Sunday, 31 December 2017

174 बाबा की क्लास ( शिवलिंग )

मित्रो ! भगवान सदाशिव के संबंध में जानने योग्य सभी तथ्यों एवं समाज को उनके योगदान संबंधी जानकारी को आप लोग पिछली दो ‘‘ बाबा की क्लासों’’ में पा चुकेे हैं। इस क्लास में वह जानकारी दी जा रही है जिसे पाने के लिए आप सभी प्रयासरत रहे हैं पर, समाधानकारक व्याख्या प्राप्त नहीं होने के कारण उसमें आज भी भ्रम बना हुआ है। वह है ‘‘शिवलिंग’’ । इस क्लास के प्रश्नोत्तरों की प्रत्येक लाइन को ध्यानपूर्वक पढ़िए फिर मनन कीजिए और यदि तर्क तथा विज्ञान सम्मत लगती हो तो विवेकपूर्वक निर्णय लेकर उसे स्वीकार कीजिए और अन्य सभी को भी अवगत कराइए। नववर्ष 2018 की सादर  मंगलकामनाएं।

174 बाबा की क्लास ( शिवलिंग )

राजू- शिवपूजन के साथ एक बड़ा ही विचित्र और भ्रामक विधान ‘लिंगपूजा‘ का बनाया गया है यह बात समझ के बाहर है?
बाबा- प्रागैतिहासिक काल में ही नहीं वैदिक युग से पहले से ही लोग लिंगपूजा करते आये हैं। कारण यह था कि उस समय लोग दिन में या रात में कभी भी सुरक्षित नहीं थे। एक समूह दूसरे पर आक्रमण कर अपने समूह के प्रभाव को संरक्षित करना चाहता था अतः स्वाभाविक था कि उनकी संख्या अधिक हो, इसलिये लिंगपूजा को जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य  से तत्कालीन समाज में मान्यता दी गई। इसीलिये, यह भी प्रचारित किया गया कि जिसके अधिक संतान होगी वे भगवान को अधिक प्रिय होंगे और समाज में आदरणीय; (दुश्परिणामतः , वर्तमान में इसके विपरीत परिवार नियोजन और छोटे परिवार की अवधारणा आई है) । तत्कालीन विश्व  के लगभग सभी देशों  में लिंगपूजा किये जाने के प्रमाण मिले हैं। अतः सत्य यही है कि लिंगपूजा को प्रागैतिहासिक काल से ही ‘‘सामाजिक रिवाज’’ के रूप में ही माना जाता था न कि आध्यात्मिक या दार्शनिक  आधार पर।

रवि- तो ‘लिंगपूजा‘ को शिव से कब और कैसे जोड़ा गया?
बाबा- जैन मत के प्रचार के समय तीर्थंकरों की नग्नमूर्तियों की पूजा ने लोगों के मन में नया विचार जगाया और लिंगपूजा को आध्यात्म से जोड़ने का कार्य प्रारंभ हुआ। जैन धर्म के प्रभाव से आज से लगभग 2500 वर्ष पहले तीर्थंकरों को नया महत्व मिलने के कारण लिंगपूजा का, जनसंख्या बढ़ाने का पुराना अर्थ बदलकर शिवतंत्र में स्वीकृत दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ ‘‘ लिंगयते गमयते यस्मिन तल्लिंगम‘‘से जोड़ दिया गया। जिसका अर्थ है वह परमसत्ता जहाॅं से सभी आए हैं और जिस ओर सभी जा रहे हैं वही लिंग है। अतः समाज में यह माना जाने लगा कि सभी मानसिक और भौतिक जगत के कंपन परम रूपान्तरकारी शिवलिंग की ओर ही जा रहे हैं अतः यह शिवलिंग ही अंतिम स्थान है जहां सबको पहुंचना है। प्रागैतिहासिक काल की लिंगपूजा का इस प्रकार रूपान्तरण हो गया और पूरे भारत में फैल गया इतना ही नहीं पूर्व से स्थापित शिव का बीजमंत्र भी बदल दिया गया।

राजू- शिव का बीजमंत्र तो ‘म‘ है, उसे जैन और बौद्ध मत में किस प्रकार बदला गया?
बाबा- सर्वविदित है कि आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि ब्रह्म्माॅंड के प्रत्येक अस्तित्व से तरंगें निकलती हैं । यही तरंगें किसी वस्तु विशेष  की मूल आवृत्ति कहलाती है जिसे दार्शनिक  भाषा में बीजमंत्र कहते हैं। दार्शनिक  आधार पर किसी भी अस्तित्व के निर्माण करने का बीजमंत्र ‘अ‘ पालन करने का ‘उ‘ तथा नष्ट करने का ‘म‘ है। वेदों में शिव  का बीजमंत्र ‘म‘ कहा गया है जो जैनतंत्र और बौद्धतंत्र के प्रभाव से पश्चात्वर्ती शिवतंत्र  में ‘ऐम‘ कर दिया गया। चूंकि ‘ऐ‘ बारह स्वरों में से एक है और ‘वाच्य या ज्ञान’ का बीजमंत्र है । ’’ज्ञान‘‘ गुरु की वाणी से प्राप्त होता है और शिव को गुरु माना गया है अतः जैनतंत्र, बौद्धतंत्र और उत्तरशिवतंत्र में शिव का बीजमंत्र ‘‘ऐम’’ कर दिया गया जो पौराणिक काल में जब सरस्वती देवी को ज्ञान की देवी के रूप में प्रस्तुत किया गया तो ‘ऐम‘ बीज मंत्र उन्हें दे दिया गया।

रवि- कितना आश्चर्य है! जब बीजमंत्र ही बदल गया तो उसका दार्शनिक महत्व क्या रहेगा? क्या उन लोगों ने इस पर नहीं सोचा?
बाबा-सही है, जब बीजमंत्र ही बदल गया तो उससे जुड़ा प्रत्येक कार्य ही अप्रभावी हो जायेगा। ये जैन शिव, जैनसमाज में ही स्वीकृत हैं, क्योंकि सदाशिव से जोडे़ बिना उन्हें कोई महत्व नहीं मिलता। शिवतंत्र में इन्हें मान्यता नहीं दी गई है । परंतु अपने अपने मत को श्रेष्ठ कहने के प्रयास में समाज में अनेक विभाजन और उपविभाजन हुए जिससे शिवलिंग और उसके पूजन में अलग अलग मतों के अनुसार नाम भी दिये जाते रहे। किसी समूह में आदिलिंग, किसी में ज्योतिर्लिंग , किसी में अनादि लिंग। उत्तर बंगाल (तत्कालीन वारेंन्द्र भूमि) के राजकुमार ‘बाण‘ ने वाणशिवलिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। इस तरह जैन काल में शिवलिंग की पूजा मेें अनेक परिवर्तन हुए।

इंदु- क्या बुद्ध मत पर शिव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा?
बाबा- जिस प्रकार जैन और शैव परस्पर एक दूसरे से प्रभावित हुए उसी प्रकार बौद्ध और शैव भी। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अंतर था अतः दोनों समकालीन ही कहे जावेंगे। महायान बौद्धमत भारत, चीन और जापान में प्रभावी हो चुका था इसकी दो शाखाओं  ने तान्त्रिक पद्धति को अपना लिया था । शिव के व्यापक प्रभाव के कारण बौद्ध युग में भी उन्हें नहीं भुलाया जा सका और शिवलिंग  अथवा शिवमूर्ति की पूजा की जाती रही परंतु थोड़े संशोधन के साथ। शिव को पूर्ण देवता न मानकर उन्हें बोधिसत्व माना गया, अतः शिव की मूर्ति अथवा शिवलिंग पर बुद्ध की छोटी मूर्ति को बनाया जाने लगा जिसका अर्थ यह बताया जाने लगा कि शिव के लक्ष्य बुद्ध थे। इस प्रकार के बोधिसत्व शिव, बाद में ‘बटुकभैरव’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

रवि - तथाकथित शिवलिंग का भगवान सदाशिव से कोई संबंध नहीं है, इसका सबसे बड़ा आधार क्या है?
बाबा- सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि शिव के ध्यान मंत्र में शिवलिंग  का कहीं भी उल्लेख नहीं है जिससे प्रकट होता है कि यह बहुत बाद में ही जोड़ा गया है।

चंदू- आपके अनुसार विद्यातन्त्र विज्ञान में शिवलिंग के सम्बंध में किस प्रकार की मान्यता है?
बाबा- तन्त्रविज्ञान में शंभूलिंग वह है जहाॅं से सृष्टि का उद्गम हुआ है। ‘शम’ का अर्थ है नियंत्रण करना और ‘भू’ का अर्थ है होना। इसलिए शंभू का अर्थ हुआ वह सत्ता जिसका आविर्भाव सांसारिक मामलों पर नियंत्रण करने के लिए हुआ है । शम + क्रि +अल = शंकर, अर्थात् सभी पर नियंत्रण करने वाली सत्ता। चूंकि यह सृष्टि के उद्गम का बिन्दु है इसलिए इसे इस सृष्ट जगत की मूल धनात्मकता कहा जाता है । अर्थात् मनुष्य सहित सभी सृष्ट वस्तुएं इस शंभूलिंग के माध्यम से ही कारणात्मक उत्पत्ति स्थान के संपर्क में आते हैं। तंत्र में लिंग की परिभाषा है ‘लिंग्यते गमयते यस्मिन तल्लिंगम’ । सम्पूर्ण सृष्टि का अन्तिम लक्ष्य यह लिंगम ही है और, जहाॅं कम्पनकारी सभी अस्तित्व अस्थायी रूप से रुकते हैं उसे कहते हैं स्वयंभूलिंग। यह स्वयंभूलिंग मनुष्य के शरीर में सुसुम्ना के अन्तिम खंड में माना गया है जिसे मूल ऋणात्मकता कहा जाता है। इसी स्वयंभूलिंग में इकाई दिव्यसत्ता सुप्तावस्था में रहती है। सभी आध्यात्मिक पथिकों के लिए यह बिन्दु ही प्रारंभिक बिन्दु होता है।

इन्दु- तंत्रविज्ञान में इसकी उपासना वैसी ही की जाती है जैसी वर्तमान में शिव मंदिरों में देखी जाती है या अलग?
बाबा- वर्तमान में की जाने वाली पूजा का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। आधारहीन पौराणिक काल्पनिक कथाओं को सुनाकर भोले भाले लोगों को भ्रमित किया जाता है। विद्यातन्त्र की विधियों में महाकौल गुरु के व्यक्तिगत प्रयास से सोई हुई मूल ऋणात्मकता को मूल धनात्मकता की ओर संचालित करने का कार्य किया जाता है। अर्थात् स्वयंभूलिंग को शंभूलिंग के स्तर तक पहॅुंचाया जाता है। तन्त्र विज्ञान में इस क्रिया को पुरश्चरण कहा जाता है। महाकौल के द्वारा यह कार्य जिस मन्त्र के द्वारा किया जाता है इसे मंत्रचैतन्य या सिद्ध मंत्र कहा जाता है । आध्यात्मिक प्रगति के लिये साधारण मंत्र किसी काम का नहीं होता, सिद्ध मंत्र ही आवश्यक होता है जिसे महाकौल ही निर्मित कर सकते हैं अन्य कोई नहीं । भगवान सदाशिव महाकौल गुरु हैं। उन्होंने ही सभी प्रकार की जपक्रिया या आध्यात्मिक साधना के लिए सिद्ध मंत्रों या चैतन्य मंत्रों का अनुसंधान किया है। चैतन्य मंत्र के आघात से प्रसुप्त देवत्व जाग जाता है और संबंधित व्यक्ति के सभी संस्कार क्षय होने लगते है। इस विधि से संस्कारों को क्षय किए जाने का कार्य ही शिव उपासना या शिवलिंग पूजा कही जाती है अन्य नहीं। सभी संस्कारों के क्षय हो जाने पर इकाई ऋणात्मकता, मूल धनात्मकता के साथ एकीकृत हो जाती है इसे ही मोक्ष की अवस्था कहते हैं। अपनी इस मूल अवस्था में पहुॅंचना ही सभी जीवाधारियों का लक्ष्य है।

Tuesday, 26 December 2017

173 पढ़े लिखे लोग भ्रष्टाचार का विरोध क्यों नहीं करते?

173 पढ़े लिखे लोग भ्रष्टाचार का विरोध क्यों नहीं करते?
कुछ लोगों का मानना है कि अविकसित देशों में अशिक्षा के कारण लोग अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानते इसलिए वे बुराई को सहते रहते हैं और भ्रष्टाचार की समस्या बढ़ती जाती है। पर क्या यह सही है? इन अविकसित देशों के पढ़े लिखे लोग भी विभिन्न राजनैतिक पार्टियों को विश्वसनीयता से समर्थन देते पाए जाते हैं जबकि वे जनसामान्य को अपना नेतृत्व देकर अनीति के विरुद्ध एकत्रित कर सकते हैं। भले ही वे पूरे समाज को प्रेरित न कर पाएं परन्तु कुछ समस्याओं का तो अवश्य ही समाधान कर सकते हैं । वे यह क्यों नहीं करते ? कारण सरल है। समाज के उन्नत स्तर का एक बड़ा घटक भ्रष्टाचार में लिप्त रहता है इसलिए वे उनके सामने यह साहस ही नहीं जुटा पाते कि उनके विरुद्ध आवाज उठाएं, अनैतिकता को रोकें और समाज के हर स्तर पर सक्रिय भ्रष्टाचारियों में सुधार लाने का प्रयास करें। देखा गया है कि लिपिक, शिक्षक, इंजीनियर, सरकारी अधिकारी और व्यवसायी जो कि समाज में तथाकथित पढ़े लिखे माने जाते हैं, अधिकांश अनैतिक कामों और अपने अपने कर्तव्यक्षेत्रों में भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाते हैं। उनका कमजोर मन परोक्षतः अन्याय की आलोचना करता है परन्तु आमना सामना करने से डरता है। चोर लोग अपने चोरों के समूह में चोरों की आलोचना कर सकते हैं परन्तु वे ईमानदार लोगों के समूह में अपना कोई सुझाव नहीं दे सकते क्योंकि ऐसा करने में उनके ओठ थरथराएंगे, उनका हृदय धड़कने लगेगा। अविकसित देशों के उच्च स्तरीय समाज में भी पढ़े लिखे भ्रष्टाचारियों की दशा भी ऐसी ही है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से तो स्थिति और भी जटिल हो गई है। इस प्रकार के लोगों के आचरण में परिवर्तन लाकर ईमानदार बनाना होगा अन्यथा समाज की कोई भी बुराई दूर नहीं होगी और न ही कोई समस्या हल होगी। इसलिए यह आशा करना कि केवल सरकर ही इन बुराइयों को दूर करने का कोई जादू कर सकती है, पागलपन ही कहा जाएगा ।

Monday, 25 December 2017

172 बाबा की क्लास ( शिव: ईश्वरों के ईश्वर, महेश्वर क्यों? )

172 बाबा की क्लास ( शिव: ईश्वरों के ईश्वर, महेश्वर क्यों? )

इन्दु- आपने शिव के परिवार में ‘गणेश’ को सम्मिलित क्यों नहीं किया, क्या वे शिव के पुत्र नहीं हैं?
बाबा- नहीं। पितृ सत्तात्मक पृथा के प्रारंभ होने के बाद समूह के प्रभावी पुरुष को मुखिया के रूप में स्वीकार किया गया और गोत्रपिता नाम दिया गया। पिता की सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को प्राप्त होने लगा। संस्कृत में समूह को गण कहते हैं अतः समूह के नायक को गणेश , गणनायक या गणपति कहा जाने लगा। इसलिये गणेश  का अस्तित्व इतिहासपूर्व माना जाता है और लोग हँसी  में कह भी देते हैं कि जब गणेश  की पूजा सभी देवताओं के पहले की जाती है तो शिव के विवाह के समय भी गणेश  की पूजा हुई होगी तो फिर गणेश , शिव के पुत्र कैसे हुए? स्पष्ट है कि गणेश , शिव, पार्वती, दुर्गा आदि के पुत्र नहीं हो सकते वे सामाजिक पृथाओं के अंतर्गत हैं , धर्म से उनका कोई संबंध नहीं है। चूंकि समूह के नेता को मोटा तगड़ा होना चाहिये अतः हाथी जैसा शरीर, समूह में संख्या की खूब बृद्धि होना चाहिये अतः वाहन के लिये चूहा  (क्योंकि चूहों की संख्या अन्य प्राणियों की तुलना में तेजी से बढ़ती है) प्रतीकात्मक रूप में स्वीकार किया गया। पौराणिक काल में इसे गणपति कल्ट के रूप में स्वीकार कर धार्मिक आधार बना दिया गया। पुराणों में आपस में ही समानता नहीं है, एक ही तथ्य को अलग अलग स्थानों पर अलग अलग वर्णित किया गया है। पुराणों की कहानियां शिक्षाप्रद हैं परंतु हैं सब काल्पनिक।

