर्मित करती है और जब परावर्तन और अपवर्तन दोनों करती है तो राजसिक संवेदन पैदा करती है और जब केवल अपवर्तन करती है तो तामसिक संवेदन उत्पन्न होते है। इसलिये पदार्थ बोतल में भरी ऊर्जा की तरह नहीं है बल्कि ऊर्जा की ही बोतल है। अब देखिये, मन की संकल्पना के भीतर आने वाली सभी सत्तायें अमूर्त होती हैं और वे जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंद्रियों के माध्यम से आभासित या अनुभव होती हैं वे शुद्ध पदार्थ होती हैं। परंतु माइक्रोवाइटा और ऊर्जा की स्थिति पदार्थ और अमूर्त के बीच की भिन्नता की स्पष्ट खिंची हुई रेखा पर होती है। ऊर्जा प्रायः आभासित होती है पर सूक्ष्म ऊर्जा नहीं , इसी प्रकार सूक्ष्म माइक्रोवाइटा भी आभास की सीमा में नहीं आते पर वे संकल्पना के परास में आते हैं। स्पष्ट है कि माइक्रोवाइटा, तन्मात्राओं के भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों  में और ऊर्जा केवल भौतिक क्षेत्र में ही अधिक सक्रिय होते हैं। इसीलिये ये इन्हीं क्षेत्रों में अधिक प्रबल होते हैं।
5. ऋणात्मक माइक्रोवाइटा  भौतिक और मनोभौतिक क्षेत्र में और धनात्मक माइक्रोवाइटा मानसिक और मानसाध्यात्मिक क्षेत्र में अधिक अच्छी तरह क्रियाशील रह सकते हैं। ऊर्जा अंधशक्ति है, उसके पास अच्छे बुरे का निर्णय काने की क्षमता नहीं है। पर, माइक्रोवाइटा वैसे नहीं हैं वे अपने साथ विवेक रखते हैं। यह दोनों में मौलिक अंतर है। ऊर्जा को उसके विभिन्न रूपों में पारस्पिरिक रूपान्तिरित किया जा सकता है पर पदार्थ को केवल एक बार एकतरफा ही रूपान्तिरित किया जा सकता है वह भी हमेशा  नहीं। कास्मिक क्षेत्र में यदि हम ज्ञाता (know-er) और ज्ञात (known) भाग को, जो हम अनुभव करते हैं या संकल्पित करते हैं या आभासित करते हैं, उससे अलग करने का प्रयत्न करें तो भौतिक स्तर पर कासमस, क्रियारतसत्ता (doing entity)   होता है और माइक्रोवाइटा कहलाता है, और यह भौतिक संसार कृतसत्ता (done entity)  ।  कासमिक स्तर पर जानने वाली सत्ता (knowing faculty) , परम कारण अथवा ऊर्जा का सूक्ष्मतम भाग  होता है और मानसिक तथा मानसाध्यात्मिक संसार में ज्ञात घटक (known counterpart) कहलाता है। जब ऊर्जा इस भौतिक जगत के संपर्क में होती है तो उसे विद्युत, चुंबक, ध्वनि आदि में रूपान्तरित कर सकते हैं। परंतु यही जब कासमिक ज्ञात क्षेत्र में होती है तो वह विभिन्न मानसिक संसारों अथवा संकायों का निर्माण करती है। इसमें से आकर वह व्यक्तिगत वृत्तियों से होती हुई जड़ता में विलीन हो जाती है। यदि यह कासमिक ज्ञानात्मक सत्ता की ओर मोड़ दी जाती है तो वह मानसाध्यात्मिक गति में बदल जाती है और अंततः आध्यात्मिक सत्ता में।
6. माइक्रोवाइटम यद्यपि प्रारंभिक रूपमें कासमिक क्षेत्र के (doer portion)  से संबंधित होता है पर यदि वह
भौतिक जगत में से गुजरता है तो वह अच्छा और बुरा दोनों कर सकता है। यदि वह सूक्ष्म से स्थूल की ओर जाता है तो वह मानव मन और आचरण को पतित करता है और यदि स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाता है तो वह आध्यात्मिक साधक को उसके लक्ष्य पाने में मदद करता है। यदि माइक्रोवाइटा तन्मात्राओं अथवा वृत्तियों के विभिन्न तलों से निकलता है तो न केवल उनका ताप परिवर्तित करता है वरन् मानसिक तरंगों  और उनकी तरंगदैध्र्यों में मौलिक परिवर्तन कर देता है। हारमोन्स के स्राव और उनके रूपान्तरण और गति आदि को भी परिवर्तित कर देता हैं। इसलिये यह प्रयोग भौतिक प्रयोगशालाओं के साथ ही साथ मानसिक प्रयोगशालाओं में भी किया जाना चाहिये।
