Friday, 22 December 2023

421 रामायण/रामचरितमानस में कमियॉं निकालना?

 

प्रत्येक रचनाकार अपनी रचना की विषयवस्तु में किसी एक चरित्र को केन्द्रित कर अपने विचार व्यक्त करता है। अन्य चरित्र कथानक की आवश्यकता के अनुसार यथा स्थान पर अपनी भूमिका पाते जाते हैं। रामायण या रामचरितमानस जैसे महाकाव्यों में जिस चरित्र को प्रधानता दी गई है वह है ‘‘राम’’। इसलिए स्वाभाविक है कि अन्य सभी पात्रों की भूमिका ‘‘राम’’ के चारों ओर ही सीमित रहेगी। ‘रामायण’ माने ‘राम का घर’ और ‘रामचरितमानस’ माने ‘मेरे मन के अनुसार राम का चरित्र’ अतः स्पष्ट है कि रचनाकार किसी चरित्र का चित्रण करते समय जितना आवश्यक होगा उतना विवरण ही देगा। इससे उस रचयिता पर किसी चरित्र की उपेक्षा किए जाने का दोषारोपण करना उचित प्रतीत नहीं होता। पूर्वोक्त ग्रंथों के रचियताओं ने अपने इष्ट ‘‘राम’’’ के प्रति अनन्य निष्ठा प्रदर्शित की है और उनसे जुड़े सभी पात्रों के चरित्रों में भी उसी निष्ठा को निरूपित किया है फिर चाहे वह लक्ष्मण और भरत हो या दशरथ और सुमित्रा अथवा वशिष्ठ और मंथरा। रचनाकार भक्तों का पूर्णतः उद्देश्य यह है कि हर प्रकार से वे अपने इष्ट ‘राम’ के प्रति ‘‘ओत प्रोत’ भाव से जुड़े रहें। भक्ति की पराकाष्ठा में भक्त अपने इष्ट से क्षण भर भी दूर नहीं रह सकता। बार बार वन के कष्टों का विवरण देकर राम द्वारा रोके जाने पर भी लक्ष्मण और सीता इसीलिए उनके साथ साथ वन चल दिये। उन दोनों की भावना यह थी कि मुझे चाहे जितना कष्ट हो पर मैं अपने इष्ट को अपने प्रत्येक कार्य से प्रसन्नता देना चाहता हंॅू। यह रागात्मिका भक्ति कहलाती है। दशरथ अपने इष्ट से दूर रह ही नहीं सकते थे इसलिए राम के वन जाते ही उन्होंने अपने शरीर को ही तिनके की भांति त्याग दिया। तुलसीदास जी का कहना है, ‘‘वन्दौ अवध भुआल, सत्य प्रेम जेहिं राम पद। विछुरत दीनदयाल, प्रिय तनु तृण इव परिहरेउ। इसलिए पौराणिक कथाओं को शब्दशः न लेकर उनके पीछे दी गई शिक्षा ही ग्रहण करना चाहिए परन्तु तथाकथित विद्वान मनमानी व्याख्या कर उनके महत्व को कम करते देखे जाते हैं!



Friday, 15 December 2023

420 माया वास्तव में क्या है?