रवि- शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘पंचवक्त्रम्’ कहा गया है, तो क्या सदाशिव के पाॅंच मुंह थे?
बाबा-नहीं , एक ही मुख से पांच प्रकार के प्रदर्शन  करते थे। मुख्य मुंह बीच में, कल्याण सुंदरम। सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर । कल्याणसुंदरम और दक्षिणेश्वर  के बीच में ईशान । सबसे वायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्याणसुन्दरम के बीच में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर  का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान  और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कराते हैं। मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर  कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान  कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो , मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा मैं इन गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे , ऐंसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पांच तरह के भाव प्रकट करने के कारण शिव को पंचवक्त्र कहा जाता है।

राजू- शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘त्रिनेत्र’ क्यों कहा गया है क्या उनके तीन नेत्र थे?
बाबा-  मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जागृत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु व्यक्ति सभी असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐंसा कर सकता है तो यह क्रिया ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना’’ कहलाती हैं। यह ज्ञाननेत्र तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव अनन्त ज्ञान के भंडार थे अतः कहा जाता है कि उनका ज्ञान नेत्र बहुत ही विकसित था। वे त्रिकालदर्शी  थे अतः ध्यान मंत्र में त्रिनेत्रम् कहा गया है।

चंदु- शिव को कुछ लोग सदा ही नशे में डूबा रहने वाला मानते हैं और कहते हैं कि वे नशैली चीजें, भांग धतूरा, शराब आदि देने पर प्रसन्न होते हैं?
बाबा- कुछ अज्ञानियों ने इस प्रकार का व्यर्थ प्रचार कर रखा है। इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियोंको नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियोंके नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इन 9 चक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियोंको नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित  हो जाता है, नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी मनःस्थिति का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा  इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा  किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं।

राजू- सिर पर गंगा के होने का रहस्य तो पिछली बार आपने बताया था, परन्तु क्या उनके सिर पर चंद्रमा भी था? चित्रों में तो यह विचित्रता दर्शायी जाती है?
बाबा- चारुचंद्रावतंसम् , अर्थात् सुंदर चंद्रमा जिनका मुकुट है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? सहस्रार से निकलने वाले दिव्य अमृत अर्थात् हारमोन के प्रभाव को समझने वाले अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक कला  दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं अतः शायद इसी से अमृत निकलता है। इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया, वे कहने लगे कि इस अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं । इसलिये, अनेक लोगों का मत था कि यह अदृश्य  सोलहवीं चंद्रकला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये। इसतरह उनके ध्यानमंत्र में उन्हें ‘चारुच्रद्रावतंसं ’ कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं  से अनजान,  भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।

रवि-  आपने पिछली बार यह बताया है कि देवों के देव महादेव शिव, आज से सात हजार वर्ष पहले धरती पर थे और पौराणिक धर्म जिसने आज के समय में अपनी कहानियों से समाज को जकड़ रखा है तेरह सौ वर्ष पहले आया; तो इस बीच के छै हजार वर्षों में क्या किसी ने शिव को याद ही नहीं किया?
बाबा- शिव तो जन जन के हृदय में महासंभूति के रूप में प्रारंभ से ही स्थापित हो चुके थे परंतु उनके बाद  लिपि के अनुसंधान हो जाने से भोजपत्र पर लिखना प्रारंभ हुआ और समय समय पर आये विद्वानों ने अपने अपने दार्शनिक सिद्वान्तों से लोगों का ध्यान बाॅंटना प्रारंभ कर दिया जैसे, महर्षि कपिल ने सांख्य, पतंजली ने योग,कणाद ने वैशेषिक,जैमिनी ने पूर्व मीमांसा, बादरायण व्यास ने उत्तर मीमांसा आदि। इन्हीं के समर्थन में गौड़पाद, गोविन्दपाद, शंकराचार्य ने मायावाद, बृहस्पति या चार्वाक ने भोगवादी सिद्धान्त, वर्धमान महावीर ने महानिर्वाणवाद या कर्मनिर्वाण, गौतमबुद्ध ने ज्ञाननिर्वाण, आदि का प्रतिपादन किया जिनसे शिव के द्वारा दी गयी मूल शिक्षायें इनके आधार में नीव के पत्थर की तरह दबती चली गयीं और आज का प्रदर्शनवाद और भौतिकवाद लोगों के मन और मस्तिष्क में छा गया।

चंदू- क्या यह सभी सिद्धान्त आजकल प्रभावी हैं?
बाबा- भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय विभिन्न सिद्धान्तों और मतवादों को पौराणिक कल्ट में पांच विभागों में बाॅंट दिया गया वे हैं, शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में तथा उपरोक्त पांच उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश  केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में     शिवाचार और शेष भारत में वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।

रवि- आज से 1300-1400 वर्ष पूर्व, पौराणिक कथाओं के अनुसार तत्कालीन प्रचलित अनेक मान्यताओं को   शंकराचार्य ने शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, गणपत्याचार, और सौराचार भागों में विभाजित कर इन्हें उपासना पद्धतियों का नाम दिया लेकिन इनमें निहित तत्व क्या हैं? जिन्हें लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार उनका पालन करना प्रारंभ किया।
बाबा- शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलाना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलानाचाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहाँ  कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक  है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति  से इसका कोई संबंध नहीं है। वैष्णवाचार में विश्व  की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्णोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व  के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व  के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया। इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक  मान्यता थी और कुछ को नहीं।

राजू- परंतु आज कल तो पौराणिक धर्म के सिद्धान्तों का ही बोलबाला है जिन्हें जगद्गुरु शंकराचार्य के द्वारा प्रतिपादित किया गया कहा जाता है और उन्हें भगवान शिव का अवतार माना गया है?
बाबा-हाॅं बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों विभागों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव से संबंधित किए बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। शिव का अवतार कहा जाना ही प्रकट करता है कि किसी भी नये सिद्धान्त को जनसामान्य से मान्यता दिलाने के लिये उसे शिव से जोड़े बिना संभव नहीं है। शिव की दिव्यता इसी से सिद्ध हो जाती है।

नन्दू- परंतु ये सभी अपने अपने को श्रेष्ठ कहते हुए जन सामान्य के बीच मतभेद और वैमनस्य तो फैला रहे हैं, वे सभी अपने अपने धर्म प्रवर्तकों को ही ईश्वर और भगवान कहते हैं?
बाबा- जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन  पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं, देवता कहलाते हैं। इन प्रवर्तकों को इस परिभाषा के अनुसार जाॅंच करने पर यदि सही लगता है तो वे देवता कहला सकते हैं अन्यथा नहीं।  चूंकि शिव का आदर्श  उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाना सार्थक है। परंतु शिव  के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं, महेश्वर हैं।

Monday, 18 December 2017

171 बाबा की क्लास ( शिव: देवों के देव महादेव क्यों? )

171 बाबा की क्लास ( शिव: देवों के देव महादेव क्यों? )

नन्दू- बाबा! भगवान शिव को विचित्र ढंग से क्यों दर्शाया जाता है? शिव का सही अर्थ क्या है? उन्होंने वह कौन सा काम किया जिससे वे सबको प्रभावित कर सके?
बाबा- उन्हें विचित्रता देना उनका कार्य है जिन्होंने उन्हें समझा ही नहीं है। शिव का शाब्दिक अर्थ है कल्याण । दूसरा अर्थ है, अस्तित्व का चरम बिंदु । तीसरा अर्थ है, 7000 वर्ष पहले ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में जो भगवान सदाशिव धरती पर आये वह। उन्होंने, गौड़ीय और कश्मीरी  तन्त्र के रूप में अव्यवस्थित और बिखरे हुए ‘विद्यातंत्र’ को सुव्यवस्थित किया। उनकी ‘‘साधुता’’ ऐसी कि जिसने जो कुछ मांगा तत्काल दे दिया, ‘‘सरलता’’ ऐसी कि छोटे बड़े के भेदभाव बिना सभी के साथ निकटता एवं आत्मीयता रखना तथा हर संकट में साथ देना और ‘‘तेजस्विता’’ ऐसी कि कपटता, बाहुबल या घमंड के साथ जो भी पास आया उसे शरणागत होना ही पड़ा। उनके इन्हीं तीन गुणों ने सभी को प्रभावित किया।

इंदु- कभी आप शिव को महासंभूति कहते हैं और कभी तारक ब्रह्म, यह कैसी शब्दावली है?
बाबा- वह सत्ता जो प्रकृति को अपने वश में करके प्राणियों को प्रगति की सही दिशा देने के लिये अपने व्यक्तित्व तथा दर्शन को एकरूप कर अपने आपको व्यक्त करती है उसे महासंभूति कहते हैं। यही सत्ता जब ब्रह्मचक्र की प्रतिसंचर धारा में मनुष्यों को तेज गति से चलने की प्रेरणा देकर मुक्तिमार्ग की ओर ले जाती है तो यह व्यक्त और अव्यक्त जगत के बीच पुल अर्थात् (bridge) की तरह काम करती है, इसे तारक ब्रह्म कहा गया है। शिव, महासंभूति और तारक ब्रह्म दोनों हैं।

राजू- शिव के कार्यकाल में जो सामाजिक व्यवस्था थी क्या उन्होंने उसमें कुछ परिवर्तन किया?
बाबा- उस समय जनसामान्य, पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः मुखिया गोत्रपिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की पृथा चली जो किसी समूह विशेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को जीतने वाले का गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाता था और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। वर्तमान में  विवाह के समय वर और वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की पृथा का ही बदला हुआ रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह पृथा नहीं थी, अतः माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संस्था को स्थापित कर समाज में इस पर आधारित ‘‘विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना‘‘ सिखाया। इसलिये वह सर्वप्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं।

रवि- तो क्या उनके समय एक ही सामाजिक सभ्यता प्रचलित थी?
बाबा- नहीं, आर्य , मंगोल और द्रविड़ सभ्यतायें थीं और उनके सदस्य अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये आपस में लड़ाई झगड़े किया करते थे। शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की पृथा शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही।

नन्दू- इन झगड़ों को शान्त करने में शिव की भूमिका क्या थी?
बाबा- उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की दृष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः  उमा (पार्वती), गंगा और काली नाम की कन्याओं से विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने परिवार को आदर्श स्वरूप देने के लिये पुरुष को उसके पालन पोषण का उत्तादायित्व देकर ‘भर्ता‘ और पत्नी को इस कार्य में उसके साथ समान रूप से सहभागी बनाने के लिये ‘कलत्र‘ कहा। ये दोनों ही शब्द पुल्लिंग में हैं अतः उन्होंने कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव को नहीं माना और न ही महिलाओं को पुरुषों से कम। इस प्रकार समाज को व्यवस्थित कर उसे उन्नत किये जाने को नया आयाम दिया।

राजू- शिव की वह शिक्षा कौन सी है जिसके आधार पर तत्कालीन विद्वान ऋषिगण प्रभावित हुए? क्या इसे  सरलता से समझाया जा सकता है?
बाबा- शिव ने समझाया कि प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु वे यह जानते नहीं हैं।  जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसके साक्षीबोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य  रूप में रहती है। इसे सरलता से समझने के लिये हम भौतिकी के ‘‘बलों के त्रिभुज नियम‘‘ को ले सकते हैं जिसके अनुसार दीवार पर  संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर बंधी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित  किया जा सकता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य  (सेंटिऐंट फोर्स) साक्षीस्वरूप परमपुरुष वह आधार है जो पूरे ब्रह्माॅंड को संतुलित रखते हैं।

रवि- वे ऋषि गण कौन थे जो शिव से सबसे पहले प्रभावित हुए? क्या शिव ने उन्हें अपने सामाजिक उत्थान के कार्य में लगाया?
बाबा- उस काल में लोग भोजन की तलाश में यहां वहाॅं भटकने में ही अधिकांश समय खर्च कर देते थे , अतः शिव ने ‘नन्दी’ को पशुपालन और कृषिकार्य में प्रशिक्षण देकर अन्न उत्पन्न करने का कार्य सभी को सिखाने का उत्तरदायित्व सौंपा । पहाड़ की गुफाओं के बदले, मैदानों और नदियों के किनारे भवन बनाकर रहने का प्रशिक्षण ‘विश्वकर्मा’ को देकर उन्हें भवन निर्माण शिल्प या स्थापत्य कला को सभी लोगों को सिखाकर घर बनाकर रहने की प्रेरणा देने का दायित्व दिया। शिव ने स्वस्थ रहने के लिये वैद्यकशास्त्र में ‘धनवन्तरि’ को प्रशिक्षित कर अन्य लोगों को सिखाने और सभी के स्वास्थ्य का निरीक्षण करने का काम सौंपा। इसके बाद काम करते करते लोग ऊबने न लगें इसलिए ‘भरत’ को संगीत विद्या में निपुण कर अन्य लोगों को सिखाने का और मनोरंजन करने का काम सौंप दिया। 

इंदु- तो क्या संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य यह सब शिव की देन है?
बाबा- हाॅं, शिव ने निरीक्षण कर सात प्रकार के प्राणियों से संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत  अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वाश , प्रश्वाश  आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा और अनेक प्रकार की नृत्य मुद्राओं का अनुसंधान किया। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने महर्षि भरत को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।

राजू- शिव ने किस धर्म की स्थापना की?
बाबा- शिव ने ही सर्वप्रथम धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परमसत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है। तुम लोगों को शायद मालूम हो कि वेदों में किसी धर्म विशेष का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाओं  का संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षायें बदलती रही हैं। ऋग्वेद का आर्षधर्म अर्थात् ऋषियों का कथन यजुर्वेद से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।

चंदू- तो फिर शैव धर्म क्या है?
बाबा- आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं। शिव ने इस प्रतिबंध को हटाया और यज्ञों में पषुओं की आहुति देने का विरोध किया। उन्होंने अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि आर्यों के  (geo and socio-sentiments) से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। विखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के बीच आदर्श  संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।

इंदु- लेकिन शिव के साथ असुरों अर्थात् राक्षसों और भूतों के समूह को दर्शाया जाता है, यह क्या है? शिव को भूतनाथ भी कहा जाता है?
बाबा- असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या बड़े बड़े नाखूनों और दाॅंतों  वाले अर्थात् ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश  के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे और असीरिया के होने के कारण उन्हें असुर कहते थे। अभी भी पलामू जिले में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इनकी रक्षा करने की जिम्मेवारी ली और अपने पास ही रखा और घोषित किया  कि सभी परमपुरुष की संतान हैं और सबको जीने का अधिकार है । वे लोग शारीरिक रूप से कमजोर और दुबले पतले होते थे इसलिये कहा जाने लगा कि शिव के आस पास तो भूत प्रेत रहते हैं। तुम लोग जानते हो कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत का अर्थ है जो कुछ भी जड़ या चेतन भौतिक अस्तित्व में आया है वह भूत है, चूंकि शिव ने न केवल मनुष्यों वरन् पेड़, पौधों और पशुओं को भी संरक्षण दिया था अतः उन्हें आदर से लोग पशुपतिनाथ या भूतनाथ कहने लगे । शिव सबको आदर्ष जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।

रवि- शिव का अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधान क्या है?
बाबा- शिव ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन, श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो हर व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में जगत के किस कार्य को करना चाहिये  और आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के अन्तर्गत आते  हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब पिंगला  सक्रिय होती है तो दायां स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं करने वालों को वरन् दर्शकों को  भी लाभ पहुंचा। शिव ने अवलोकन किया कि मनुष्य शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रंथियों को यदि उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य, मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि । अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौषिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ षरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये इसमें अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। इस तरह छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।

इंदु- लेकिन ‘तांडव‘ को तो भयानक विनाश का समानार्थी बताया गया है?
बाबा- जिन्हें यथार्थता का ज्ञान नहीं है, वे इस प्रकार का प्रचार करते देखे गये हैं। ओखली और मूसल से जब धान से चावल निकाला जाता है तो वह बहुत उछलता है उसे ‘तंदुल‘ कहते हैं । तांडव नृत्य में भी बहुत उछल कूद करना पड़ती है। तांडव शब्द ‘तंदुल‘ से बना है। तुम लोगों को शायद ज्ञात हो कि संस्कृत में बिना पकाया गया चावल ‘तंदुल‘ तथा पकाया गया चावल ‘ओदन‘ कहलाता है। शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल
शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपनी रोजी रोटी कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।

राजू- हमें शिव के परिवार के बारे में भी सही सही ज्ञान नहीं है?
बाबा- शिव के, पार्वती से पुत्र भैरव, गंगा से पुत्र कार्तिकेय और काली से पुत्री भैरवी का जन्म हुआ। भैरव और भैरवी ने शिव द्वारा स्थापित विद्यातन्त्र का अध्ययन और अनुशीलन कर उनकी आज्ञा से सभी पुरुष और स्त्रियों को प्रशिक्षित करने का दायित्व सम्हाला । परन्तु, कार्तिकेय का मन तन्त्रविद्या में नहीं लगता था वे बहिर्मुखी थे अतः शिव ने उन्हें पर्यवेक्षण का कार्य सौपा। वे नन्दी, विश्वकर्मा, धनवन्तरि, भरत, भैरव और भैरवी द्वारा किए जाने वाले कामों का पर्यवेक्षण कर प्रगति की सूचना शिव को देने के काम में लगाए गये।