7. (doer I) या कृतापुरुष वास्तव में ऋणात्मक और धनात्मक माइक्रोवाइटा दोनों का साॅंद्रित रूप है जो विश्व  में संतुलन वनाये रखता है। धनात्मक माइक्रोवाइटा भौतिक -मानसाध्यात्मिक साधना में प्रयुक्त होते  हैं । ऊर्जा (knower I) है ,अथवा "ज्ञ" पुरुष कहलाती है, और धन और ऋण माइक्रोवाइटा के साथ विश्व  में भ्रमण करती है।
8.  प्राणऊर्जा के विना साधना संभव नहीं होती इसलिये उचित सात्विक भोजन करने पर ही प्राणशक्ति प्राप्त होती है और विभिन्न ऊर्जाओं में रूपान्तरित होती रहती है।
9. कम्युनिस्ट और पूंजीवादी  देशों  में समाज के भौतिक और भौतिक-मानसिक क्षेत्रों में ऋणात्मक
माइक्रोवाइटा का अत्यधिक उपयोग होते रहने के कारण धनात्मक माइक्रोवाइटा का बहुत सा भाग अप्रयुक्त रह गया है अतः वहाॅं अनैतिकता की समस्या आ गयी है। इस समस्या को दूर करने के लिये वहाॅं साधना और सेवा के द्वारा इस अप्रयुक्त धनात्मक माइक्रोवाइटा का पूर्ण उपयोग किया जा सकता है।


10. परमाणु के भीतर ऊर्जा भरी होती है क्योंकि उसे पदार्थ रूपी संग्राहक की आवश्यकता  होती है बिना उस आधार के वह नहीं रह सकती अतः जब परमाणु का विखंडन किया जाता है तो  ऊर्जा उत्सर्जित होती है जो प्रचंड वेग से चारों ओर दूसरे संग्राहक को तलाशती है जिसमें वह आश्रय पा सके और अंततः किसी देश  में, समुद्र में, किसी मनुष्य के शरीर में, धरती में, अपना आश्रय खोज लेती है। पदार्थ का आश्रय भी धरती ही है।

5.95 माइक्रोवाइटा और अदेह आत्मायें

5.95 माइक्रोवाइटा और अदेह आत्मायें
1. उन्नत बौद्धिक स्तर प्राप्त व्यक्ति मरने के बाद देवयोनि और अन्य दुर्गुणी लोग प्रेतयोनि में अदेह भटकते हैं जब तक कि उन्हें अन्य शरीर नहीं मिल जाता । वे जो दूसरों को विभिन्न कारणों से मानसिक क्लेश देते  हुए मरते हैं वे दुर्मुख प्रेतयोनि में अशरीर रहते हैं और लंबे समय तक परिणाम भोगने के बाद पुनः मानव शरीर में जन्म लेते हैं।
2. वे जो अपमान के कारण, मानसिक विकृति से या कुंठा से, या अत्यधिक लगाव वश  ,क्रोध , लोभ , अहंकार , जलन आदि के कारण आत्म हत्या कर लेते हैं वे कबंध प्रेतयोनि में रहते हैं और मानसिक रूप से असंतुलित लोगों को आत्महत्या के लिये प्रेरित करते रहते है।
3. मानसिक रूपसे बेचैन रहनेवाले वह व्यक्ति जो अस्थिर प्रकृति के होते हैं हर समय अपने विचार बदलते रहते हैं। वे स्वयं परेशान रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं। मरने के बाद वे अदेह मध्यकपाल प्रेतयोनि में भटकते हैं।
4. जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैंऔर अविद्या का सहारा लेकर पाप कर्म करते हैं और मारक हथियारों को बहुतायत से निर्माण करने का कार्य करते हैं और निर्दयता से लाखों लोगों की हत्या करते हैं वे महाकपाल प्रेतयोनि में भटकते हैं।
5. वे बुद्धिवादी जो दूसरों में हीनता का भाव जगाते हैं और अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग रचनात्मक काम में नहीं करते बल्कि दूसरों का दमन करने में लगाते हैं ब्रह्मदैत्य या ब्रह्मपिशाच  प्रेतयोनि में भटकते हैं।
6. योग्यता के न होने पर भी अपनी महत्वाकाॅंक्षा की पूर्ति करने के लिये जो हमेशा  विध्वंसक काम में संलग्न रहते हैं और जघन्य अपराध करने से भी नहीं हिचकते वे आकाशी प्रेत बनकर भटकते हैं और लंबे समय तक फल भोगने के बाद फिर जन्म ले पाते हैं।