भारतीय दर्शन में समग्र सृष्टि के स्रजनकर्ता को परमपुरुष और जिस शक्ति से वे रचना कार्य करते हैं उसे माया कहा गया है। विद्वानों ने इस माया को सदा हमारी प्रगति का विरोध करने वाला और भ्रम भी कहा है। इतना ही नहीं, उससे बचने के अनेक उपाय भी सुझाए हैं। कबीरदास जी तो माया को महाठगनी कह गए हैं। कृष्ण भी कहते हैं कि ‘मम माया दुरत्यया’ अर्थात् मेरी माया को पार कर पाना बड़ा ही दुष्कर है। आइए इस विषय पर कुछ सोचें।
सामान्यतः यह माना जाता है कि विपरीत लगने वाला बल गति में बाधक होता है परन्तु यह पूर्णतः सही नहीं है। पृथ्वी पर हम आगे तभी चल पाते हैं जब घर्षण बल हमारी अग्रगति का विरोध करता है। इस घर्षणबल का महत्व हमें तभी समझ में आता है जब हम किसी घर्षणरहित तल पर चलने का प्रयास करते हैं या तेज गति से चलते हुए रुकना चाहते हैं। अन्तरिक्ष मेंं गति करने पर गुरुत्वाकर्षण हमारा विरोध करता है और अंतरिक्ष से जब किसी पिंड पर उतरते हैं तो गति को धीमा करने के लिए उसके विरुद्ध बल (ब्रेक) लगाने के लिए छोटे छोटे राकेट अपनी गति की दिशा में ही चलाना पड़ते है। स्पष्ट है कि विरोधी बल हमारे लिए लाभदायक भी होते हैं इसलिए हमें अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों से प्रेम होना चाहिए न कि केवल अनुकूल या केवल प्रतिकूल से। 
आध्यात्मिक जगत में भी हमें इन दोनों प्रकार के बलों का सामना करना पड़ता है जिन्हें दर्शनशास्त्र में मूलतः ‘माया’ कहा गया है जो  विद्यामाया और अविद्यामाया के रूप में कार्य करती है। किसी भी प्रभावी क्षेत्र (गुरुत्वीय, विद्युतीय, चुंबकीय या नाभिकीय) में गति करने वाला कण अन्ततः उस क्षेत्र के गुरुत्वकेन्द्र के चारों ओर चक्कर लगाने लगता है और उस पर दो प्रकार के बल एकसाथ कार्य करने लगते हैं, एक उसे केन्द्र की ओर खींचने का प्रयास करता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीपीटल फोर्स’’ कहते हैं और  दूसरा उस कण को बाहर की ओर ले जाने को तत्पर रहता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स’’ कहते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में गति करने पर हमारा मन भी उस कण की तरह उसके गुरुत्वकेन्द्र (अर्थात् परमसत्ता) के चारों ओर चक्कर लगाता है और उसपर भी  सेंट्रीपीटल फोर्स ‘‘विद्यामाया’’ और सेंट्राफ्यूगल फोर्स ‘‘अविद्यामाया’’ एकसाथ ही कार्य करते हैं। इनमें सेंट्रीपीटल फोर्स परमसत्ता की ओर और सेंट्रीफयूगल फोर्स परमसत्ता से दूर ले जाने के लिए सक्रिय रहता है। यहॉं सेंट्रीफ्यूगल फोर्स की पहचान उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक है ‘आवरण या पर्दा डालना’ और दूसरी है ‘विच्छेपित करना’; अर्थात् यह हमें अपने गन्तव्य लक्ष्य पर या तो पर्दा डालने का काम करता है या उससे भटका देता है, भ्रम उत्पन्न करता है। इसी प्रकार सेंट्रपीटल फोर्स की पहिचान भी उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक को कहा जाता है ‘संवित’ और दूसरी को ‘ह्लादिनी’; अर्थात् संवित हमें समय समय पर आघात देकर होश में ले आती है और याद दिलाती है कि लक्ष्य से क्यों भटक रहे हो ? और ह्लादिनी, लक्ष्य की ओर तेज गति से बढ़ने की प्रेरणा देते हुए आनन्द की अनुभूति कराने लगती है। इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि हमें विद्या और अविद्या दोनों को अपनी आध्यात्मिक प्रगति में परस्पर सम्पूरक मानते हुए समन्वय स्थापित कर आगे बढ़ना चाहिए न कि किसी एक को पकड़कर उसी पर आश्रित रहना चाहिए। उपनिषदों का भी कथन है,
‘‘अन्धं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते, ततोभूय एव ते तमो य उ विद्यायां रतः।’’
अर्थात् केवल ‘अविद्या’ की उपासना करने वाले गहरे अंधे कुए में गिरते हैं और उससे भी गहरे अंधे कुए में वे गिरते हैं जो केवल विद्या की उपासना में लगे रहते हें।

Sunday, 3 December 2023

419 अक्षरामृत कौन है?