रवि - तो गंगा को सिर पर बहते हुए क्यों दर्शाया जाता है?
बाबा- गंगा चाहती थीं कि उनका पुत्र भी पार्वती के पुत्र और काली की पुत्री की तरह अपने पिता द्वारा सिखाए गए विद्यातन्त्र का अनुशीलन करे। परन्तु गंगा को अपने पुत्र कार्तिकेय के बहिर्मुखी होने का बहुत दुख था। उनके मन की इस दशा को दूर करने के लिए शिव सदा ही उनकी छोटी बड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए, पार्वती और काली की तुलना में प्राथमिकता देते थे। इस कारण लोग विनोदवश कहा करते कि शिव ने तो गंगा को सिर पर चढ़ा रखा है। जिसका, पुराणों में सिर पर नदी को बहते हुए वर्णन किया गया है जो किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं है।

इन्दु- ओह! शिव के संबंध में आज पता चला कि उनका समाज के लिये कितना अमूल्य योगदान है, सचमुच हम सभी को पुराणों की कहानियाॅं भ्रामक और अतार्किक ज्ञान देती हैं !
बाबा- ये चर्चा तो कुछ भी नहीं है उनके बारे में कुछ भी कह पाना मनुष्य के सामर्थ्य  में नहीं है, जितने भी  देवी देवताओं के नाम पिछले 2000 वर्ष में कहानियों के माध्यम से सुनाए जाते रहे हैं वे सभी किसी न किसी प्रकार से शिव से ही संबंधित बताए जाते हैं ( जबकि शिव 7 हजार वर्ष पहले हुए) क्योंकि शिव से संबंध किए बिना उन्हें कोई मान्यता नहीं मिलती। शिव को इसीलिए देवों का देव महादेव कहा जाता है। उनके बारे में विद्वानों ने बहुत अनुसंधान किया परन्तु अन्त में यही कहना पड़ा कि ‘‘ तव तत्वम् न जानामि कि दृशोसि महेश्वरा, यादृशोसि महादेव तादृशाय नमोनमः।’’ अर्थात् हे महेश्वर ! तुम कैसे हो इस तत्व को जान पाना संभव नहीं है परन्तु तुम जैसे भी हो, हे देवों के देव महादेव ! तुम्हें वैसे ही बार बार प्रणाम करता हॅूं।

Thursday, 14 December 2017

170 प्रतिभा का शोषण

170
प्रतिभा का शोषण
शक्तिशाली और धनी लोग साहित्यकों, लेखकों और वक्ताओं को उनकी गरीबी का लाभ उठाकर क्रय कर लेते हैं और अनेक प्रकार से शोषण करते हैं। उनका यह कार्य प्राचीनकाल से चला आ रहा है। राजा और सम्राट लोग अपने राज्य में कर रहित भूमि और सम्पदा देकर दरवारी कवियों को रखा करते थे और इस प्रकार वे केवल उनके कहने के अनुसार साहित्य रचनाएं लिखा करते थे। इसलिए प्रतिभाशाली साहित्यकार और कलाकार अपने संरक्षकों को खुश रखने के लिए परिस्थितियों के दबाव में अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करने के लिए विवश रहते थे। यही कारण है कि उन्हें अश्लील साहित्य और मूर्तियों की रचना करना पड़ती थी। अपने संरक्षकों को श्रेष्ठ और उनके शत्रुओं को तुच्छ प्रदर्शित करने के लिए उन्हें असत्य का सहारा लेना पड़ा। इतना ही नहीं अपने संरक्षकों की पोशाक, रंग, जाति, पूर्वज, और उनके परिवारों को ईश्वरतुल्य प्रदर्शित करने के लिए निराधार तथ्यों का सहारा भी लेना पड़ा। कुछ अपवादों को छोड़ दें  तो अधिकाॅंश साहित्यिक लोग, समाज के निम्न आर्थिक स्तर के ही होते पाए जाते हैं। स्वतंत्र रूप से कार्य करने की इच्छा होने के बावजूद, द्रव्य के अभाव ने ही उन्हें किसी संगठन या व्यक्ति विशेष के साथ काम करने के लिए उकसाया है। इतना तक कि वे जो अपने लेखों में साहसी और उत्साही दिखाई देते हैं इन्हीं परिस्थितिजन्य दबावों के कारण राजनैतिक पार्टियों के हाथ के खिलोनें  बनते देखे जाते हैं। स्पष्ट है कि सदा से ही शक्तिशालियों के द्वारा साहित्य, कला और बुद्धि के क्षेत्र में प्रवीण लोगों का शोषण किया जाता रहा है और इन लोगों ने अपनी योग्यता को उनके गुणगान तक ही सीमित कर दिया। दुख तो यह है कि यह सब आज भी जारी है।

Monday, 11 December 2017

169 बाबा की क्लास (समय का वर्णक्रम और ओंकार )

169 बाबा की क्लास (समय का वर्णक्रम और ओंकार )

इन्दु- आपने एक बार बताया था कि समाज को स्वरशास्त्र का ज्ञान सदाशिव ने ही सबसे पहले कराया था परन्तु हमारी लिपि में स्वर और व्यंजन नामक कुल पचास ध्वनियों का पृथक पृथक विवरण किसने दिया?
बाबा- हाॅं सही है, परंतु जब से सृष्टि की प्रतिसंचर धारा मनुष्य अवस्था तक आई मनुष्य ने धीरे धीरे अपने और सृष्टि के उद्गम को समझने का प्रयत्न प्रारंभ किया तथा अपने सभी प्रकार के ज्ञानानुभवों को ‘वेद‘ के नाम से अपने पश्चातवर्ती आगन्तुकों को मौखिक रूप से ही हस्तान्तरित करते गये। सुन सुन कर याद रखने के कारण वेद, श्रुति भी कहलाते हैं। चूूंकि सभी ध्वनियाॅं मुंह से ही उच्चारित की जाती थीं तथा उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था अतः , समय के वर्णक्रम को समझाने के लिये प्रत्येक स्वर और व्यंजन की ध्वनि उच्चारित करते हुए एक एक मुंह का आकार बनाते हुए ‘काल‘ अर्थात् ‘‘एटरनल टाइम फैक्टर‘‘ को प्रकट करने के लिये ‘कालिका‘ नामक संकल्पना को मानवीय आकार देकर सभी पचास अक्षरों में से एक ‘अ‘ (अर्थात निर्माण) उच्चारित करते हुए हाथ में और शेष उनन्चास को अन्य अक्षर उच्चारित करते हुए उनकी माला बनाकर गले में पहने हुए दर्शाया जाता रहा, ताकि उसे देखकर लोग उनका सही उच्चारण करना सीखें। परंतु जैसा कि तुम लोग जानते हो कि इसके बहुत बाद में, पौराणिक काल में मार्कंडेय पुराण में वर्णित काली या दुर्गा को इन मुंडमालाओं से विभूषित कर दिया गया है जिसका पूर्व में कहे गये ‘एटरनल टाइम फैक्टर‘ या कालिका से कोई संबंध नहीं है। पुराणों की यथार्थता के बारे में तो तुम लोग पहले ही जान चुके हो।

रवि- लेकिन पिछली कक्षाओं में आपने इन पचास ध्वनियों के संयुक्त रूप को ओंकार कहा था?
बाबा- हाॅं, सृष्टि के निर्माण के समय सबसे पहले जो ध्वनि अर्थात् ‘कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन’ उत्पन्न हुई उसे ओंकार ध्वनि कहते हैं और उसका विश्लेषण करने पर वह स्वरों और व्यंजनों में विभक्त पचास प्रकार की मूल आवृत्तियों में अनुभव की जाती है। यह ओंकार ध्वनि आज भी ब्रह्मांड में उपस्थित है जिसे योगिक विधियों द्वारा अनुभव किया जाता है।

चन्दू- तो क्या इन मूल आवृत्तियों को समय का वर्णक्रम अर्थात् स्पेक्ट्रम कहा जा सकता है?
बाबा- समय या काल क्या है? क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष। अतः सभी प्रकार की आवृत्तियाॅं समय का स्पेक्ट्रम कही जा सकती हैं।

इन्दु- लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक तो ‘‘टाइम और स्पेस ’’ की परिभाषा के संबंध में कुछ भी कहने से बचते हैं, उनके अनुसार इनके बारे में स्पष्ट कुछ नहीं है परन्तु वे टाइम और स्पेस को कपड़े के रेशों की तरह आपस में बुना हुआ मानते हैं?
बाबा- वैज्ञानिक इसे तब तक नहीं समझ पाएंगे जब तक वे ‘कास्मिक माइंड ’ और ‘यूनिट माइंड  ’ के अस्तित्व को नहीं मान लेते। वास्तव में, इस ब्रह्मांड में देश अर्थात् स्पेस, काल अर्थात् टाइम और पात्र अर्थात् अवलोकनकर्ता इन तीनों के माध्यम से  ही सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाशन होता है। अवलोकनकर्ता अपने मन के द्वारा ही सभी कियाओं को अवलोकित कर अपने अनुभवों को संचित करता है। इसीलिए कहा गया है कि क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष ‘टाइम’ कहलाता है, मन की सहायता से इस गतिशीलता को ग्रहण करने वाला ‘पात्र’ कहलाता है और ‘पात्र’ तथा ‘काल’ के बीच संबंध स्थापित करने वाली सत्ता ‘देश अर्थात् स्पेस’ कहलाती है।

राजू- क्या आप यह कहना चाहते हैं कि समय अवलोकनकर्ता के मन के अनुसार बदलता रहता है?
बाबा- धरती पर जो समय हम मापते हैं और किसी अन्य सोलरसिस्टम के किसी ग्रह पर जो समय मापते हैं क्या वह एक समान होता है? या स्थिर अवस्था में जो समय मापा जाता है वह गतिशील अवस्था में भी वही रह पाता है? यदि अवलोकनकर्ता अपने मापन का संदर्भ बिन्दु बदलता है तो क्या समय स्थिर रह पाता है? यह  सापेक्षिता का सिद्धान्त आधुनिक वैज्ञानिकों के द्वारा ही बताया गया है कि नहीं?

चन्दू- बाबा! वैज्ञानिक तो कहते हैं कि इस ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति ‘‘बिगबेंग’’ के साथ अचानक ही हुई, परंतु विस्फोट जैसा कुछ नहीं हुआ ?
बाबा-  वैज्ञानिकों के इस कथन पर चिंतन करो, ‘‘बिगबेंग, दस घात माइनस सेंतीस सेकेंड में, दस घात पन्द्रह केल्विन ताप के विकिरण के साथ, स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया।‘‘ समय की सूक्ष्मता और ताप की अधिकता पर चिंतन करो? क्या वे यह भी बता सकते हैं कि यह बिगबेंग किस के द्वारा किया गया अथवा 3 से 100 गुणित, दस घात बाईस सूर्य जैसे तारों की संख्या बराबर और 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित यह पदार्थ कहाॅं से आया? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ से ‘कुछ‘ कैसे उत्पन्न हो सकता है? निष्कर्ष यही है कि कोई ऐसी सत्ता अवश्य है जिसकी इच्छा से यह सब हुआ और उनकी कल्पना से इस काॅसमस के उत्पन्न होने का प्रमाण है समय की अकल्पनीय अत्यंत कम अवधि होना । इसलिये वैज्ञानिक माने या नहीं परमसत्ता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इस काॅसमस के  दृश्य और अदृश्य सभी पदार्थ उस ‘‘काॅस्मिक माइंड‘‘ की ही विचार तरंगें हैं।

राजू- परंतु बाबा! अनेक स्थानों और मंदिरों में भी बड़ा ‘ऊ‘ बनाकर चंद्र विन्दु लगाते हुए लिखा पाया जाता है और कहा जाता है कि इसका उच्चारण ‘ओम‘ है, भगवान का यही नाम है। इसलिये ‘‘ओम ओम‘‘ इस प्रकार का सभी भक्त लोग जाप भी करते देखे गये हैं?
बाबा- हाॅं। ओंकार ध्वनि का शुद्ध उच्चारण हो ही नहीं सकता क्योंकि वह पचास अक्षरों की आवृत्तियों का एकीकरण है। हिंदी वर्णमाला के इन सभी पचास अक्षरों को एक साथ प्रदर्शित करने के लिये इस प्रकार का संकेताक्षर बड़े ही सोच बिचार कर बनाया गया है। इसमें बड़ा ‘ऊ‘ ब्रह्म की सगुणता को अर्थात् ऊर्जा के ‘कायनेटिक‘ रूप को  प्रकट करता है जिसमें ‘ अ‘, ‘उ‘ और ‘म‘ सम्मिलित होते हैं और क्रमशः उत्पत्ति, पालन और संहार का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनसे जुड़ी क्रियात्मक सत्ता को दार्शनिक नामों से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा गया है। ( ‘अ‘ वर्णमाला का प्रथम अक्षर है अतः इससे उत्पत्ति का, ‘उ‘ स्वरों का मध्य अक्षर है इससे  पालन का और ‘म‘ सभी व्यंजनों का अंतिम है इसलिये इसे मृत्यु का द्योतक माना गया है।) चंद्र बिन्दु के नीचे की ‘वक्राकार रेखा‘ निर्गुण से सगुण के बीच की क्रियात्मकता को  और ‘बिंदु‘ निर्गुण ब्रह्म को अर्थात् ऊर्जा के ‘पोटेशियल‘ रूप को  प्रदर्शित करते हैं। रेखागणित में, तुम लोग यह तो जानते ही हो कि बिंदु की स्थिति अर्थात् पोजीशन तो होती है परंतु विमायें अर्थात् डायमेन्शन्स नहीं, इसीलिये निर्गुण ब्रह्म को बिंदु से प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार इस ‘‘ऊॅं‘‘ संकेताक्षर में सगुण और निर्गुण को एक साथ प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है और अपेक्षा की गयी है कि परम सत्ता के निर्गुण से सगुण होने की अवस्था में उत्पन्न ओंकार ध्वनि को इसी के माध्यम से अनुभव किया जाये।

रवि- तो जो लोग ओम ओम जोर जोर से चिल्लाते हैं उसका कोई महत्व है या नहीं?
बाबा- नहीं, चिल्लाने का कोई महत्व नहीं है, यह अच्छी तरह से  मन में बिठा लो कि ओंकार ध्वनि तो ब्रह्माण्ड  की उत्पत्ति के क्षण से ही समग्र सृष्टि में व्याप्त है इसे ‘‘काॅसमिक साउंड आफ क्रियेशन‘‘ ही कहते हैं और लगातार अभ्यास करने पर मन से मन में ही अनुभव की जा सकती है। इसलिये यदि कोई ओम ओम चिल्लाता है तो व्यर्थ है क्योंकि जब तक उसके पीछे क्या रहस्य छिपा है यह ज्ञात न हो तो चिल्लाने से भी क्या होगा? और जब रहस्य पता चल जायेगा तो वह कुछ भी उच्चारित नहीं कर पायेगा और उसे अनुभव करने के अभ्यास में जुटना ही पड़ेगा। इसलिये तुम सब अपने अपने इष्ट मंत्र के सहारे बार बार ओंकार के साथ अनुनादित होने का अभ्यास किया करो, यही सब कुछ है, जिसने इसे अनुभव कर लिया उसने सब कुछ पा लिया। इसके पीछे विज्ञान यह है कि हम अपने ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ और ‘‘इनकान्टिटेटिव रिद्म‘‘ में संतुलन बिठाते हुए ‘‘काॅस्मिक रिद्म‘‘ के साथ अनुनाद अर्थात् ‘‘रेजोनेन्स‘‘ स्थापित करें। इसी के सहारे हम सृष्टि के उद्गम और उसके निर्माणकर्ता तक पहुंच पाते हैं।

Tuesday, 5 December 2017

168 बाबा की क्लास (अंक और अंकेश्वर )

168 बाबा की क्लास (अंक और अंकेश्वर )

नन्दू- आपने समय समय पर भगवान, ईश्वर, देवता आदि की दार्शनिक व्याख्या की है, इतना ही नहीं उनकी सीमाएं और कार्यक्षेत्र के संबंध में समझाया है परन्तु क्या परमपुरुष को गणित के अंकों द्वारा समझाया जा सकता है?
बाबा- अवश्य । पूरी गणित में ‘शून्य’ और ‘एक’ यही दो संख्यायें व्याप्त होती हैं। संख्या कितनी ही बड़ी क्यों न हो यदि गंभीरता से विचार करें तो वास्तव में संख्या ‘एक‘ ही उस बड़ी संख्या में उतनी बार समायी रहती है अतः संख्या मूलतः ‘एक‘ ही होती है। परमपुरुष ‘एक’ ही हैं ।