7. जे सब चीजों को अपने खाने और अपने सुख पाने की नियत से उपभोग करते हैं चाहे वह इस योग्य हो या नहीं, ये लोग मरने के बाद पिशाच प्रेतयोनि में रहते हैं।

उपरोक्त सभी प्रेतयोनियाॅं ऋणात्मक माइक्रोवाइटा श्रेणी में हैं। स्मरण रहे ऋणात्मक माइक्रोवाइटा गंध तन्मात्रा को और धनात्मक माइक्रोवाइटा ध्वनि तन्मात्रा को अपने वाहन के रूपमें प्राथमिकता देते हैं।
8. महापुरुषों के पवित्र और उन्नत विचार आकाशीय तरंगों में मिलकर धनात्मक माइक्रोवाइटा के सहयोग से पूरे विश्व  में फैल जाते हैं। धनात्मक माइक्रोवाइटा दूध को दही में बदलते हैं और मानवता की सेवा करते हैं।मानव विचारों और भावनाओं को ये माइक्रोवाइटा संश्लेषण कर अंतिम रूप से उत्तम बुद्धि में परिवर्तित कर देते हैं।
9. गंध  के द्वारा अनेक बीमारियाॅं फैलती हैं, जैसे त्वचारोग और फोड़े फुन्सियाॅं ,गले में लेरिंगाइटिस की बीमारी आदि,  (लेरिंगाइटिस में गले में अल्सर हो जाता है और आवाज कर्कश  हो जाती है। वे जो लगातार लंबे समय तक गाते हैं या व्याख्यान देते हैं उनके गले में यह बीमारी हो जाती है जो ऋणात्मक माइक्रोवाइटा से होती है। इस बीमारी से बचने या दूर करने के उपाय हैं, सर्वांगासन और मत्स्यमुद्रा नियमित रूपसे करना तथा लोंग और पान के पत्ते को एकसाथ उबाल कर उसका गर्म पानी नाक से पीते हुए गले के कौआ के पास हाथ की मध्यमा अंगुली से सफाई करना चाहिये और फिर गले में भरे पानी को मुंह से बाहर कर देना चाहिये।)
10. मनुष्य का मन गंध और रूप तन्मात्राओं से अधिक प्रभावित होता है और ऋणात्मक माइक्रोवाइटा इन तन्मात्राओं से फैलते हैं पर यह उन लोगों को प्रभावित नहीं कर पाता जो साधना में रहते हुए अपने मन को उच्च स्तर पर बनाये रखते हैं। यदि कोई लंबे समय तक साधना में अपने मन को उच्च चक्र पर केन्द्रित रखे रहा हो और यदि तत्काल गंध तन्मात्रा द्वारा ऋणात्मक माइक्रोवाइटा आक्रमण करे तो वह कुछ नहीं बिगाड़ सकता पर यदि व्यक्ति का मन क्रूड विचारों में चला जाये तो फिर वह इसके आक्रमण से नहीं बच सकता। यह कार्य गंधपिशाच नामक ऋणात्मक माइक्रोवाइटा का है।
11. तथाकथित भूत और कुछ नहीं वे गंधपिशाच माइक्रोवाइटा ही हैं जो डोगमा से पोशित बुद्धि को प्रभावित कर सोचने वाले के विचारों के अनुसार दिखाई देने लगते हैं। सभी प्रकार के ऋणात्मक माइक्रोवाइटा में से जो इन्द्रियों के द्वारा फैलते हैं सबसे खतरनाक होते हैं।
12. जिस प्रकार प्रेत योनियाॅं ऋणात्मक माइक्रोवाइटा द्वारा नियंत्रित होती हैं उसी प्रकार देवयोनियाॅं धनात्मक माइक्रोवाइटा के द्वारा नियंत्रित होती हैं। वे जो कभी अच्छे साधक रहे और अच्छे काम के लिये धन एकत्रित करते हुए परम पुरुष का अपना लक्ष्य भूलकर धन एकत्रित करने में ही लगे रहे , ऐसे लोग मरने के बाद यक्ष देवयोनी में  रहते हैं और  स्त्रीलिंग में यक्षिणी कहलाते हैं। अदेह अवस्था में इन्हें गंधयक्षिणी कहते हैं। इनसे अनेक प्रकार की विशेष सुगंध निकलती है। ये न तो धनात्मक माइक्रोवाइटा  और न ऋणात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं वरन दोनों के बीच होते हैं इन्हें माध्यमिक माइक्रोवाइटा कह सकते हैं। ये शरीर की अपेक्षा मन पर अधिक प्रभाव डालते हैं और जब तक धार्मिक स्तर पर मन रहता है ये प्रभावित नहीं करते पर ज्योंही