 

विद्वान ऋषियों ने यह जानने के लिए एक संगोष्ठी की कि वह कौन है जो इस समग्र ब्रह्माण्ड का नियंत्रण करता है जिसकी उपासना कर हम इस विश्वमाया से मुक्त हो सकें। इस पर अनेक मत इस तर्क पर स्थिर हो गए कि ‘प्रकृति’ ही वह सत्ता है जो सभी पर नियंत्रण करती है और सभी का संचालन करती है, इतना ही नहीं प्रकृति ने ही अपनी विश्वमाया में सबको भ्रमित कर रखा है अतः उसी की उपासना करना चाहिए। एक ऋषि इससे सहमत नहीं हुए। उन्होंने तर्क दिया कि ‘‘ ‘प्र’ करोति या सा प्रकृतिः’’ अर्थात् जो अपने को विभिन्न प्रकारों में रूपान्तरित करती रहती है वह प्रकृति है अतः जो बदलता रहे वह परम सत्य नहीं माना जा सकता। चूंकि प्रकृति का क्षरण होता रहता है इसलिए वह अमर नहीं है अतः उसे उपास्य भी नहीं माना जा सकता। उपास्य वही हो सकता है जो अमर हो। तो वह अमर सत्ता कौन है जिसकी उपासना की जा सकती है? एक ऋषि बोले ‘‘हर’’ ‘ह’ माने अन्तरिक्ष और ‘र’ माने ऊर्जा इसलिए अन्तरिक्षीय ऊर्जा ही अक्षय है वह नष्ट नहीं होती अतः ‘हर’ ही अमर हैं और वही अक्षर भी इसलिए वही उपास्य हैं।

अन्य ऋषि ने तर्क दिया कि ऊर्जा भले ही नष्ट न हो परन्तु रूप तो बदलती रहती है अतः वह भी प्रकृति की भॉंति है इसलिए जब प्रकृति उपास्य नहीं है तो ऊर्जा को भी उपास्य नहीं माना जा सकता। बहुत डिस्कशन के बाद यह निष्कर्ष निकला कि ‘‘प्रकृति का क्षरण होता है और ऊर्जा भले अक्षर है परन्तु इसे उपासना का लक्ष्य नहीं माना जा सकता। परन्तु इन दोनों का ही नियंत्रणकर्ता कोई एक ही सत्ता है जिसके अभिध्यान करने, जिससे जुड़ने और जिसके सर्वत्र व्याप्त होने का अनुभव करने पर ही हम इस विश्वमाया से मुक्ति पा सकते हैं।

सूत्र के रूप में इसे उपनिषद इस प्रकार व्यक्त करते हैं- 

‘‘क्षरं प्रधानं अमृताक्षरं हरः क्षरात्मनावीशते देव एकः, 

तस्याभिध्यानात् योजनात् ततत्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमाया निवृतिः।’’


Tuesday, 28 November 2023

418 ध्यान क्या है? इसका वैज्ञानिक सिद्धान्त क्या है? किसका ध्यान करें ?

 