रवि- गणित में ‘अनन्त संख्या’ की अवधारणा भी होती है और बिन्दु की भी?
बाबा- "अनन्त" सीमा रहित है अतः संख्या ‘एक‘ ही अनन्त बार इसमें समायी हुई है। परमपुरुष को अनन्त कहा गया है। बिंदु का परिमाण नहीं होता केवल स्थिति होती है। परन्तु शून्य के साथ इनकी पारस्परिक स्थिति के अनुसार परिणाम में विचित्र परिवर्तन देखे जाते हैं।

राजू- यह परिवर्तन किस प्रकार होते हैं?
बाबा- ‘शून्य‘ और ‘एक‘ का संख्याओं में बहुत महत्व है, जैसे एक के पहले यदि शून्य लगादें तो उसका मूल्य वही रहता है और यदि आगे लगा दें तो दस गुना बढ़ जाता है। बिन्दु और शून्य का संख्या के साथ विपरीत स्वभाव होता है। बिन्दु संख्या के पहले लगाने पर उसका मूल्य दस गुना घट जाता है और आगे लगाने पर मान अपरिवर्तित रहता है।

इन्दु- तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि अस्तित्व तो केवल संख्या वह भी, ‘एक‘ का ही है । उसके अनेकत्व में अथवा मूल्य में आभासी कमी या बृद्धि होने के लिये तो ‘बिंदु और शून्य’ की स्थितियां ही उत्तरदायी होती हैं?
बाबा- इसे अच्छी तरह से समझ लो । बिंदु ‘काल‘ अर्थात् टाइम है , शून्य ‘आकाश ‘ अर्थात् स्पेस है और ‘अंक‘ है नित्य, सार्वभौमिक सत्ता। अंक, बिंदु और शून्य पारस्परिक रूप से जुड़कर जिस प्रकार अपने अनन्त आकारों में प्राप्त होते हैं उसी प्रकार  सार्वभौमिक परम आत्मतत्व, देश  और काल के पारस्परिक स्थानान्तर से अपने अनन्त स्वरूप बनाता है जिसे यह ‘सृष्टि’ कहा जाता है। हम उसके अत्यल्प भाग हैं और उसी के सापेक्ष अपना अस्तित्व रखते हैं।

चंदू- परन्तु कुछ दर्शन तो इस ‘जगत या सृष्टि’ को मिथ्या कहते हैं?
बाबा- सार्वभौमिक परमसत्ता परमसत्य है और उनकी यह सृष्टि सापेक्षिक सत्य है।

राजू- तो फिर ‘बिन्दु’ का रोल क्या है?
बाबा- ‘स्पेस और टाइम’ में जकड़ा यह प्रपंच अंततः बिन्दु में ही आश्रय पाता है क्योंकि वही उसका जनक है। इस बिंदु को आज के वैज्ञानिक भी महत्व देते हैं वे कहते हैं कि ‘ब्लेकहोल’ एक बिंदु ही है जिसमें प्रकाश  के कण अर्थात् ‘फोटान’ ही नहीं अंत में सभी गैलेक्सियाॅं और स्पेस तक अवशोषित हो जाते हैं । इस प्रकार ‘बिन्दु ’ को ‘अंक’ की शरण में जाना पड़ता है क्योंकि असली अस्तित्व अर्थात् नित्यत्व तो उसी ‘‘एक’’ का है। स्पष्ट है कि ‘बिंदु और शून्य’ के चंगुल से जो छूूट गया उसे ‘अंक’ प्राप्त हो ही जाता है यह अंक ही परमसत्ता है, परमसत्ता की अंक अर्थात् गोद है। इसी ‘एक‘ को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है।

रवि- आपने संख्या ‘एक’ को अनन्त बार समाहित करने वाली संख्या को "अनन्त" कहा परन्तु यह संख्या ‘एक’ को शून्य से विभाजित करने पर भी तो प्राप्त होती है , यह ‘अनन्त’ क्या भिन्न  या दूसरा "अनन्त" कहा जा सकता है ?
बाबा- चलो, इस समस्या का हल खोजते हैं। यदि अंक और शून्य के विभाजन पर ध्यान दें तो इस प्रकार के विचित्र परिणाम प्राप्त होते  हैंः
जैसे, संख्या 25 में संख्या 1 का भाग दें तो भजनफल 25 होगा परन्तु संख्या 25 को शून्य अर्थात् आकाश से विभाजित करें तो भजनफल होगा  ‘अनन्त‘। संख्या 50 कोे संख्या 1 से भाग दें तो भजनफल 50 होगा परन्तु शून्य से भाग दें तो भी भजनफल ‘‘अनन्त‘‘। संख्या 75 को संख्या 1 से भाग दें तो भजनफल 75 होगा परन्तु शून्य से भाग दें तो भी भजनफल ‘‘‘अनन्त‘‘‘। अब प्रश्न उठता है कि क्या उपरोक्त तीनों स्थितियों में प्राप्त  ‘अनन्त‘, ‘‘अनन्त‘‘ और ‘‘‘अनन्त‘‘‘ एक ही हैं या अलग, क्योंकि जो 25 को शून्य से विभाजित करने पर ‘अनन्त‘ प्राप्त होता है वह 50 को शून्य से विभाजित करने पर प्राप्त ‘‘अनन्त‘‘ से आधा होना चाहिए और 75 को शून्य से विभाजित करने पर प्राप्त होने वाले ‘‘‘अनन्त‘‘‘ से तिहाई होना चाहिए।  अतः अंकगणितीय तर्क से यह तीनों अनन्त एक ही नहीं हो सकते हैं । इसी तर्क के आधार पर असंख्य अनन्त हो सकते हैं जो एक समान नहीं होंगे।
इस जटिलता को वेद में इस प्रकार दूर किया गया है-
‘‘पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।’’ अर्थात् यह भी पूर्ण है और वह भी पूर्ण है। पूर्ण (परमपुरुष) से ही पूर्ण (सृष्ट जगत ) आया है । पूर्ण से यदि पूर्ण निकाल लिया जाय तब भी शेष पूर्ण ही रहता है।यह सगुण भूमा सत्ता अनन्त, वह गुणातीत सत्ता भी अनन्त। उस गुणातीत सत्ता से यह गुणान्वित भूमा सत्ता को अलग करके निकाल देने पर भी जो वियोगफल प्राप्त होगा वह भी अनन्त ही होगा।
मूल बात यही है कि असंख्य अनन्त भी सभी एक नहीं हैं और संख्याओं में कहे गए अनन्त भी सभी एक नहीं हैं। असंख्य सान्त भी सभी एक नहीं हैं और संख्याओं में व्यक्त सान्त तो एक नहीं ही हैं।

Sunday, 19 November 2017

167 बाबा की क्लास (अष्टसिद्धि )

167 बाबा की क्लास (अष्टसिद्धि )

चन्दू- परन्तु अनेक विद्वान तो सिद्धियों के आठ प्रकार मानते हैं, ये मंत्र सिद्धि से भिन्न होती हैं या सभी एक ही हैं ?
बाबा- मंत्र सिद्धि के पूर्व की अवस्थाएं आठ प्रकार की सिद्धियाॅं कहलाती हैं । वास्तव में ये आध्यात्म पथ की धूल मानी जाती हैं और मंत्र सिद्धि में बाधक बनती हैं इसलिए, इनसे सावधान रहने की सलाह दी जाती है।

इन्दु- जब इन्हें सिद्धियाॅं कहा जाता है, तो ये आध्यात्म पथ में बाधा कैसे पहुंचा सकती हैं?
बाबा- इन सिद्धियों के पा जाने पर साधक का अहंकार बढ़ने की पूरी संभावना होती है जिससे वह पथभ्रमित हो जाता है । अपने को महान सिद्ध मानकर जनसामान्य से पूजित किये जाने की इच्छा से घिर जाता है और मूल लक्ष्य से भटक जाता है। इसीलिए साधना के प्रत्येक स्तर पर हर क्षण प्राप्त होने वाली ऊर्जा को परमपुरुष को ही वापस भेंट करते जाने की सलाह गुरुगण देते रहते हैं।

राजू- ये आठ सिद्धियाॅं कौन सी हैं?
बाबा- इनके नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा , प्राप्ति, ईशित्व, वशित्व, प्रकाम्य और अन्तर्यामित्व। ये सभी मिलकर ऐश्वर्य कहलाती हैं । इसीलिए जिसके पास यह सभी होती हैं वह ईश्वर कहलाता है।

इन्दु- ‘‘ अणिमा’’ नामक सिद्धि किस प्रकार की होती है?
बाबा-  इसका अर्थ है अणुओं और परमाणुओं की तरह छोटे से छोटा हो जाने की क्षमता प्राप्त हो जाना। परमपुरुष को विराट कहा जाता है परन्तु वह अणिमा के कारण ही सब के मन की गहरी पर्तों में , हृदय के भीतरी क्षेत्रों में और भाभुकता के नियंत्रक बिन्दु में रहते हैं। जब हम कोई विचार मन में लाते हैं तो वे हमारे एक्टोप्लाज्मिक शरीर में सहानुभूतिक कम्पन उत्पन्न करते हैं, चूंकि वह हमारे मन में इस अणिमा द्वारा वैठे रहते हैं इसलिए प्रत्येक विचार को वे जानते हैं, वही हमारे मन के स्वामी होते हैं। उनसे कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। इसलिए बेकार के विचार मन में कभी नहीं लाना चाहिए । यदि कभी भूल से किसी के संबंध में अनुचित विचार आ जाय तो उसे तुरंत परमपुरुष की ओर प्रवाहित करते हुए कहना चाहिए कि ‘ हे प्रभो ! मेरे माध्यम से तुम्हारी इच्छा पूरी हो।’  साधना की प्रगति होने पर जिसके पास यह सिद्धि आ जाती है वह किसी के भी मन के विचार जान सकता है क्यों कि वह किसी के विचारों की तरंगों के साथ अपनी मानसिक तरंगों को एक समान कर  सकता है।

रवि- ‘ महिमा ’ कैसी होती  है और उसके पा जाने पर क्या होता है?
बाबा- महिमा का अर्थ है विराटता । अर्थात् मन की परिधि को बड़ा बना लेना इतना कि पूरा विश्व उसमें समा जाए। इस सिद्धि के प्राप्त हो जाने पर पुस्तकों के बिना पढ़े भी वह सब कुछ ज्ञान हो जाता है जो  उनमें लिखा हुआ है । इस प्रकार वह व्यक्ति अनेकता में एकता का अनुभव करता है। हमारा इकाई अस्तित्व उन परमपुरुष के विराट अस्तित्व में ही आश्रय पाये हुए है । यदि इकाई मन पानी की बूंद है तो उनका मन महासागर है। इसलिए हमारे मन में उत्पन्न मानसिक तरंगे और प्रत्येक आभास उन्हीं के विराट मन के भीतर होता है। हम सभी उनसे ही सभी दसों दिशाओं से घिर हुए हैं, उनके बाहर कहीं नहीं जा सकते । जब तक हम इस सत्य से अनभिज्ञ रहते हैं तब हमें लगता है कि जो भी हम सोच रहे हैं या कर रहे हैं वह कोई नहीं जानता और जब हमें यह सच्चाई ज्ञात होती है तब तक बहुत देर हो चुकती है। इसके पा जाने पर व्यक्ति में अहंकार की पराकाष्ठा आ जाती है जो  अधोपतन का कारण बनती है।

राजू- ‘तो ‘लघिमा ’ क्या है?
बाबा- लघिमा का अर्थ है सरलता। इससे हमारा  मन सभी प्रकार की जिम्मेवारियों से मुक्त हो जाता है। भौतिक बंधनों से मुक्त और चिन्ता मुक्त इस प्रकार का मन अमूर्त क्षेत्र के किसी भी विचार (चाहे वह सू़क्ष्म हो या जड़ता भरा ) को अच्छी तरह समझ सकता है। आप लोग जानते हैं कि बच्चे जब बीस या तीस वर्ष के हो जाते हैं तो वे बड़े गंभीर हो जाते हैं और अपने से कम आयु के बच्चों के साथ बड़े ही नियंत्रित ढंग से बातचीत करने लगते हैं । जैसे, वे जोर से नहीं हॅसते जितना कि उन्हें स्वभावतः हॅसना चाहिए क्योंकि वे सोचने लगते हैं कि नहीं तो छोटे बच्चे उन्हें तुच्छ समझने लगेंगे। अर्थात् वास्तव में वे गंभीर नहीं होते वरन् वे गंभीर होने का बहाना करते हैं । परन्तु परमपुरुष के संबंध में यह कहा जाता है कि वे छोटे बच्चों की तरह बिलकुल सरल होते हैं। वे सरल होने का बहाना नहीं करते क्योंकि जो सारे ब्रह्माॅंड का बोझ उठाये हैं उन्हें अपने ऊपर और अधिक बोझ बढ़ाने का कोई कारण नहीं दिखता। इस सिद्धि के पाने पर साधक भी छोटे बच्चों जैसा सरल हो जाता है।

इन्दु-  ‘प्राप्ति’ में क्या होता है?
बाबा- यह परमपुरुष का चौथा  एश्वर्य है। इसमें व्यक्ति अपने को और अन्य अनेक लोगों को परमपुरुष की कृपा पाने के लिये सहायता कर सकता है। हम लोग कितनी इच्छायें नहीं करते, पर क्या वे सभी पूरी हो पाती हैं? नहीं। इसके अलावा एक बात यह भी है कि हम जानते ही नहीं हैं कि हमारी वास्तविक आवश्यकताएं क्या हैं। परन्तु परमपुरुष जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की क्या आवश्यकताएं हैं।  उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती परन्तु वे सब कुछ इस संसार को ही देते जाते हैं। जीवों को उनकी उपयुक्त आवश्यकता के अनुसार वे सब कुछ देते जाते हैं। या तो वे इन्हें सीधे ही दे देते हैं या परोक्ष रूप में किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से। वे यह समझा देते हैं कि किस प्रकार से आगे बढ़ें कि उनकी इच्छाएं सरलता से पूरी हो सकें। यदि लोग उनके समझाने के अनुसार नहीं चल पाते हैं तो उनकी इच्छाएं पूरी नहीं होेंगी पर यदि वे सही ढंग से उनके बताये गए रास्ते पर चलते हैं तो उनकी सभी इच्छायें पूरी होती हैं और वे बंधन मुक्त हो जाते हैं । स्पष्ट है कि इस प्रकार की सिद्धि पा जाने पर साधक को किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रहती और यदि होती है तो वह तत्काल पूरी हो जाती है।

चन्दू- और ‘ईशित्व’ का अर्थ क्या है?
बाबा- ‘ईश’ का अर्थ है नियंत्रण करना या  शासन करना। इस सिद्धि से साधक दूसरों के मनोरोगी मन को मार्गदर्शित कर सकता है। परमपुरुष सभी पर नियंत्रण रखते हैं इतना ही नहीं वे कठोरता से शासन करते हुए जो सद् गुणी  व्यक्ति होते हैं उन्हें और अधिक सद् गुणी  बनने की प्रेरणा देते हैं और जो दुष्ट होते हैं, असद् गुणी  होते हैं उन्हें सन्मार्ग पर लाने के अवसर देते हैं। इस प्रकार की क्षमता जिनमें आ जाती है तो कहा जाता है कि उन्हें ईशित्व की उपलब्धि हो गई है। यह भी स्पष्ट है कि जिन्हें अभी बताई गई चारों सिद्धियाॅं प्राप्त हो जाती हैं उन्हें यह ईशित्व सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है।

रवि- ‘वशित्व’ से क्या तात्पर्य है?
बाबा-  इसका अर्थ है सभी कुछ को अपने नियंत्रण में बनाए रखना ।  यह  दूसरों के त्रुटिपूर्ण विचारों भरे मन को परम सत्ता की ओर मोड़ने में सहायता करती  है। जैसे घोड़े को लगाम बाॅंधी जाए तो उस पर नियंत्रण करना सरल  हो जाता है उसी प्रकार इस सिद्धि को पाने पर चर अचर सभी वश में करने की क्षमता आ जाती है और यह अन्य नाम से वशीकार सिद्धि भी कहलाती है। ध्यान रहे जहाॅं ईशित्व शासन करने की क्षमता से संबंधित है वहीं वशित्व सब पर नियंत्रण करने से संबंधित होती है।

रवि- आप ‘प्रकाम्य’ के संबंध में क्या कहेंगे?
बाबा- इसका अर्थ है इच्छामात्र से सब कुछ घटित करने की क्षमता होना। अर्थात् सोचने की सही प्रणाली जो संसार को ज्ञान का नया प्रकाश प्राप्त कराती है। इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त साधक के मन में यदि आता है कि अमुक व्यक्ति की गंभीर बीमारी दूर हो जाए तो वह तत्काल दूर हो जाती है। प्रकृति पर उसका पूरा नियंत्रण होता है। इस संबंध में महाभारत से अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। जैसे, कृष्ण के पास यह सिद्धि थी; जयद्रथ वध के समय उन्होंने चाहा कि सभी लोग अनुभव करें कि सूर्य अस्त हो गया है,  तो सभी ने अनुभव किया कि  सूर्य अस्त हो गया  और जब उन्होंने चाहा कि अब सूर्य दिखाई देने लगे तो तत्काल वह दिखाई देने लगा।