निम्न विचारों में मन जाने लगता है ये सक्रिय हो जाते हैं, ये मन को हटाते नहीं हैं पर धर्म को प्रभावी कार्य के रूपमें स्वीकार नहीं करने देते। ये मन में विचार पैदा करते हैं कि अरे! जहाॅं हो वैसे ही साधना करो और अन्य कामों से भी संतुलन बनाये रखो जो कि एक प्रकार का स्वार्थी संतुलन है। ये शरीर  पर धनात्मक और ऋणात्मक दोनों प्रकार का प्रभाव डालते हैं पर विनाशकारी नहीं। गंधयक्षिणी माइक्रोवाइटा का कार्य इस प्रकार समझा जा सकता है, मानलो आपको कहीं जाने के लिये ट्रेन पकडना है और आप समय पर तैयार भी हो गये पर अचानक पेट में दर्द हुआ और आराम करने लगे इतने में ट्रेन छूट गयी । बाद में आप को पता चला कि एक घंटे बाद ही उसी ट्रेन का भयंकर एक्सीडेंट हो गया। भले ही आप को दर्द हुआ और समय पर अपने गन्तव्य तक नहीं पुंचने से भी नुकसान हुआ पर जान तो बच गई। या अन्य इस प्रकार भी घटित हो सकता है कि आप कहीे काम से ट्रेन से जा रहे हैं और सोच रहे हैं कि ट्रेन समय पर न पहुचने से सब काम बिगड़ जायेगा क्यों कि अगले स्टेशन पर जो ट्रेन पकडना  है निकल जायेगी, नहीं मिल पायेगी , पर ज्यों ही वहाॅं पहुंचते हैं तो पता चलता है कि जिस ट्रेन को पकडना था वह अभी आधा घंटा लेट है अतः मिल जायेगी। यह सब गंधयक्षिणी का काम है। यह कोई देवी नहीं वरन् माध्यमिक माइक्रोवाइटा हैं।
13. गंध रुक्मिणी वह धनात्मक माइक्रोवाइटा हैं जो गंध तन्मात्रा के द्वारा चलते हैं और आध्यात्म की ओर तेजी से बढ़ने के इच्छुक लोगों को बल पूर्वक आध्यात्मिक साधना की ओर आकर्षित कर लेते हैं। ऐंसा व्यक्ति अपने दैनिक कार्य करते करते अचानक ही सब कुछ छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़ता है। रुक्मिणी, कृष्ण की पत्नि सभी को आध्यात्म मार्ग की ओर लेजाने के लिये सक्रिय रहतीं थी और जो भी उनके संपर्क में आता था उसमें पूर्णतः रूपान्तरण हो जाता था और पहले से अधिक आध्यात्मिक हो जाता था। इसी लिये इस माइक्रोवाइटा का नाम गंधरुक्मिणी है। निमाईं पडित को अपने ज्ञान और शास्त्रार्थ की शक्ति का अंहंकार था अचानक अज्ञात शक्ति ने उन पर प्रभाव डाला और वे पूर्णतः बदल गये , सब कुछ त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े। यह काम गंधरुक्मिणी का था।
14. देवयोनि का अर्थ है वह सत्ता जिसमें अनेक दिव्य गुण हों। अनेक प्रकार की देवयानियों में से सात प्रकार प्रमुख हैं। किन्नर, विद्याधर, यक्ष, प्रकृतिलीन, विदेहलीन सिद्ध और गंधर्व। ऊपर वर्णित खंड 5.92 में  इनकी प्रकृति का विवरण दिया गया है। वे जिनका लगाव सुंदरता और आभूषण, धन आदि के प्रति होता है वे मृत्यु के बाद किन्नर होते हैं । ये भगवान के भक्त होते हैं पर भगवान के बदले उन्होंने सुन्दरता और आभूषणों की चाह की होती है  और सोचते हैं कि सब उनकी सुंदरता की तारीफ करें। अतः वे मरने के बाद किन्नर माइक्रोवाइटा हो जाते हैं वे लोगों को सुंदर होने की मनोविज्ञान सिखाकर सौंदर्यपरक बनाने में सहायक होते हैं।
15. आध्यात्मिक रूपसे वे उन्नत व्यक्ति जो परमपुरुष को अनुभव करने की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्व देते हैं मरने के बाद विद्याधर माइक्रोवाइटा होते हैं । किन्नर से वे कुछ उन्नत होते हैं और संस्कार क्षय होते ही फिर से जन्म लेते हैं। ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते और उन्हें मदद करते हैं जो बौद्धिक स्तर पर अपने को आगे लेजाना चाहते हैं। ये शरीर से सुंदर भले न हों पर मानसिक रूप से सुंदर प्रकृति के होने से सबको आकर्षित करते हैं। पर वे परमपुरुष को नहीं पाते।