ध्यान के विषय पर वद्वानों की अनेक व्याख्यायें उपलब्ध हैं परन्तु सभी मन को भ्रमित करती हैं क्योंकि वे सब किताबी ज्ञान पर आधारित होती है। आइए आज ध्यान से संबंधित इन तीन बातों पर चर्चा की जाय।
ध्यान का सामान्य अर्थ है मन को किसी विषय पर स्थिर करना। जैसे गणित के किसी सावल का उत्तर खोजने के लिए, पारिवारिक किसी समस्या का समाधान करने के लिए आदि। परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में इसका अर्थ होता है मन को अपने इष्ट पर स्थिर करना। दोनां ही स्थितियों में मन ही प्रधान होता है, ध्यान करने वाला मन ध्येता और जिस विषय या वस्तु पर ध्यान करना होता है उसे कहते हैं ध्येय। इस प्रकार मन (ध्याता) अपने विषय (ध्येय) पर पहुंचने के लिए जो भी प्रयास करता है वह ध्यान कहलाता है। परन्तु यहॉ केवल मन यह काम नहीं कर सकता क्योंकि वह तो क्षण भर में अनेक स्थानों पर उछलकूद करने में लगा रहता है। इस प्रकार मन अपनी ऊर्जा को सभी ओर विकीर्णित करता रहता है और वह वहीं जाना चाहता है जहॉं उसे अच्छा लगता है। मन को कहॉं अच्छा लगता है? वहीं जहॉं वह पूर्व में जाता रहा है, क्योंकि वहॉ जाने पर उसे कम शक्ति खर्च करना होती है। जिस बिंदु या विषय पर अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है वहॉ से मन शीघ्र ही भागने लगता है, उसका यही स्वभाव है। इस स्थिति में एक अन्य एजेंट ‘बुद्धि’ की आवश्यकता होती है जो उसे बार बार सचेत करते हुए यह समझाता रहे कि समय बार बार नहीं आएगा, इसका उपयोग कर लो नहीं तो पछताओगे। इस तरह मन और बुद्धि जब पारस्परिक साम्य स्थापित करके किसी विषय पर सक्रिय हो जाते हैं तो यह प्रक्रिया ध्यान कहलाती है और अपने लक्ष्य या इष्ट या समस्या पर समाधान पा लेती है।
यह सब रेजोनेंस (अनुनाद) के सिद्धान्त पर घटित होता है। जैसे, मन सदैव कंपनकारी अवस्था में रहता है अतः उसकी एक फंडामेंटल फ्रीक्वेसी होती है। इसी प्रकार लक्ष्य या समस्या की भी मूलआवृत्ति होती है । अतः यदि मन की आवृत्ति को विषय की आवृत्ति के साथ साम्य (विज्ञान की भाषा में अनुनाद) में लाया जा सके तो समस्या का तत्काल समाधान हो जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में अपने इष्ट के साथ अनुनादित होने के लिये मन को इष्ट की मूल आवृत्ति जिसे इष्टमंत्र कहा जाता है, के साथ अनुनाद स्थापित करना होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो काम इष्टमंत्र का होता है वही कार्य गणित का सवाल हल करने के समय उसका सूत्र (फार्मूला) करता है। इष्टमंत्र व्यक्ति विशेष के पूर्व संस्कारों पर निर्भर करता है जिसे ‘‘कौल गुरु’’ पहचान कर जिज्ञासु को सिखाते हैं और वह बिंदु बताते हैं जहॉं पर मन को बैठाकर इष्टमंत्र का आघात किया जाता है। यह अभ्यास लगातार करते रहना होता है।
अब प्रश्न उठता है कि किसका ध्यान किया जाय ब्रह्म का, बिंदु का, इष्ट का या गुरु का? चूंकि ध्येय तो परमपुरुष अर्थात् परमब्रह्म ही होते हैं जिन्हें किसी ने देखा ही नहीं है, उनका कोई आकार नहीं है और उन्हें आज तक कोई माप भी नहीं सका है। वह कहॉ हैं, धरती पर शरीर में या अन्तरिक्ष में यह भी कोई नहीं जानता । मन तो केवल उसका ध्यान कर पाता है जिसे उसने पहले कभी देखा होता है, तो ब्रह्म का ध्यान कैसे किया जाय? चूंकि गुरु ही इष्ट,श्इष्टमंत्र और ध्यान करने की प्रक्रिया सिखाते हैं अतः कोई भी व्यक्ति केवल गुरु को ही जान पाता है। उसने उन्हें ही देखा होता है अतः वह गुरु द्वारा बताए गए बिंदु पर गुरु को देखते हुए इष्टमंत्र का आघात करता है। यहॉ मन इष्टमंत्र के अनुसार कम्पन करता है अर्थात् बार बार उसे दुहराता है और बुद्धि प्रत्येक क्षण मन को उस इष्टमंत्र का अर्थ याद कराती रहती है। इष्टमंत्र की टार्च लेकर ध्याता का मन और बुद्धि गुरु के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर अज्ञान के अंधकार को चीरते हुए आगे बढ़ते जाते है और एक समय आता है जब गुरु की मूल आवृत्ति से ध्याता के मन की मूल आवृत्ति अनुनादित होने लगती है । इस अवस्था में ध्याता, ध्यान, और ध्येय एक ही हो जाते हैं, सब भेद समाप्त हो जाता है केवल आनन्द ही शेष रहता है। विद्वान लोग इसे समाधि का आनन्द कहते हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘‘गुरुरेव परम ब्रह्म, तस्मै श्री गरवे नमः।’’ ‘गुरु कृपा ही केवलम्’ अर्थात् केवल गुरु की कृपा ही पर्याप्त है। जिसे सच्चा गुरु मिल गया वही धन्य है, उसी का जीवन धन्य है, उसका परिवार धन्य है, उसी का मानव जीवन पाना सफल है।