इन्दु- ‘अन्तर्यामित्व’ क्या है? क्या यह ‘अणिमा’ जैसी ही होती है?
बाबा- किसी के मन में परमाणु से भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म सत्ता के रूप में रहते हुए सभी मानसिक क्रियाओं का साक्ष्य देना अन्तर्यामित्व भी कहला सकता है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से कुछ अन्तर है । अन्तर्यामित्व में मन और शरीर के भीतर जाकर वहाॅं होने वाली प्रत्येक और सभी गतिविधियों को जानना भी सम्मिलित होता है।  संक्षेप में कहा जा सकता है कि इससे दूसरों के मन को पढ़ा जा सकता है। केवल शरीर के प्रत्येक अवयव में प्रवेश कर लेना ही पर्याप्त नहीं होता वहाॅं क्या और किस प्रकार घटित हो रहा है यह जानना भी आवश्यक होता है। इसके लिए साधना के साथ साथ परमपुरुष की कृपा  भी आवश्यक होती है। इसलिए अन्तर्यामित्व में लोगों का अधिकतम भला करने के उद्देश्य से उनके मन की चिन्ताएं, मानसिक बीमारियाॅ और उत्सुकताओं को भी जानना आवश्यक होता है। परमपुरुष का यह आठवाॅं ऐश्वर्य कहलाता है। इस प्रकार जिसके पास यह आठों सिद्धियाॅं आ जाती हैं वही ईश्वर कहलाता है।

रवि- आपने कहा था कि साधना मार्ग पर चलते हुए यह सिद्धियाॅं धूल की तरह हमसे चिपकने की कोशिश करती हैं ;  हमें इनसे सावधान रहने की सलाह दी थी ऐसा क्यों ? इनकी सहायता से यदि हम सभी का बहुत भला कर सकते हैं तो इन्हें क्यों न उपलब्ध किया जाए?
बाबा- हाॅं सही कहा था और फिर कहता हूँ  कि इन से दूर रहना ही उचित है। इनके चक्कर में पड़कर अहंकार को जन्म लेते देर नहीं लगती जो अच्छे से अच्छे आत्मनियंत्रित साधक को भी पतन का रास्ता दिखा देता है। इस प्रकार, इनका सदुपयोग करने के स्थान पर दुरुपयोग होने की ही अधिक संभावना होती है। वास्तव में हम यहाॅं बहुत कम समय के लिए आए हैं अतः समय का अधिकतम सदुपयोग करते हुए  हमें अपने लक्ष्य को पा लेने की ओर ही प्रयासरत रहने में भलाई है। इन सभी सिद्धियों के स्वामी परमपुरुष ही हैं और वे ही उनका कब कहाॅं और कैसा उपयोग करना है यह जानते हैं अतः यदि यह हमें अपने मार्ग में आकर प्रलोभन देती भी हैं तो उन्हें परमपुरुष की ओर ही वापस समर्पित कर देना चाहिए।


Thursday, 16 November 2017

166 सत्याश्रयी कम ही होते हैं।

166: सत्य को जानने की इच्छा रखने वाले लोग कम क्यों होते हैं?
हम सबका अनुभव है कि यदि कहीं सात्विक और ज्ञानपूर्ण चर्चा के कार्यक्रम में आप दो सौ व्यक्तियों को आमंत्रित करें तो आप पायेंगे कि अधिकतम साठ लोग ही आये हैं; इनमें से दस या बारह लोग ही पूरे मनोयोग से चर्चा को सुनेंगे और इन श्रोताओं में से भी कुछ ही विषयवस्तु को सही सही समझ पायेंगे। इन थोड़े से समझदार लोगों के समूह में से अल्प ही ऐंसे होंगे जो समझ में आई विषयवस्तु को याद रख पायेंगे और अन्त में शेष रहे इस समूह के मात्र एक या दो ही व्यक्ति वे होंगे जो सुनी और समझी गई विषयवस्तु को आचरण में उतार पायेंगे।
ऐसा , केवल अविद्या और विद्या के द्वारा मन में उत्पन्न किये जा रहे संघर्ष के कारण होता है। इस संघर्ष में अविद्या की विजय होना प्रकट करता है कि आप विद्या के आन्तरिक झुकाव से बाहर की ओर भाग रहे हैं। इसका कारण यह है कि औसत व्यक्ति के मन में पाशविक संस्कार अधिक और सात्विक आन्तरिक संवेग कम होता है। अविद्या की ऐंद्रियगत भावनायें व्यक्ति के विचार प्रवाह में छन्ने का काम करती रहती हैं । सच्चाई की ओर चलने के लिये प्रयासरत प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह प्रक्रिया लम्बे समय से चल रही होती है और बहुत अभ्यास के बाद ही सात्विक विचार मन में स्थायी हो पाते हैं। इसीलिये सत्याश्रयी कम ही होते हैं।

Monday, 13 November 2017

165 बाबा की क्लास ( ऋद्धि और सिद्धि)

165 बाबा की क्लास ( ऋद्धि और सिद्धि)
राजू- अनेक लोगों को यह कहते देखा गया है कि उन्होंने बड़ा ही परोपकार किया है जबकि वास्तव में वह उस स्तर का नहीं पाया जाता जितना कि बताया जाता है?
बाबा- इसे अहंकार कहते हैं। आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ने में यह सबसे बड़ा अवरोधक बनता है। जो इस रहस्य को नहीं जानते वे इस प्रकार के अहंकार में डूबकर अपनी आत्मिक क्षति कर लेते हैं।

इन्दु- तो क्या किसी को परोपकार करना ही नहीं चाहिए?
बाबा- परोपकार तो सदा करना ही चाहिए परन्तु उससे अपने अहं को नहीं जोड़ना चाहिए। परोपकार हमेशा कर्तव्य मानकर ही करना चाहिए।

रवि- लेकिन जब हम किसी का भला करते हैं तो यह भावना तो स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है कि यह कार्य मैं ने किया। इसके अलावा जो उपकृत होता है वह भी सबको यही कहता है कि अमुक ने यह कार्य किया है, इससे अहंकार को और बल मिलता है?
बाबा- आध्यात्मिक साधना करने वाले साधक जानते हैं कि वे अपना हर अच्छा और बुरा कार्य अपने इष्ट को ही अर्पित करते जाते हैं। इस अभ्यास के लगातार करने से सम्पूर्ण समर्पण की भावना स्थायी हो जाती है फिर वह कर्मबंधन में नहीं बंधता है।

रवि- सम्पूर्ण समर्पण का असली रहस्य क्या है? 
बाबा- मनुष्य के जितने भी अहंकार भरे कर्म होते हैं जितने भी ‘मैं’ से जुड़े कार्य और प्रदर्शन होते है। वे सभी दम्भ और दर्प से घिरे होते हैं और ‘मै’ की भावना उत्प्रेरित करते हैं। यह ‘मै’ ही सभी प्रकार के अहंकार का आधार है।  जैसे, जब कोई व्यक्ति बहुत अधिक पढ़ लिख लेता है तो उसका अहंकार बढ़ जाता है। वह अपने इस लघु अस्तित्व को बचाए रखने के लिये इतना सतर्क हो जाता है कि वह परमपुरुष के प्रति समर्पण का भाव लाने में कठिनाई का अनुभव करता है। उसके सामने यदि तर्कसम्मत सिद्धान्त भी रखा जाय तो वह अस्वीकार कर देता है क्योंकि यदि वह स्वीकार करता है तो उसे यह हास्यास्पद लगने लगता है। इस प्रकार का मनोविज्ञान उसे सदा ही विपरीत सलाह देता रहता है। समर्पण करने का तरीका है उन परमपुरुष के ध्यान में अपने ‘‘मैंपन’’ को समर्पित करना और संसार के सभी वाह्य अस्तित्वों में ईश्वरीय भावना को संबद्ध करना।

इन्दु- परन्तु अपने ‘‘मैंपन’’ को समर्पित करने की विधि क्या है?
बाबा- किसी गरीब भूखे व्यक्ति को भोजन कराने पर विचार आ सकते हैं कि यह मैंने बहुत बड़ा काम किया, इस प्रकार का अहंकार मानसिक बीमारी है। अब यदि किसी गरीब या बीमार को मदद करते समय यह भावना मन में लाते हैं कि मैं इस रूप में सामने आए परमपुरुष की मदद कर रहा हॅूं तो इस प्रकार के कर्म से अहंकार उत्पन्न नहीं होगा। इसलिए अहंकार को जीतने के लिए मन में यह प्रतिक्रिया बनाए रखना चाहिए कि ईश्वर ने मुझे जो योग्यता या धन दिया है अब वही इस रूप में उसे लेने आये हैं, मैं उसे वापस कर रहा हॅूं जो उसका असली मालिक है। इस शरीर का भी असली मालिक वह परमपुरुष है इसलिए इसमें स्थित ‘मन’ का भी वही मालिक है, उसे उसकी वस्तु वापस कर रहा हॅूं। इस प्रकार की भावना से अहंकार उत्पन्न नहीं होता।

रवि- आपने अभी बताया है कि परमपुरुष का ध्यान करते हुए ही सब कर्मों को अर्पित करना चाहिए यह कैसे हो सकता है?
बाबा- ध्यान करते समय  सभी लोग परमपुरुष को कर्म अर्थात् ‘आब्जेक्ट’ और अपने को कर्ता अर्थात् ‘सब्जेक्ट’ मानते हैं । इस प्रकार वे अपने को दृष्टा और परमपुरुष को दृश्य मानते हैं। जबकि यह संभव नहीं होता। परन्तु अपनी आन्तरिक आॅंखों से उन परमपुरुष की ओर देखते समय मन में यह भावना होना चाहिए कि ‘मैं उनका ध्यान नहीं कर रहा हॅूं और न ही मानसिक रूप से उन्हें देख रहा हॅूं वरन् , वास्तव में वही मुझे देख रहे हैं। अर्थात् वह मेरे सब्जेक्ट हैं और मैं उनका आब्जेक्ट। इस प्रकार से अहंकार और दम्भ के नागपाश से मुक्त रहा जा सकता है।

चन्दू- यह तो ध्यान के समय की क्रियाएं हुईं , हम तो सामाजिक व्यवहार के समय की बात कर रहे हैं, वहाॅं पर हमारा आचरण कैसा हो जिससे अहंकार से बचा जा सके?
बाबा- सामाजिक व्यवहार में हमें घास के तृणों की तरह अपने को सहनशील बनाकर उन लोगों को भी उतना ही सम्मान देना सीखना चाहिए जिन्हें कोई भी आदर नहीं देता । यह नहीं होना चाहिए कि कोई धन सम्पन्न और समाज में अधिक प्रभावी व्यक्ति के साथ आपका व्यवहार विशेष हो और अपेक्षतया कम प्रभावी साधारण व्यक्ति के साथ साधारण या उपेक्षापूर्ण। तात्पर्य यह कि बिना किसी भेद भाव के सभी के साथ एकसमान आदर भाव रखने पर अहंकार को पनपने का अवसर नहीं मिल पाएगा।

राजू- कुछ लोगों को यह कहते सुना जाता है कि अहंकार रहित योगाभ्यास से सिद्धियाॅं प्राप्त होती हैं,  यह कैसे संभव हैं?
बाबा- परमपुरुष की एक अद्वितीय विशेषता यह है कि जो भी उनका चिंतन करता है वह उनके साथ एक हो जाता है। जीवात्मा परमात्मा हो जाता है। साधक इस प्रकार महान बनने का रहस्य जानता है और यही ‘‘रस साधना’’ का आधारभूत नियम है कि अपनी सभी व्यक्तिगत इच्छाओं /रुचियों को परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर दो । केवल इस प्रकार वह ‘पूर्णता अर्थात् रिद्धि’ और ‘सफलता अर्थात् सिद्धि’ पा सकता है।

रवि- इसमें इष्टमंत्र की क्या भूमिका होती है?
बाबा-प्रत्येक मंत्र का एक लय और स्पंदन होता है । जब इसे इकाई मन, "कास्मिक" प्रणाली के साथ स्पंदित करता है और इस अभ्यास के लगातार करने से जब अपने इकाई स्पंदनों को "कास्मिक " स्पंदनों के साथ अनुनादित करने लगता है तो इसे ‘मंत्र सिद्धि’ कहते हैं। वह व्यक्ति अपने बाह्य भौतिक स्पंदनों के साथ आन्तरिक "एक्टोप्लाज्मिक" स्पंदनों को समानान्तर कर लेता है और अपना आध्यात्मिक स्तर दूसरों की तुलना में ऊंचा उठा लेता है । इस प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम ही ‘‘मंत्र सिद्धि’’ में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए आध्यात्मिक साधना लघुता के बंधनों  को समाप्त करने का प्रयत्न है और सिद्धि अथवा सौंदर्य वह अवस्था है जब यह बंधन समाप्त हो चुकते हैं।

Monday, 6 November 2017

164 बाबा की क्लास (दीर्घायु)

164  बाबा की क्लास (दीर्घायु)

रवि- वेदों का कथन है कि ’’ कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छातम समाः, एवं त्वयी नान्यथेतोष्टि न कर्म लिप्यते नरे। ’’  अर्थात्, जीवन को कर्म में सलग्न रखते हुए सौ साल तक जीने की कामना करना चाहिए’। अतः लोगों की यह धारणा कि प्राचीन काल में मनुष्य सौ वर्ष से अधिक जीते थे , गलत है?
बाबा- तुम्हारा निष्कर्ष बिलकुल सही है। सत्य यही है कि विज्ञान , चिकित्सा विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति से आज लोगों की आयु में पर्याप्त बृध्दि हुई है। सौ साल की आयु प्राप्त करना प्राचीन काल में विरलों को ही संभव होता था इसीलिए वेद में इस प्रकार की प्रार्थना करने को कहा गया है कि अच्छे काम करने के लिए सौ साल तक जीने की कामना करो, बेकार शरीर का बोझ ढोने का क्या फायदा । इस युग में कुछ लोग सौ वर्ष से अधिक जिए हैं परन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं हैं।

राजू- परन्तु , सौ या अधिक वर्ष तक जीने की इच्छा करने का औचित्य क्या है?
बाबा- केवल लंबा जीना ही पर्याप्त नहीं है , महत्व है गरिमापूर्ण जीवन जीने का। मानव जीवन की महत्ता उत्तम और  महान कार्य करने में ही होती है। वास्तव में सभी व्यक्तियों का यह ध्येय होना चाहिए कि वे जितना भी जिएं गरिमामय जीवन जिएं, केंचुए की तरह नहीं। मनुष्यों को अपना जीवनयापन निर्धारित कर्तव्य का पालन करते हुए करना होता है। उनका भौतिक पराक्रम इस बात पर निर्भर करता है कि उनके निवास क्षेत्र की आर्थिक स्थिति कैसी है। क्योंकि, जिस क्षेत्र की सामाजिक आर्थिक स्थिति उन्नत होती है, उन्हें भौतिक पराक्रम कम करना होता है। इसके बदले, उनका मानसिक पराक्रम बढ़ जाता है जो कि प्राकृतिक नियम है। सौ डेड़ सौ साल पहले आज की तुलना में लोगों को अधिक पराक्रम करना पड़ता था।

इन्दु- तो लम्बी आयु पाने के लिए यथार्थ कर्म कौन सा है?
बाबा- आध्याात्मिक साधना करने से  मन शांत और सरल बना रहता है जिससे सभी नाड़ियों  और ग्रंथियों में हारमोन्स का स्राव संतुलन में रहता है। अतः आध्यात्मिक साधना करने से आयु में बृद्धि होती है। वे सात्विक शाकाहारी साधक जो नियमित रूप से आध्यात्मिक साधना करते हुए शुद्ध बिचार रखते हैं और सदाचार में लीन रहते हैं वे नब्बे वर्ष से अधिक जीवित रहते हैं।

राजू- परन्तु देखा गया है कि विवेकानन्द, शंकराचार्य जैसी विभूतियाॅ तो अल्पायु ही हुए हैं?
बाबा- हाॅं विवेकानन्द तो बहुत कम जिये, उसका कारण है अत्यधिक शारीरिक परिश्रम करना। अत्यधिक परिश्रम करने से आयु घटती है। चैतन्य महाप्रभु पचास वर्ष से कम जिये , वे शायद अधिक जी सकते थे परन्तु पूरे भारत में पैदल चलकर उन्होंने अनेक यात्राएं की । यही हाल शंकराचार्य का हुआ उन्होंने भी पूरे भारत में पैदल यात्राएं की अन्यथा शायद वे और अधिक जीवित रहते। इसलिए भव्य जीवन जीने के लिये सात्विक कर्मों के करते हुए क्रियाशील बने रहकर चलते रहना चाहिए, चरैवेति चरैवेति ।