16. वे जो आध्यात्म साधना करते करते अच्छे कार्यों के लिये धन संग्रह करने लगते हैं और फिर आध्यात्मिक उन्नति और परमपुरुष को भूल कर उसी में रम जाते हैं उनका आराध्य धन संपदा ही हो जाता है ऐंसे लोग मरने के बाद यक्ष माइक्रोवाइटा होते हैं, ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते पर वे परमपुरुष को नहीं पाते और संस्कारों के क्षय होते ही फिर से जन्म पा जाते हैं।
17. वे जो भ्रमित होकर परम पुरुष को भूल जाते हैं और जड़ पदार्थों की पूजा में लगे रहते हैं मरने के बाद प्रकृतिलीन होकर उनके मन पत्थर लकड़ी आदि हो जाते हैं। यहि दशा  बहुत ही दयनीय होती है पर संचित संस्कारों के क्षय हो जाने पर फिर से मानव देह पाते हैं पर चूंकि वे परम पुरुष को पाने की चाह रखते हैं वे देवयोनि में माने गयेहैं। जहाॅं देवयानि पत्थरों या लकड़ी के रूपमें होते हैं वे लगातार अपने मुक्त होने के लिये चिंतित रहते हैं अतः जब कोई आध्यात्मिक साधक ऐंसे स्थानों पर साधना करता है तो जल्दी ही उनका ध्यान केन्द्रित हो जाता है क्योंकि धनात्मक माइक्रोवाइटा सहायता करने लगते हैं। यदि देवयोनी की मदद से ध्यान केन्द्रित हुआ है तो वे नाक से हल्की मीठी सुगंध का अनुभव करते हैं और यदि वे गुरु की कृपा से ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं तो मधुर हल्की सुगंध के साथ वे चमकीले प्रकाश  की तरंगों के खंड भी देख पाते हैं चाहे आखें खुली हों या बंद। दोनो ही स्थितियों में गुरु की कृपा का ही महत्व है। आध्यात्मिक साधक पर जब गुरु की सीधी कृपा होती है तो वह हल्की सुगंध सूंघकर और चमकीली तरंगों के खंड देखकर मादक उल्लास से सब भिन्नताओं को भूल कर परम चेतना के सागर में आनन्दित होनें लगता है। तब वह अनुभव करता है कि गुरु कृपा के अलावा कुछ नहीं है।
18. वे जो आध्यात्मिक साधक तो होते हें और साधना जारी रखते हैं पर घरेलु परेशानियों और अन्य घटनाओं , जैसे बच्चे अच्छे न निकलना , फेल होना , धन समाप्त होना, बार बार धोखा होना आदि से दुखी होकर मानते हैं कि उनकी तरह दुर्भाग्य किसी का नहीं है और मर जाना चाहते हैं और इसी सोच में मर जाते हैं वे विदेहलीन होकर भटकते हैं जो बड़ी ही कष्टदायी अवस्था है। ये धनात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं और लोगों की मदद करते हैं संस्कारों  के क्षय हो जाने पर फिर मानव तन पाते हैं।
19. वे जो तल्लीनता से साधना करते हैं और कुछ दिव्य शक्तियाॅं पा जाते हैं तो वे और अधिक शक्तियों के पाने के चक्कर में परमपुरुष को पाने से ध्यान हटा कर सिद्धियों पर ही ध्यान लगाये रहते हैं ये मरने के बाद सिद्ध माइक्रोवाइटा हो जाते हैं। देवयोनियों में इनका सबसे ऊंचा स्थान है। आध्यात्मिक साधकों को यह अनेक प्रकार से मदद करते हैं। उनकी मुख्य भूमिका अभिभावक की तरह होती है। अनेक महापुरुषों के बारे में सुना जाता है कि उनके कोई गुरु नहीं थे वे सिद्धों के द्वारा दीक्षित थे,। साधकों को आवश्यकता होने पर सिद्ध उचित मार्गदर्शन देते हैं।
20. वे साधक जो संगीत के क्षेत्र में अद्वितीय होने की कामना करते हैं और शरीर त्याग करते हैं वे गंधर्व देवयोनी में जाते हैं जो कि विशेष प्रकार के धनात्मक माइक्रोवाइटा हैं।