Thursday, 9 November 2023

417 हमारी सनातन संस्कृति का लक्ष्य : पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाना है।


जिन्हें दीक्षा संस्कार नहीं मिल पाता, वे मनुष्य रूप में पशु ही हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है। क्योंकि वह परमसत्ता तो सबके जनक हैं अतः वे इनके लिए पशुपति हैं। इसलिए जब उनका लक्ष्य परमपुरुष को पाने की ओर होगा तब वे उन्हें ‘पशुपति‘ कह कर कहेंगे कि हमें उचित संस्कार नहीं मिल पाए, हम पशु ही रह गए, आप हमारे संरक्षक और नियंत्रक हैं आप पशुपतिनाथ हैं हमारे भीतर सोयी हुई मानवता को जागृत कर दो।
यह विचित्र सा लग सकता है परन्तु यह सत्य है। इस प्रकार प्रार्थना करते करते वे अनुभव करेंगे कि उन्हें इस जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब वे वीर हो जाएंगे। वीर क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। इस संघर्ष का परिणाम उसे वीरभाव में स्थापित कर देगा और उसका लक्ष्य पशुपति से वीरेश्वर की ओर हो जायेगा, यही कारण है कि परमपुरुष का एक नाम वीरेश्वर भी है।
इस प्रकार आध्यात्मिक प्रगति विभिन्न स्तरों से होती हुई अन्त में जिस स्तर पर पहुंचती है उसे देवता कहेंगे। ‘क्रमेण देवता भवेत‘ अर्थात् वह महिला हो या पुरुष जब इस प्रकार अभ्यास करते हुए स्थायी वीरभाव प्राप्त कर लेते हैं तो निडर हो जाते हैं । निर्भय हो जाने पर दिव्यभाव में स्थापित हो जाते हैं और मानव शरीर में ही देवता कहलाते हैं। इस अवस्था में उनकी पूरी आराधना वीरेश्वर के स्थान पर देवों के देव महादेव की ओर हो जाती है।
स्पष्टीकरण -
एक ही सत्ता को अपनी मनोआध्यात्मिक भावनाओं के अनुसार व्यक्ति कभी पशुपति, कभी वीरेश्वर और कभी महादेव सम्बोधित करता है। श्शयद आप जानते हैं कि किसी भी व्यक्ति (महिला हो या पुरुष) के तीन प्रकार के अभिव्यक्तिकरण होते हैं। पहला सोचना, दूसरा बोलना और तीसरा कार्यरूप में बदलना। पहले स्तर पर पशुरूपी मनुष्य की विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं, ओंठ दूसरे प्रकार से कहते हैं और शरीर अन्य प्रकार से उन्हें कार्य रूप में बदलता है अर्थात् उन तीनों में सामंजस्य नहीं होता। इसीलिये मनुष्य होते हुए भी उसे पशु कहा जाता हैं । हम देखते हैं कि समाज में इस प्रकार के लोगों की संख्या अधिक और अन्य लोगों की संख्या भी निराशाजनक है, कम है। दूसरे स्तर पर अर्थात् वीर स्तर पर विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं परन्तु शब्द और कार्य एक समान होते हैं। अर्थात् विचारों में कुछ भिन्नता होती है परन्तु कथनी और करनी में समानता होती है। समाज में इस प्रकार के लोग महापुरुष के नाम से आदर पाते हैं । ये देश और समाज का नेतृत्व करते हैं परन्तु चूंकि उनके विचारों में भिन्नता होती है इसलिए वे केवल वीरभाव तक ही सीमित रह जाते हैं। तीसरे और अन्तिम स्तर पर उसकी विचार तरंगों, ओंठों से उच्चारित किए गए शब्दों और शरीर से सम्पन्न किए गए कार्य में एकसमानता होती है इसलिए यह स्तर मानव शरीर में ही देवत्व की संज्ञा देता है। हम सभी को इस देवता स्तर को पाने के लिए चेष्टारत रहना चाहिए।

416 ईश्वर से बात कैसे करें?