चन्दू- प्रायः यह सुना जाता है कि धरती पर आने के लिए देवता भी तरसते हैं?
बाबा- बात यह है कि जब तक भौतिक शरीर है तभी तक आध्यात्मिक साधना शरीर के माध्यम से की जा सकती है बिना शरीर के नहीं , देवता अदेह होते हैं। इसलिए , जब तक जीवन है तब तक सद्कर्म से जुड़े रहकर आत्मोन्नति के रास्ते पर सक्रिय बने रहने में ही सार है। जब तक मनुष्य जीवित रहता है तब तक उसे अपने मन और आत्मा से शरीर का उपयोग करना चाहिए। आप पूछ सकते हैं कि आत्मा कैसे कार्य कर सकता है? आत्मा का कार्य है आन्तरिक संसार सागर  में अधिक से अधिक गहराई तक डुबकी लगाना। इसके अलावा उसका कोई काम नहीं है। इसलिए मन का कार्य है कि वह लगातार आत्मोन्नति के लिए सद्कर्म करता रहे। इसी प्रकार शरीर भी लगातार पवित्र कामों के लिए प्रयोग में लाना चाहिए क्योंकि, पवित्र काम से जुड़े रहने पर मन में भी अच्छे विचार आते हैं ।  अपवित्र काम करने से मन में सदा ही अपवित्र विचार आते हैं  और, फिर उसके पतन होने में देर नहीं लगती।

रवि- दीर्घायु पाने के लिये भोजन का क्या योगदान है?
बाबा- दीर्घ जीवन के संचालन के लिए पौष्टिक सात्विक भोजन भी आवश्यक है परन्तु हम केवल भोजन के लिए यहाॅं नहीं आए हैं हमें आजीवन अच्छे कर्म में संलग्न रहना है , जीते जीते कर्म करना है मरते मरते कर्म करना है। और, यह कर्म समाज कल्याण के लिये होना चाहिए तभी हम कर्मबंधन से मुक्त हो सकते हैं। कर्म बंधन से मुक्त होने के बाद हमें उनके परिणाम भोगने की आवश्यकता नहीं पड़ती चाहे वे अच्छे हों या बुरे। यदि केवल समाज कल्याण के लिए ही कर्म किये गये हैं तो फिर उनके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः नहीं आना पड़ता।

इन्दु- जब अधिक शारीरिक परीश्रम करने से आयु क्षीण होती है तो फिर इसका वैकल्पिक अभ्यास कौन सा है जो शरीर को तो स्वस्थ रखे ही आयु सहित  आध्यात्मिक रूप से भी लाभदायी हो?
बाबा-  इसके लिये योगासनें सहयोग करती हैं। योगासन वे स्थितियाँ  हैं जिनके होने पर कोई भी व्यक्ति अपने आपको स्थिर और सुविधाजनक अनुभव करता है ‘‘ स्थिरसुखमासनम्’’ । योगासनें एक प्रकार का शारीरिक अभ्यास हैं जिनकेे लगातार करते रहने पर शरीर दृढ़ और स्वस्थ बना रहता है और अनेक बीमारियाॅं दूर हो जाती हैं। परन्तु , समान्यतः योगासनों को बीमारियाॅं दूर करने के लिए नहीं सिखाया जाता क्योंकि विशेष आसन करने से केवल उन बीमारियों को ठीक किया जा सकता है जो साधना करने में बाधा पहुंचाती हैं।

रवि- योगासनों से आध्यात्मिक उन्नति करने में किस प्रकार सहायता मिलती है?
बाबा- मनुष्य के शरीर में अनेक ग्रंथियां और उपग्रन्थियां होती हैं जिनसे पचास प्रकार की ‘‘वृत्तियां’’ अर्थात् प्रोपेंसिटीज, जुड़ी रहती हैं। आधुनिक विज्ञान अभी इनसे अपरिचित है। नियमित रूप से योगासन करते रहने से इन ग्रन्थियों पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है जिससे उनसे जुड़ी वृत्तियों पर नियंत्रण किया जा सकता है और इस प्रकार मन के विचारों और उसके व्यवहार पर भी नियंत्रण पाया जा सकता है। यह योगासन इन ग्रंथियों या उपग्रन्थियों पर या तो दबाव डालती हैं या उन्हें विस्तारित करती हैं। जैसे नियमित रूप से  मयूरासन करने से मणीपूर चक्र से निकलने वाले हरमोन्स पर दबाव पड़ता है अतः इस चक्र से जुड़ी सभी मनोवृत्तियां संतुलित होने लगती हैं। मानलो कोई व्यक्ति जनसभाओं में या समाज के बीच बोलने में डरता है तो अवश्य उसका मनीपूर चक्र कमजोर है अतः यदि वह मयूरासन नियमित रूप से करता है तो यह भयवृत्ति समाप्त हो जाएगी। मन और शरीर का निकटता से संबंध है और मन के द्वारा ही वृत्तियों का उपभोग किया जाता है जबकि वृत्तियाॅं ग्रंथियों से संयुक्त रहती हैं। इसलिए ग्रंथियों से स्रावित होने वाले हारमोन्स यदि अधिक हों या कम हों तो उन ग्रंथियों से सम्बद्ध वृत्तियाॅं उत्तेजित हो जाती हैं। यही कारण होता है कि कुछ लोगों में नैतिक आचरण करने और साधना करने के प्रति सच्ची इच्छा होते हुए भी वे नहीं कर पाते क्योंकि उनका मन किसी न किसी वृत्ति के प्रभाव में आकर बाह्य संसार में भटकने लगता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी इन वृत्तियों की उत्तेजना पर नियंत्रण करना चाहता है तो उसे संबंधित ग्रंथियों के दोष को दूर करना चाहिए और इसमें योगासनें बहुत अधिक सहयोग कर सकती हैं। यही कारण है कि अष्टांग योग में आसन को यम और नियम के बाद तीसरा स्थान प्राप्त है।

Monday, 30 October 2017

163, बाबा की क्लास ( परमपुरुष से क्या मांगें और क्या भेंट करें ? )

163, बाबा की क्लास ( परमपुरुष से क्या मांगें और क्या भेंट करें ? )

इन्दु- कुछ लोगों का कहना है कि हमें परमपुरुष से आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ऊर्जा मांगना चाहिए?
बाबा- परमपुरुष ने सभी व्यक्तियों को मानव शरीर के साथ विवेक और बुद्धि पर्याप्त मात्रा में पहले से ही दे रखे हैं  , इनका अधिकतम उपयोग न कर उनसे कुछ भी मांगना निरर्थक है।

राजू- तो क्या उनसे भौतिक जगत की वस्तुओं, धन संपत्ति को मांगना चाहिए?
बाबा- नहीं, यदि भौतिक जगत की वस्तुओं और उपलब्धियों को मांगते हो तो यह भूल है क्योंकि उसने आपको बुद्धि और विवेक पर्याप्त मात्रा में दिये है इसका उपयोग कर आवश्यकतानुसार वस्तुओं का सदुपयोग करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।

रवि- लेकिन ऊर्जा को मांगने में क्या हर्ज है , वह तो उनकी ओर जाने में सहायता ही करेगी ?
बाबा- जहाॅं तक ऊर्जा के सहायक होने की बात है तो वह तो विद्या और अविद्या के रूप में सदैव ही ब्रह्माॅंड में सक्रिय है, उचित मात्रा में दोनों का उपयोग कर आगे बढ़ने के लिये वह सदैव सहायक ही होती हैं जैसे पृथ्वी पर आगे चलते समय घर्षण बल। याद रखो कि मानव मात्र का लक्ष्य है स्पेस टाइम से मुक्त होकर उसके पास पहुंचना , जिसने स्पेस और टाइम को बनाया है, जिसके नियंत्रण में स्पेस, टाइम, प्रकृति और यह दृश्य  और अदृश्य  प्रपंच सबकुछ है। वहाॅं आकर्षण का सिद्धान्त ही लागू होता है जिससे बंधकर सभी उसी के केन्द्र के चारों ओर घूम रहे हैं और वह सेन्ट्रीपीटल और सेन्ट्रीफ्यूगल रिएक्शन्स  (जिन्हें विद्या और अविद्या कहा गया है) के द्वारा संतुलन बनाये हुए है। इसलिये अपने भीतर भरी हुई ऊर्जा को अनुभव करना चाहिए और शुद्ध  बुद्धि और विवेक का उपयोग कर त्वरित गति से लक्ष्य के केन्द्र की ओर दौड़ पड़ने में ही सार है। समय प्रत्येक क्षण घटता जा रहा है वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, उसे भी निर्धारित नियमों का पालन करना ही होता है। संसार के जितने भी विज्ञान आधारित दर्शन  हैं वे अपने भीतर की ऊर्जा को ही अनुभव करने और लगातार आगे बढ़ने की ही प्रेरणा देते हैं।

चन्दु - कुछ विद्वान कहते हैं कि चूंकि परमपुरुष ने हमें शरीर, बुद्धि, विवेक और ऊर्जा से भरपूर बनाया है इसलिए हमें उनका कर्ज उतारने के  लिए उन्हें कुछ भेंट करना चाहिए?
बाबा- यदि कोई कहे कि उन्हें धन दौलत भेंट करना चाहिए तो यह वैसा ही है जैसे उन्हीं के स्वामित्व की सम्पदा के कुछ भाग को अपना कह कर कर्ज उतारने की बात करना। पर यह बात मान्य है कि हमें कर्ज से मुक्त अवश्य  होना है। वह कर्ज कौनसे हैं? वे हैं पितृ ऋण, देव ऋण,  और ऋषि ऋण। इन सभी से, उन परमपिता की सेवा करने पर ही मुक्त हो सकते हैं।

राजू-  पर प्रश्न  यह है कि वे किसी भौतिक शरीर में तो हैं नहीं फिर किसकी सेवा की जाये और कैसे?
बाबा- इसका उत्तर यह है कि यह ब्रह्माॅंड ही उनका सगुण रूप है जिसमें इलेक्ट्रान जैसे छुद्र कण से लेकर गेलेक्सियों तक सभी जड़ पदार्थ ( जो कि सभी ऊर्जा के घनीभूत रूप ही हैं) और अमीवा से लेकर मनुष्यों तक सभी प्राणी सम्मिलित है, इन्हीं की चार प्रकार से सेवा कर इन सभी ऋणों से मुक्ति पाई जा सकती है । सेवा के वे चार प्रकार हैं विप्रोचित सेवा, क्षत्रियोचित सेवा, वैश्योचित  सेवा और शूद्रोचित सेवा । ध्यान रहे , इसका जाति या वर्ण से कोई संबंध नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति में न्यूनाधिक मात्रा में ये चार प्रकार के गुण होते ही हैं अतः आवश्यकतानुसार इनका निस्वार्थ भाव से उपयोग करते हुए सगुण ब्रह्म के सभी अवयवों की सेवा करने से ही इन ऋणों से मुक्त हुआ जा सकता है अन्यथा नहीं।

इन्दु- पर आपने क्या यह नहीं सुना कि सम्पन्न लोग मंदिरों में मूर्तियों के आभूषण , जैसे मुकुट, जूते चप्पल आदि सोने के बनवाकर भेंट करते हैं, मंदिरों के गुंबद पर सोने के कलश चढ़ाते हैं , कुछ लोग रुपया पैसा भेंट करते हैं, तो यह क्या व्यर्थ है?
बाबा- अभी बताया न, कि जो समस्त ब्रह्मांड का निर्माता है, वह उसका स्वामी भी है तो उसके स्वामित्व की कोई भी कीमती वस्तु अपनी मानकर उसे भेंट करते हो तो उसके किस काम की है ? वह, भेंट करने वाले के हृदय में उनके प्रति कितना प्रेम है इसका मूल्यांकन करते हैं न कि वैभव का। उनके लिए तुम्हारे मूल्यवान हीरे और सोने चांदी की वस्तुओं का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में इस धन सम्पदा को उन्हें देकर मदद करना चाहिए जिन्हें इनकी सचमुच आवश्यकता है। भोजन उन्हें दो जो भूखे हों, धन उन्हें दो जो धन के अभाव में अपनी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर पा रहे हैं, वस्त्र उन्हें दो जो वस्त्रों के अभाव में शारीरिक कष्ट पा रहे हैं, ज्ञान सभी को बाॅंटो ताकि सभी सन्मार्ग पर चल सके, रक्षा उनकी करो जो निर्बल हैं, आदि। इसे ही नारायण सेवा कहते हैं, यही चारों प्रकार की सेवा करने का अन्तिम स्वरूप है।

रवि- वह परमपुरुष, किसे प्राथमिकता से चाहते हैं , बहुत पढ़े लिखे अनेक विषयों के ज्ञाता को या निरक्षरों को , बहुत बड़े पदों पर कार्यरत अधिकारियों को या बहुत सुन्दर रूप और आकर्षक शरीरवालों को?
बाबा- उनके लिए उनकी रचना के छोटे बड़े सभी अस्तित्व एक समान हैं, वे सभी को अपनी ओर आने का समान अवसर देते हैं । उनके लिये महामहोपाध्याय और निरक्षर भट्टाचार्य दोनों  ही एक समान प्रिय होते हैं । वे उनसे अधिक प्रसन्न होते हैं जिसका भक्तिभाव अर्थात् उनके प्रति निस्प्रह प्रेम अधिक होता है।

इन्दु- तो क्या पढ़लिख कर अधिक ज्ञान प्राप्त करना बेकार होता है?
बाबा- ज्ञान प्राप्त करना अच्छा है परन्तु ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण न करना, ज्ञान का दुरुपयोग करना, ज्ञान के अहंकार में डूबकर ईश्वरीय रास्ते से भटक जाना, बुरा है। ज्ञान पाकर यदि ईश्वर को पाने की इच्छा जागृत नहीं हुई तो वह ज्ञान व्यर्थ ही है।

चन्दू- वे  लोग जो रोज पूजा पाठ करते हैं,  भक्ति करते हैं , भजन करते हैं , चंदन लगाते हैं, सामान्य लोगों से भिन्न वस्त्र पहिनते हैं,  क्या ईश्वर उनसे प्रसन्न नहीं होते?
बाबा- ईश्वर उनसे प्रसन्न होते हैं जो उन्हें चाहते हैं, उन्हें पाने का प्रयत्न करते हैं। दुख ये है कि अधिकांश तथाकथित भक्त ईश्वर को चाहने या उन्हें पाने के स्थान पर उनसे धन , वैभव, पद , प्रतिष्ठा मांगते हैं।  या, चाहते हैं कि उनके शत्रुओं का नाश हो, सरकारी नौकरी मिल जाय, बेटी का विवाह अच्छे घर में हो जाय और सभी संकट दूर हो जाएं ।  उनकी पूजा पाठ और सभी कर्मकांड की क्रियायें इन्हीं को पाने की दिशा में होती हैं, वे ईश्वर को पाने की कोई चेष्टा नहीं करते।

राजू- हाॅं , ये बात तो बिल्कुल सही है, लोगों को यही चीजें मांगते हुए प्रार्थना करते मंदिरों में देखा जाता है। परन्तु आपके अनुसार एक सच्चे  भक्त को ईश्वर से क्या और कैसे मांगना चाहिए और क्या देना चाहिए?
बाबा- सच्चा भक्त प्रतिदिन उनसे केवल पराभक्ति अर्थात् उनसे प्रेम करने की उच्चतम विधियां मांगता है और अपने मन के सभी रंग अर्थात् अच्छे बुरे सभी कर्म और उनके कर्मफलों से जुड़े सभी संस्कार उन्हें भेंट करता है। परमपुरुष का एक सच्चा भक्त कहता है कि हे ब्रह्मांड के निर्माता और नियंत्रक ! तुम्हारा यह घर तो बहुमूल्य रत्नों से भरा है। सभी कुछ तुम्हारा ही है और तुम्हारी पत्नी "महामाया " क्षण भर में वह सब कुछ लाकर तुम्हें दे देती है जिसकी तुम इच्छा करते हो। तो, मुझ जैसा गरीब व्यक्ति तुम्हें क्या दे सकता है? कुछ नहीं। तुम्हारे पास किसी चीज की कमी है ही नहीं , परन्तु मैं ने सुना है कि जो तुम्हारे बड़े बड़े भक्त हैं उन्होंने अपनी प्रेमाभक्ति में बाॅंध कर  तुम्हारे ‘मन’ को अपने पास ही खींच लिया है। इस प्रकार तुम्हारे पास ‘मन’ की कमी पड़ गई है, पर तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं, मैं तुम्हारा इतना बड़ा भक्त तो नहीं हॅू पर मैं चाहता हूँ  कि तुम मेरा ‘मन’ ले लो। मैं अपने ‘मन’ को तुम्हें भेंट करता हॅूं उसे स्वीकार कर तुम मुझे ‘‘अमन’’ कर दो, कृतार्थ कर दो । तव द्रव्यं जगद् गुरो  तुभ्यमेव समर्पये, निवेदयामी च आत्मानम् त्वं गतिः परमेश्वरा।