 

ईश्वर के संबंध में विभिन्न मतों में विभिन्न अवधारणाओं को बल दिया गया है। आपने किस मत की कौन सी अवधारणा को पालन करना स्वीकार किया है इस पर ही उनसे बात करना या न कर पाना निर्भर करता है।
सच्चाई यह है कि किसी ने भी ईश्वर को उनके निर्गुण स्वरूप में नहीं देखा है और न देख सकता है। इसलिए 90 प्रशित से अधिक भक्त पौराणिक कथाओं के आधार पर अपनी अवधारणाएं दृढ़़ करते हुए आगे बढ़ते हुए देखे जाते हैं। इन कथाओं में ईश्वर के अवतारों और आकार प्रकारों पर बताया गया है परन्तु उनको भी किसी ने साक्षात देखा नहीं है, जो भी पुस्तकों में भक्तों ने अपने अनुभव लिखे हैं उसी प्रकार उनके अनुयायी भी देखने का प्रयास करते हैं। अब समस्या यह है कि कोई भक्त कैसे यह जाने कि उस अद्वितीय अरूप अमाप्य अनन्त और अवर्णनीय को अपने छोटे से मन के द्वारा अनुभव करे, बात करे, अपने सुखदुख को बताकर शिकायत करे, उनका असीम प्रेम अनुभव करे?
इसका समाधान केवल विद्यातंत्र में ही मिलता है कर्मकांड में नहीं। शायद आप को पता होगा कि भगवान कृष्ण ने भी श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है- तपस्वीभ्योधिको योगी ज्ञानीभ्योपि मतोधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवार्जुन।।
अर्थात् ‘योगी’ कर्मकांडियों, ज्ञानियों और तपस्वियों आदि से सबसे श्रेष्ठ है इसलिए अर्जुन तुम योगी बनो।
आजकल योगी होने का मतलब योगासनें करने और सिखाने वाले को माना जाता है। पर यह सही नहीं है। विद्यातंत्र में मान्य योग की परिभाषा है‘ ‘‘संयागो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मना’’ अर्थात् "परम आत्मा" को अपनी जीवात्मा के साथ जोड़ने की प्रक्रिया को योग कहते हैं।
अब यहॉं आपके प्रश्न का उत्तर मिलने की संभावना बनती है। परन्तु फिर प्रतिप्रश्न उठता है कि कैसे?
इसका उत्तर है विद्यातंत्र में विशारद कौल गुरु जो पुरश्चरण की क्रिया में प्रवीण हो उससे अपने इष्ट मंत्र को प्राप्त करना। जब आपको अपने इष्ट और इष्टमंत्र का सही सही ज्ञान कौल गुरु के द्वारा करा दिया जाता है और अपने निर्देशन में साधना का अभ्यास करा कर योग्य बना दिया जाता है तब आपका मन और बुद्धि उस अरूप का रूप अपनी आत्मा के भीतर देख सकती है, अनुभव कर सकती है, उससे बात कर सकती है और उसके साथ एकाकार हो सकती है। वहीं आपको अनुभव होगा कि यही मेरे सर्वस्व हैं। यों तो अनेक लोगों को यह कहते सुना जाता है कि ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव’ पर उन सबके व्यवहार में बहुत भिन्नता देखी जाती है। आप हतोत्साहित न हों, मन में कौल गुरु की अवधारणा को जीवन्त रखें वे आपको स्वयं इष्टमंत्र देने आएंगे और आपकी वार्ता अपने इष्ट से करायेंगे।

Monday, 2 October 2023

देश की अपूर्णीय क्षति!

415 देश की अपूर्णीय क्षति!

आजकल प्रायः अनेक विद्वान चर्चा करते हैं कि हमारे पूर्वज ऋषियों के पास बहुत पहले से चिकित्सा, इंजीनियरिंग, एअरोनाटिक्स आदि का ज्ञान था। यह सत्य भी है परन्तु प्रश्न यह है कि वह ज्ञान कहॉं चला गया, हम उसे संरक्षित क्यों नहीं रख पाए? आइए इसका कारण खोजें।
जब मूल सिद्धान्तों को भूलकर अपने वर्चस्व के लिए मनमाने सिद्धान्तों को प्रधानता दी जाने लगती है तो स्वाभाविक रूप से आडम्बर जन्म लेता है और मूल सिद्धान्तों के पालनकर्ताओं को हेय समझा जाने लगता है। भारतीय दर्शन के अनुसार प्रकृति अपने तीन गुणों सत्व, रज और तम में पारस्परिक संतुलन के आधार पर अपनी गतिविधियां जारी रखती है जिससे कहीं पर सत्व की अधिकता हो तो अन्य दोनों रज और तम की आनुपातिक रूप से कमी होती है और इस प्रकार के जीव सात्विक कहलाते हैं जबकि अन्य गुणों की प्रधानता जिनमें होती है वे क्रमशः राजसिक और तामसिक कहलाते हैं। सपष्ट है कि एक ही परिवार में कोई राजसिक कोई तामसिक और कोई सात्विक हो सकता है परन्तु उनमें आपस में घृणा नहीं होती। पूर्वकाल में कुछ अहंकार ग्रस्त लोगों ने तामसिक गुणों के लोगों को घृणित मानकर उन्हें सामाजिक महत्व से वंचित कर दिया और ‘राक्षस’ कहकर पुकारने लगे। अब यदि राक्षस कुल के किसी व्यक्ति ने कोई अच्छा कार्य किया तब भी वह समाज के तथाकथित सात्विकों द्वारा ग्राह्य नहीं माना जाता था अतः हमारे देश में इन तथाकथित राक्षस प्रवृत्ति के लोगों के द्वारा प्राप्त विद्याओं और किये गए अनुसंधानों को भुलाया जाता रहा है।
हमारा पुराना साहित्य इस प्रकार के दृष्टान्तों से भरा पड़ा है। यह उदाहरण देखिए, पूर्वकाल में बंगाल और झारखंड के एक भूभाग के राजा अनुभवसेन की पत्नी कर्कटी तमोगुणी अर्थात् तथाकथित राक्षसी थी परन्तु वह चिकित्सा के क्षेत्र में लगातार अनुसंधान करती रहती थी। उनका पुत्र सुतनुक आदर्श चरित्र का जनहितकारी वैद्य था। इस प्रकार राजा और उनका पुत्र सात्विक परन्तु पत्नी राक्षसी प्रवृत्तियों की मानी गई। कर्कटी ने अपनी प्रयोगशाला में कर्कट रोग जिसे आज केंसर कहा जाता है की खोज कर ली थी परन्तु तत्कालीन संकीर्ण सोच के सात्विकों ने उसे मान्यता नहीं दी इतना ही नहीं जब वह अपनी प्रयोगशाला में शवों का परीक्षण कर रही थी तो इस समूह के लोगों ने उसे यह कहकर वहीं जला दिया कि वह नरमांस भक्षण के लिये शवों को एकत्रित करती रहती है। अर्थात् उसे राक्षसी कहकर मार डाला गया। कहा जाता है कि कर्कटी की प्रयोगशाला में रखे शवों और अन्य रसायनों के साथ उसके जलने से जो भी गैसें उत्पन्न हुई उनसे ‘कॉलेरा’ अर्थात् हैजा (संस्कृत में विसूचिका) और ‘डायबिटीज’ अर्थात् मधुमेह रोग फैला। इसके साथ ही कॉलेरा और केंसर की औषधि भी विलुप्त हो गई। आयुर्वेद, चिकित्सा और सर्जरी के क्षेत्र में पुराने भारत का ज्ञान इसी निरर्थक सोच के कारण नष्ट होता गया ।
यह सर्वविदित है कि लिपि का ज्ञान न होने के कारण उस समय वेदों के ज्ञान को सुन सुन कर एक दूसरे को दिया जाता था इसीलिये उन्हें श्रुति भी कहा जाता है। परन्तु जब लिपि का ज्ञान हो चुका तब भी परम्परावादी तत्कालीन विद्वानों ने लिखने नहीं दिया क्योंकि वेदों को सुनकर ही एक दूसरे को सिखाने की परम्परा को वे बदलना नहीं चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि बहुत सा ज्ञान याद ही नहीं रखा जा सका और जानकार पृथ्वी छोड़कर चले गए। ऋषि अथर्वा ने बड़ी कठिनाई से इन लोगों से छिप छिप कर अपने साथियों और शिष्यों अंगिरा, अंगिरस, वैदर्भि आदि के साथ वेदों को लिखा जिसे बाद में वेदव्यास ने कालक्रम के अनुसार चार भागों में विभाजित किया।
इसी प्रकार की दकियानूसी विचारधारा का वर्तमान समय का ही उदाहरण है, वह घटना जब अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव बढ़ा तब उसी अवधि में अड़ियल मुल्लाओं के एक समूह ने अंग्रेजी भाषा के खिलाफ एक फतवा जारी किया कि ‘‘यह एक अपवित्र भाषा है क्योंकि यह बाएं से दाएं लिखी जाती है। अगर मुसलमानों ने इसे सीख लिया तो वे अपनी धार्मिक पहचान खो देंगे और ईसाई बन जाएंगे।’’ मुस्लिम विद्वानों के इस रवैये का भारतीय मुसलमानों पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ा। बाद में उन्हें क्षति पूर्ति करने के लिए ही अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना करनी पड़ी।
स्पष्ट है कि जब तक हम तर्क और विज्ञान पर आधारित विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता का समुचित उपयोग कर ऊंचनीच की भावना को दूर करना नहीं सीख लेते हमारे इस प्रकार के दम्भ का कोई मूल्य नहीं कि हम पूर्वकाल में कितने ज्ञान सम्पन्न थे।