Friday, 27 October 2017

162 बड़ा आदमी

162 बड़ा आदमी

‘‘ पापा ! मेरी क्लास में पढ़ने वाला राजू कह रहा था कि उसके पास कई कारें , मकान , जमीन और बहुत धन दौलत है, उसके पापा बहुत बड़े आदमी हैं। ये बड़ा आदमी क्या होता है? ‘‘

‘‘ उसके पापा धनी कहे जा सकते हैं पर बड़े आदमी नहीं।‘‘

‘‘ क्यों ? क्या उनकी लम्बाई कम है ?‘‘

‘‘ नहीं, आदमी धन दौलत या लम्बाई के अधिक होने से बड़ा नहीं होता।‘‘

‘‘तो फिर कैसा होता है ?‘‘

‘‘ वह, स्वयं तो बड़ा होता ही है अपने सम्पर्क में आने वालों को भी बड़ा बना देता है।‘‘

161 छठपूजा

161  छठपूजा 
पूर्वकाल में मगध में बहुत घने जंगल थे इसलिये वहाॅं प्रचुर वर्षा भी होती थी तथा वहाॅं कभी सिंचाई की आवश्यकता ही नहीं होती थी। आर्यों के भारत में आने के पहले मगध के निवासियों का यह विश्वास था कि वहाॅं होने वाली वर्षा सूर्य देवता की कृपा से होती है। इसप्रकार वे अपने प्राचीन रीति रिवाजों के अनुसार सूर्य की पूजा करने लगे। यह पूजा साल में दो बार की जाने लगी एक बार शरद ऋ़तु में धान की फसल आने पर और दूसरी बार बसन्त ऋतु में गेहॅूं की फसल आने पर। 

यही पूजा आजकल वहाॅं छठपूजा के  नाम से जानी जाती है। यह पूजा आर्यों के नियमानुकूल नहीं होती थी। यह तो पूर्णतः स्थानीय मगध के निवासियों के द्वारा बनाई गई थी। मगध के लोगों ने आर्यों के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया न ही उनके द्वारा निर्धारित की गई पूजा की विधियों को अपनाया। यही कारण है कि आर्यों ने इस धरती को ‘मगध‘ नाम दिया जिसका अर्थ है वेद विरोधी विचारधारा का पालन और प्रसार करने वालों की भूमि।

वे लोग मगध से डरते थे इसलिये उसे आदर की दृष्टि से देखते थे परन्तु अपनी इस कमी को मन से दूर रखने के लिये उन्होंने  इसे अपवित्र भूमि घोषित कर दिया था। उन्होंने इतना तक प्रचार कर रखा था कि यदि कोई मगध की भूमि में मरता है तो उसे स्वर्ग नहीं मिलता है। उन्होंने  अपनी भाषा, सभ्यता और संस्कृति को बल पूर्वक वहाॅं थोपने का प्रयास किया। यह इतिहासज्ञों और सामाजिक विज्ञानियों का काम है कि वे खोज करें कि आर्य लोग अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में यहाॅं पर कितने सफल हो सके।

मगध ने आर्य सभ्यता को नहीं अपनाया। प्राचीन काल में मगध में जाति और वर्ग भेद नहीं था। बहुत बाद में आर्यो के प्रभाव से यह यहाॅं आया। इस जाति पृथा के आ जाने के बाद भी क्रोंचद्वीपी और मगध के श्रोत्रिय ब्राह्मणों ने इसे नहीं माना यही कारण है कि उत्तर भारतीय ब्राह्मणों ने इन्हें मान्यता नहीं दी।

160 संस्कार का सिद्धान्त

160 संस्कार का सिद्धान्त
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कर्म अच्छा हो या बुरा उसके कारण मन पर विरूपण उत्पन्न होता है और जब वह अपनी मूल अवस्था में लौटता है तो प्रतिक्रिया के फलस्वरूप अच्छे कामों का अच्छा और बुरे कामों का बुरा परिणाम भोगता है।
मुत्यु के बाद मन इकाई चेतना का आश्रय लेता है जहाॅं पर प्रतिक्रियात्मक यह विरूपण, अपने पोटेंशियल रूप में अर्थात् सुप्तावस्था में रहता है, इन्हें ही संस्कार कहते हैं। इकाई चेतना को इन संस्कारों को प्रकट करने अर्थात् भोग करने के लिए ही दूसरा शरीर ग्रहण करना होता है।
मानलो मिस्टर 'ए' के मरने के बाद उनकी इकाई चेतना में कर्मफल के रूपमें सुप्त संस्कार के अनुसार आठ साल की आयु में हाथ टूूटने के बराबर कष्ट भोगना है और दस वर्ष की आयु में भाग्योदय का सुख भोगना है और ग्यारह वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु का कष्ट भोगना है तो, उन्हें यह सब अपने मन के विरूपण को समाप्त करते करते मूल अवस्था में लाते हुए अनुभव करना होगा। यह भी महत्वपूर्ण है कि किसी कष्ट के लिये वास्तविक रूप को पहले से नहीं बताया जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसी विशेष क्रिया की वास्तव में क्या प्रतिक्रिया होगी। 

जैसे , यह पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता कि किसी ने चोरी की है तो प्रतिक्रिया के कारण उतने ही मूल्य की उसकी भी चोरी होगी। वास्तव में प्रतिक्रिया में होने वाला कष्ट मानसिक कष्ट के अनुसार घटित होता है, जैसे किसी की चोरी करने से उसको जितना मानसिक कष्ट हुआ है उतना ही मानसिक कष्ट चोरी करने वाले को प्रतिक्रिया में भोगना पड़ता है। 
इसलिए कर्मफल को मानसिक कष्ट या सुख के अनुसार भोगना पड़ता है और अनुभव का वास्तविक स्वरूप अपेक्षतया महत्वहीन होता है। इसलिये मिस्टर 'ए' को प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मानसिक कष्ट या सुख अनुभव कराने के लिए उनकी इकाई चेतना उन परिस्थितियों को खोजकर वहाॅं ही उन्हें नया जन्म देकर नया शरीर दिलाएगी जहाॅं पर पिता के संस्कारों के अनुसार उसके पुत्र की ग्यारह वर्ष आयु होने पर मृत्यु हो जाएगी, आठ साल की आयु में पुत्र का हाथ टूटेगा आदि, और उन्हें इसका मानसिक कष्ट भोगना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो वे अपना कर्मफल नहीं भोग पाऐंगे। 

अतः स्पष्ट है कि इकाई चेतना और कर्मफल बिना सोचेसमझे किसी भी शरीर में पुनर्जन्म नहीं ले लेते। उसे संस्कार भोगने के लिए पुनर्जन्म लेने हेतु उचित शरीर और कर्मफल भोगने के उचित क्षेत्र तलाशना होता है।

Sunday, 22 October 2017

159, बाबा की क्लास ( ध्यान किसका ? )

159, बाबा की क्लास ( ध्यान किसका ? )

राजू- जब परमसत्ता एक ही है तो आप उन्हें कभी परमपुरुष, कभी पुरुषोत्तम, कभी तारकब्रह्म और कभी महासम्भूति कहते हैं, क्या इनमें कुछ अन्तर है या केवल शाब्दिक श्रंगार?
बाबा- यह बात तो बिलकुल सत्य है कि परमसत्ता एक ही है इसीलिए उन्हें ‘एकमेव अद्वितीयम’ कहा जाता है। यह तो दार्शनिकों का विश्लेषण है जो उन्हें अनेक नाम दे डालता है।

रवि- लेकिन इससे तो जनसामान्य के मन में बड़ा भ्रम पैदा हो जाता है, वे अलग अलग नामों को लेकर ही उलझते देखे गए हैं?
बाबा- बात यह है कि दार्शनिक तथ्यों को सभी लोग वैसा ही नहीं समझ पाते जैसा दार्शनिक सिद्धान्त यथार्थ में होता है। इसलिए, विद्वान उसके सरल भाव को अपने अपने ढंग से समझाने का प्रयास करते हैं । इस प्रयास में शब्दजाल इतना उलझ जाता है कि वे न तो पूरी तरह समझा पाते हैं और न ही समझने वाले पूरी तरह समझ पाते हैं। इसलिए याद रखना ‘‘एको सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’’ अर्थात् सत्य केवल एक ही है विद्वान लोग उसकी अनेक प्रकार से व्याख्या करते रहते हैं ।

इन्दु- तो यह मान लिया जाय कि राजू ने जो विभिन्न नाम कहे हैं उनमें कोई अन्तर नहीं है?
बाबा- मौलिक रूप में अन्तर नहीं है परन्तु, दार्शनिक आधार पर उनमें बड़ा ही सूक्ष्म अन्तर है। वह एकमेव, अपनी निर्गुणावस्था में प्रकृति को अपने आधीन कर परमानन्दित रहते हैं तब उन्हें ‘‘परमब्रह्म’’ कहा जाता है। जब प्रकृति उन्हें अपने प्रभाव में लेने लगती है तो उनके मन के कुछ भाग में एक से अनेक होने का विचार आता है इस विचाराधीन अवस्था में वे ‘‘परमपुरुष’’ (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं। जब उनके विचार को कार्य रूप देने के लिए उनकी प्रकृति यह सृष्टिचक्र रचती है तब उसके साक्षी  और नियंत्रणकर्ता रूप में उनका दार्शनिक नाम ‘‘पुरुषोत्तम’’ कहलाता है। सृष्टिचक्र के निर्माण होने पर उनके मन की विचार तरंगें आकार पाने लगती हैं जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में निर्माण, पालन और संहार को साथ लेकर चलती रहती हैं इसे ही उनका 'सगुण रूप' कहते हैं । प्रतिसंचर की गति में जब मनुष्य स्तर पर आकर वे प्रकृति के प्रपंच में भ्रमित होने लगते हैं और अग्रगति में मंदन या अवरोध उत्पन्न होने लगता है तब वही उचित मार्गदर्शन देने के लिए मनुष्य रूप में आकर गुरुत्व सम्हालते हैं और ‘‘महासम्भूति ’’ (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं। महासम्भूति अपने निर्धारित कार्यक्रम को सम्पन्न करते समय और उसके बाद भी जीवों और पुरुषोत्तम के बीच पुल का काम करते हैं जिससे मुमुक्षुगण अपने मूल स्वरूप को पा सकें । इस अवस्था में वे "तारकब्रह्म" (दार्शनिक नाम)  कहलाते हैं।

चन्दू- तो ‘ ब्रह्मा ’, ‘ विष्णु ’ और ‘ महेश ’ का स्तर क्या है ?
बाबा- ये सभी सृष्टिचक्र की विभिन्न तरंगों को विधिवत चलाए रखने के लिए उन्हीं की क्रमागत अवस्थाओं के दार्शनिक नाम हैं। तुम लोग जानते हो कि निर्माण का बीजमंत्र है ‘अ’ इसलिए ब्रह्म जब प्रकृति के माध्यम से निर्माण कार्य करते हैं तब ‘ब्रह्म’ + ‘अ’ = ‘‘ब्रह्मा’’ कहलाते हैं । अब निर्मित वस्तु को बनाए रखने अर्थात् पालन करने का कार्य आता है जो सृष्ट जगत के प्रत्येक अणु से जुड़ा होता है इसलिए जगत का पालन करने के समय वही ‘विष्णु’ कहलाते हैं जो प्रत्येक अणु में व्याप्त होकर यह कार्य करते हैं। जगत का अर्थ है जो गतिशील है अतः जब वही परमसत्ता प्रत्येक निर्माण को अपने मूल स्थान तक पहुचाने का कार्य करते हैं तब ‘महेश’ कहलाते हैं। इसी निर्माण, पालन और संहार के द्वारा ‘‘सगुण ब्रह्म’’ अपने आप में रूपान्तरण करते रहते हैं और सृष्टिचक्र चलता रहता है।

रवि- इन नामों की झंझट तो दूर हुई, पर आपने अनेक बार कहा है कि हमें ‘परमपुरुष’ का ध्यान करना चाहिए क्योंकि वही एकमात्र ध्येय हैं। अभी आपने बताया कि परमपुरुष तो निर्गुण अर्थात् आकारहीन हैं तो उनका ध्यान कैसे कर सकते हैं, यह तो संभव ही नहीं है?
बाबा- तुम्हारा कहना सही है, निराकार का ध्यान करना संभव नहीं है इसलिए ध्यान तो हम ‘सगुण ब्रह्म’ का ही करते हैं जो कि ‘‘सद् गुरु ’’ के रूप में हमारे ही समान आकार प्रकार के होते हैं और ‘महासम्भूति’ कहलाते हैं। हम उन्हें ही पहचान सकते हैं अन्य किसी को नहीं। मानव सभ्यता के इतिहास में अब तक भगवान सदाशिव और भगवान श्रीकृष्ण ही ‘‘जगद् गुरु , महासम्भूति और तारकब्रह्म’’ का स्तर पा सके हैं क्योंकि वे ‘महाकौल’ हैं अर्थात् वे दूसरों को कौलगुरु बनाने की योग्यता रखते हैं।

राजू- जब सद् गुरु  ही महासम्भूति और तारकब्रह्म होते हैं तो उनका ही ध्यान करना उचित लगता है परन्तु हम कैसे पहचानेंगे कि ये सद् गुरु  हैं या नहीं, क्योंकि गुरुओं की तो भरमार है?
बाबा- जब किसी के मन में उनके पाने की चाह तीब्र हो उठती है तो आध्यात्मिक खिचाव से वे स्वयं पास आते हैं । वे ‘पुरश्चरण की क्रिया’ में प्रवीण होते हैं अर्थात् वे प्रत्येक के भीतर स्थित मूल ऋणात्मिका (फंडामेंटल नेगेटिविटी) को पहचान कर उसे अपनी इच्छा से जागृत कर सकते हैं और मूल धनात्मिका (फंडामेंटल पाजीटिविटी) अर्थात् परमशिव से संयुक्त कराकर आत्मसाक्षात्कार कराने की योग्यता रखते हैं।  वे अपने सभी संस्कार तो क्षय कर ही चुके होते हैं दूसरों के संस्कार क्षय करने के लिए उन्हें उनका बीजमंत्र देने की क्षमता भी रखते हैं। वे निर्पेक्ष होते हैं परन्तु बीजमंत्र देने के बाद खोजखबर भी रखते हैं कि संबंधित व्यक्ति बताई गई विधियों से सही रास्ते पर चल रहा है या नहीं । गलत होने पर फिर से सुधार कराते हैं, डांटते फटकारते भी हैं परन्तु , इससे भी अधिक प्रेम भी करते हैं । इस प्रकार के गुरु ‘कौलगुरु’ कहलाते हैं, वे स्वयं तो महान होते ही हैं और साधक के प्रसुप्त देवत्व को जगाकर उसे भी महान बना देते हैं। वे अपनी महानता का प्रचार प्रसार नहीं करते और न ही किसी से कोई चाह रखते हैं । वे साधारण दिखाई देते हैं और समग्र ब्रह्मांड के मालिक होते हुए भी सामाजिक नियमों का स्वयं पालन करते हैं और अन्यों को भी उनका पालन कराते हैं। वे शुद्ध और निष्कलंक होते हैं, उनका प्रत्येक कार्य और व्यवहार अनुकरणीय होता है। जो एक बार उनके संपर्क में आ जाता है उनसे दूर नहीं जाना चाहता। इसलिए जब वे उससे दूर होते हैं तो वह सदा ही उन्हीं का स्मरण और चिन्तन करता है जो कि ध्यान का ही रूप है।

इन्दु- आपने एक बार कहा कहा था कि गुरु ही ‘परमब्रह्म’ हैं, तो क्या इसी प्रकार के गुरु के बारे में कहा था?
बाबा- हाॅं, कौलगुरु ही सद् गुरु  होते हैं और निश्चय ही वे परमब्रह्म से साक्षात्कार कर चुके होते हैं, उनका अपना कोई संस्कार भोगने के लिए शेष नहीं रहता। वे केवल, उत्कट जिज्ञासुओं पर कृपा करने के लिए ही अपना शरीर धारण किए रहते हैं अपना संकल्प पूरा होते ही वे अपनी भौतिक देह का त्याग कर देते हैं परन्तु जैसा अभी बताया गया है वे तारक ब्रह्म के रूप में सदैव ही रहते हैं और आवश्यक होने पर अपने भक्तों को मार्गदर्शन देने के लिए उसी रूप में या अन्य प्रकार से आने की कृपा करते रहते हैं। उनकी कृपा की कोई सीमा नहीं होती।

चन्दु- इसका अर्थ है कि कौलगुरु का आकार अर्थात् सगुण रूप देखे बिना उनका ध्यान किया ही नहीं जा सकता?
बाबा- निश्चित रूप से यही बात सही है, इसलिए उन्हें पाने की तीब्र इच्छा मन में होना चाहिए ताकि उनसे उपयुक्त बीजमंत्र प्राप्त किया जा सके । फिर, यह उनका कर्तव्य हो जाता है कि जब तक अपने भक्त को अपने जैसा न बना लें तब तक उन्हें देखरेख करना ही होगी अतः कभी भी आध्यात्मिक समस्या के आने पर उन्हें हल करने के लिए पास में आना ही पड़ेगा चाहे उसका प्रकार कोई भी हो। इसलिए उनके केवल आकार को देखते हुए उन पर सोचने को ध्यान नहीं कहते वरन् ध्यान वह है जिसमें हम प्रत्येक क्षण उनकी उपस्थिति का अनुभव करते हुए यह सोचते हैं कि वह हमारी प्रत्येक गतिविधि को लगातार देख रहे हैं। हमें उनकी कृपा प्राप्त करने की ही चाह रखना चाहिए अन्य कुछ नहीं, क्योंकि "सद् गुरु  कृपा ही केवलम " ।

नन्दू- जब उनकी कृपा से ही सब कुछ होना है तो हमारे किसी भी प्रयास के करने का क्या महत्व है?
बाबा- हमारा प्रत्येक कार्य उनकी कृपा पाने की योग्यता प्राप्त करने के लिए ही होना चाहिए।

Tuesday, 17 October 2017

158 पात्र नाट्यमंच के

158
पात्र , नाट्यमंच के !

यह दैवयोग ही था कि दुर्योधन अधर्मी, दुष्ट और क्रूरता का पर्याय और इन सभी गुणों से विपरीत कर्ण सात्विक, धार्मिक और दयालुता की पराकाष्ठा होते हुए भी दोनों की घनिष्ट मित्रता आजीवन रही । कर्ण का, सदा ही यह प्रयास होता था कि किसी प्रकार दुर्योधन अपने असात्विक कार्य छोड़कर सन्मार्ग की ओर आ जाए। इसलिए, एक बार दुर्योधन को अत्यन्त प्रसन्न देख उसने कहा,

‘‘ मित्र ! सभी लोग तुम्हें अच्छा नहीं कहते, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम क्यों नहीं सदाचरण और धर्मानुकूल कार्य करते हुए लोगों का मन जीत लेते ? इस प्रकार तुम्हारी यशकीर्ति युगों तक पूजित बनी रहेगी ।"

 ‘‘ मित्र कर्ण ! मैं स्वयं आश्चर्यचकित हूँ  कि मुझे सभी लोग दुष्ट, अनाचारी, अधार्मिक और न जाने क्या क्या कहते हैं, परन्तु मैं यह समझ ही नहीं पाता कि मेरा क्या दोष है ।’’

 ‘‘ मित्र दुर्योधन ! धर्म का पालन करते हुए निवृत्ति मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर दो ।’’

‘‘ मित्र कर्ण ! मैं न तो धर्म जानता हॅूं और न ही अधर्म, न ही प्रवृत्ति जानता हॅूं न निवृत्ति। मैं तो केवल यह जानता हॅूं कि मेरे हृदय में कोई देवता बैठा है , वह मुझसे जो कुछ कहता है मैं वही करने के लिये विवश हो जाता हॅूं ।‘‘

Sunday, 15 October 2017

157, बाबा की क्लास ( ईश्वर को देखना )

157, बाबा की क्लास ( ईश्वर को देखना )

रवि- जब हम समाज में ईश्वर की चर्चा करते हैं, तो अनेक लोगों को यह कहते सुना जाता है कि क्या किसी ने ईश्वर को देखा है? उन्हें क्या कहें?
बाबा- यह प्रश्न तभी उठता है जब हम यह मान लेते हैं कि ईश्वर से हम अलग हैं। उपनिषदें  कहती हैं कि यह सब दृश्य जगत एक ही परमसत्ता अर्थात् ईश्वर का सगुण रूप है। इसमें वह सब कुछ जो हमें दिखाई देता है और नहीं भी दिखाई देता, सम्मिलित हैं अर्थात् इसी में हम सब भी आ जाते हैं। इस प्रकार यह सब कुछ उनके मन की रचना ही है और उनके मन के भीतर ही स्थित है। उनके मन के बाहर कुछ भी नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि वह हमारे कर्ता और हम उनके कर्म हैं और वे हमें लगातार देख रहे हैं। हमसे और सबसे वह ओत और प्रोत योग से जुड़े हैं। इस तरह एक कर्म अपने कर्ता को भौतिक स्तर पर कैसे देख सकता है।

राजू- यह शब्दावली कुछ कठिन सी लग रही है, किसी अन्य प्रकार से समझाइए न ?
बाबा- वैज्ञानिक भाषा में यह सभी दृश्य और अदृश्य संसार उस परम सत्ता के परम मन की विचार तरंगे है जिनमें से एक अत्यंत क्षुद्रतरंग, हम लोग हैं।  इसलिए कोई एक तरंग, अपने ‘उद्गम श्रोत’ से जुड़े होने का अनुभव तो कर सकती है परन्तु भौतिक रूप से देख नहीं सकती क्यों कि वह भौतिक जगत का विषय नहीं है । उसे मानसिक रूप से  ही व्यक्तिगत स्तर पर मानसिक तरंगे भेज कर उनके परम मन के साथ अनुनादित किया जा सकता है। जिसने उनसे अनुनाद कर लिया वह उन्हें अपने भौतिक जगत की किसी भी भाषा में व्यक्त नहीं कर पाता ।

इन्दु- ऐसा क्यों है कि उसे भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता?
बाबा-  हमारे मन की प्रकृति यह है कि वह भौतिक जगत की वस्तुओं जैसे धन, पद, प्रतिष्ठा या नाते रिश्तेदारों को ही चाहता है उन्हें ही प्रेम करता है । परमपुरुष ने अपनी विचार तरंगों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण का गुण भर दिया है जिससे सब भौतिक जगत की ओर आकर्षित होकर उसी को चाहते हैं। स्पष्ट है कि जो मानसिक जगत का सृष्टा हो उसे मानसिक स्तर पर ही चाहा जा सकता है उससे मानसिक स्तर पर ही आकर्षित हुआ जा सकता है और मानसिक स्तर पर ही प्रेम किया जा सकता है जो हम नहीं करते, इसलिए हम उसे देख भी नहीं पाते और उसके विषय में कुछ कह भी नहीं पाते। जो उन्हें पाना चाहते हैं उन्हें उनसे मानसिक स्तर पर ही जुड़ना होगा। यह मानसिक रूप से जुड़ने की क्रिया ही साधना कहलाती है और अष्टाॅंग योग की साधना सर्वोत्तम है।

चन्दू- कुछ विद्वान कहते हैं कि वह परमसत्ता केवल श्रद्धा से ही समझ में आ सकती है?
बाबा- विश्वास  और समर्पण के संयुक्त भाव को श्रद्धा कहते हैं, अंग्रेजी में इसका कोई शब्द नहीं है। जीवन का जो कुछ भी मूलाधार है वह सत कहलाता है और जब सभी ज्ञान और भावनायें इसी को प्राप्त करने के लिये चेष्टा करने लगती हैं तो यह ‘श्रत‘ कहलाता है, और इससे जुड़ी भावना को श्रद्धा कहते हैं। ‘‘श्रत् सत्यम तस्मिन धीयते या सा श्रद्धा’’। इसलिए श्रद्धावान अवश्य ही यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।

राजू- एक बार आपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ सूत्र बताए थे उन्हें हम भूल चुके हैं, वे क्या हैं फिर से बताइए?
बाबा- सबसे पहला सूत्र है कि, ‘‘ यह विश्वास होना कि मैं अपने लक्ष्य की प्राप्ति करूंगा ही ’’ दूसरा सूत्र है, ‘‘श्रद्धायुक्त होना‘‘ तीसरा सूत्र है, ‘‘ गुरुपूजनम’’ अर्थात् गुरु के निर्देशों का पालन करना। चौथा  सूत्र है,  ‘‘ समता भाव होना’’ पाॅंचवां सूत्र है, ‘‘प्रमिताहार’’ अर्थात् संतुलित सात्विक भोजन करना, छठवां सूत्र है, इंद्रियों पर नियंत्रण रखना, बस यही छः  सूत्र है इनके अलावा कुछ नहीं है।

इन्दु- कुछ लोग कहते हैं कि अपने धर्म का पालन करते रहो बस, इसके अलावा कुछ नहीं ?
बाबा- हाॅं, हर स्थति में धर्म का पालन करना चाहिये। परन्तु पहले यह समझ लेना  चाहिए कि आखिर हमारा धर्म है क्या ? ‘मानव धर्म’ के चार अंग हैं विस्तार, रस, ,सेवा और तद्स्थिति अर्थात् परमात्मा में लय। प्रथम तीन के संयुक्त प्रभाव से ही चौथा  स्तर प्राप्त हो सकता है। धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म होती है अतः जगत के कल्याण के लिये कार्य करते हुए अपने आपको मुक्ति के रास्ते पर चलाने की अभ्यास करने का नाम साधना करना  है जो प्रत्येक मानव का धर्म है क्योंकि इसी से परमात्मा प्राप्त होते हैं।

Sunday, 8 October 2017

156, बाबा की क्लास ( जय, विजय, और उत्सव )

156, बाबा की क्लास ( जय, विजय, और उत्सव )

इन्दु- आपने बताया है कि यह जीवन और कुछ नहीं अपने छः प्रकार के शत्रुओं और आठ प्रकार के बंधनों के विरुद्ध अथक संघर्ष है, तो क्या यह संघर्ष जीवन में कभी समाप्त नहीं होता?
बाबा- होता है, एक अस्थायी रूप से दूसरा स्थायी रूप से।

चन्दू- इनका अर्थ क्या है?
बाबा- संस्कृत में एक को ‘जय’ और दूसरे को ‘विजय’ कहते हैं।

इन्दु- तो यह जय और विजय क्या हैं?
बाबा- जब हम अपने आन्तरिक अथवा बाह्य शत्रुओं से संघर्ष करते हैं और उन्हें हरा देते हैं तो ‘जयी’ कहलाते हैं क्योंकि वह शत्रु अवसर पाकर हम पर फिर से आक्रमण कर सकते हैं, अतः ‘जय ’ को अस्थायी कहा गया है। जैसे अभ्यास करते हुए क्रोध पर नियंत्रण पा लिया परन्तु अभ्यास के कमजोर होने या परिस्थितियों के दबाव से वह फिर आकर अहित कर सकता है । परन्तु ‘विजय’ की अवस्था में किसी भी प्रकार के शत्रु का पूर्णतः नष्ट हो जाना अनिवार्य होता है, किसी भी परिस्थिति में उसे पुनः जीवित होने के अवसर नहीं मिल पायें तभी इसे स्थायी जीत या विजय कहते हैं।

रवि- क्या विजय और मुक्ति या मोक्ष में कोई संबंध होता है?
बाबा- जीवन का यह संघर्ष दार्शनिक रूप से अविद्या और विद्या के बीच होने वाला संघर्ष कहलाता है जो कि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में चलता रहता है। इस संघर्ष में अन्तिम रूप से जीत प्राप्त करना ही ‘विजयी’ होना कहलाता है यही मोक्ष कहा जाता है क्योंकि इस विजय के प्राप्त हो जाने पर फिर यह शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। जब तक भौतिक या मानसिक शरीर रहता है शत्रुओं से संघर्ष भी तभी तक चलता है।

राजू- दशहरे को ‘‘विजया दशमी’’ नाम देने का आध्यात्मिक महत्व क्या है?
बाबा- चलो इस विषय पर विचार करते हैं। ‘राम‘ माने क्या? रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः। धातु ‘रम‘ + प्रत्यय ‘घई ´ = राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। राम का अन्य अर्थ है, ‘राति महीधरा राम’ अर्थात् अत्यंत चौंधियाने वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं। अन्य अर्थ है, ‘रावणस्य मरणम् इति रामः’। रावण क्या है? आप सभी लोग जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की प्रवृृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य , आग्नेय, ऊर्ध्व  और अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकते रहने के कारण मन के भृष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः ‘‘जीव मन’’ का, इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त बना रहना ही रावण कहलाता है। रावण को दस सिरों वाला इसीलिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भृष्ट  करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों से संघर्ष कर रावण का वध करना होगा। ‘रावणस्य मरणम् इति रामः’, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर ‘रामराज्य’ पाता है। इसलिये ‘राम’ माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम् का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम् माने ‘राम’,  क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है रावण मर जाता है और  साधक की विजय हो जाती है।

चन्दू- क्या इसे रावण का मोक्ष दिवस कहा जा सकता है, क्योंकि राम के मोक्ष पाने का तो कोई अर्थ ही नहीं है?
बाबा- यदि पौराणिक कथा के संदर्भ में विचार किया जाय तो पहला उत्तर तो यह होगा कि यह कथाएं वास्तविक नहीं हैं अतः उनके पीछे छिपी हुई शिक्षा क्या है उसे ही समझकर उसी के अनुसार चलना चाहिए। यह शिक्षा क्या है इसे अभी राजू के द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में समझाया गया  है। यदि इस पौराणिक घटना को थोड़ी देर के लिए यथार्थ मान लिया जाय तो भी रावण का मोक्ष दिवस कहना न्याय संगत नहीं होगा।

इन्दु- क्यों नहीं होगा? अनेक विद्वानों की व्याख्याओं में कहा गया है कि जिसे परमपुरुष के हाथों मृत्यु प्राप्त हुई हो वह तो मुक्त होगा ही, मोक्ष पायेगा ही ?
बाबा- अच्छा ! एक दृष्टान्त सुनो , फिर स्वयं ही निर्णय करना कि सही क्या है। जब रावण मरने लगे तो उन्होंने अपनी मदद करने के लिए अपने इष्टदेव, भगवान शिव को कातर होकर पुकारा, ‘ हे प्रभो! हे शिव! मैं तो आजीवन तुम्हारा अनन्य भक्त रहा हॅूं, मुझे इस कष्ट से बचाओ। ’’ परन्तु, शिव ने कोई मदद नहीं की। बार बार गिड़गिड़ाने पर भी जब शिव ने उनकी ओर देखा भी नहीं तब, पार्वती ने शिव से कहा , प्रभो! आपका अनन्य भक्त रावण बड़े ही कष्ट में है, आपकी मदद के लिए गिड़गिड़ा रहा है , मैं मानती हॅूं कि वह पातकी है परन्तु उसे आप मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा? शिव ने कहा वरानने ! रावण पातकी ही होता तो शायद मैं उसे मदद करने पर विचार भी करता परन्तु वह तो महापातकी है , इसलिए अब उसकी मदद मैं नहीं करूंगा। पार्वती ने कहा, महापातकी क्यों हुआ? शिव बोले, उसने एक महिला का अपहरण किया यह पातक है, परन्तु उसने यह काम कपट पूर्वक साधु के वेश में किया यह महापातक है । उसके इस कार्य से अब समाज में सच्चे साधु को भी लोग अविश्वास की दृष्टि से देखेंगे, उन्हें कपटी और धोखेबाज कहेंगे, समाज में आचार और अनाचार का भेद करना कठिन हो जाएगा। यह समाज की अपूर्णीय क्षति है, इसलिए वह महापातकी है; उसे अपने कृत्यों का फल भोगना ही पड़ेगा।


राजू- वाह ! बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त। परन्तु फिर रावण का क्या हुआ?
बाबा- वह सभी के साथ अभी भी जीवित है, और अवसर पाते ही अपना कौशल दिखा देता है, सब देखते रह जाते हैं। तुम सभी लोग देख रहे हो कि कैसे कैसे साधुओं के वेश में वह अपनी उग्रता छिपाए अभी भी हम सबको ठगता रहता है और हम कुछ नहीं कर पाते। हमने उसके विरुद्ध अपेक्षित अपने संघर्ष को कम कर दिया है । विवेक, तर्क और बुद्धि का उपयोग करना बन्द कर दिया है इसलिए अनगिनत रावण अभी भी समाज में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं । वे स्वयं तो मोक्ष पाना ही नहीं चाहते, दूसरों को भी अपने अनुसार ही ढालते रहने के नए नए कौशल खोजते रहते हैं। इनकी इसी प्रकार की शिक्षा के प्रभाव में आकर लोग विजया दशमी को केवल उसके पुतले जलाकर उत्सव मनाते हैं, अपने को महावीर समझते हैं और आत्म गौरव से फूले नहीं समाते।

रवि- आपके अनुसार उत्सव मनाने का सही अर्थ क्या है?
बाबा- अपनी यंत्रवत दिनचर्या में रहते रहते ऊब होना स्वाभाविक है अतः व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में उत्सव का बड़ा महत्व है । उत्सवों में जीवन का उन्नयन निहित होना चाहिए न कि अपने धन और वैभव का आडम्बरी प्रदर्शन। संस्कृत की क्रिया ‘सु’ का अर्थ है पुनः जीवन पाना। ‘सु  + प्रत्यय अल = सव’। वह पदार्थ जो जीवन में ओजस्विता भर देता है वह ‘आसव’ कहलाता है। जन्म देने को ‘प्रसव’ कहते हैं। इसी प्रकार उत् + सु + अल = उत्सव। उत् का अर्थ है ‘ऊपर की ओर ’ और ‘सव का अर्थ है जीवन ’ इसलिए उत्सव का अर्थ हुआ वह अवसर जो मानव को नया जीवन देने की नयी प्रेरणा देता है।