Sunday, 13 August 2023

414 कुत्सित विचारों पर नियंत्रण कैसे हो ?


जब लोग भौतिक उपभोग की सामग्री के अंधाकर्षण से अपना सामान्य ज्ञान ही खो डालते हैं तो वे सीमित साधनों में ही असीमित आनन्द की तलाश करने लगते हैं और अस्थायी वस्तुओं को स्थायी समझने की भूल करने लगते हैं। इस प्रकार वे अपनी सभी जीवन्तता क्षय कर डालते हैं और यह भूल जाते हैं कि इस संसार की कोई वस्तु स्थायी नहीं है। कभी कभी तथाकथित पढ़े लिखे लोग कहते हैं कोई बात नहीं मैं इन वस्तुओं का पूरी तरह उपभोग नहीं कर पाऊंगा, परंतु मेरे पोते पोतियॉ तो कर सकेंगे। यह विचार अविद्यामाया के द्वारा प्रेरित होता है और इस अविद्या माया का सॉंकेतिक नाम है रावण।

रामायण में रावण का नाम आता है यह पौराणिक ग्रंथ है इतिहास नहीं, परंतु उसमें वर्णित शिक्षायें महत्वपूर्ण हैं। इसमें रावण को दस सिरों वाला दर्शाया गया है। यह मनुष्य के वहिर्मुखी स्वभाव को प्रदर्शित करता है जो विभिन्न दिशाओं में जड़ता की ओर ही सक्रिय रहता है। अर्थात् परमसत्ता के केन्द्र से बाहर की ओर सेन्ट्रीफ्यूगल बल से विक्षेपित बना रहता है। इस प्रकार जब मन आन्तरिक प्रवाह से भटककर आलस्य, द्वेष, लोभ या अन्य पतनोन्मुख बलों से जकड़ने लगता है तो कहा जाता है कि वह अपने आन्तरिक रावण के फंदे में फंस गया है।

मानव मन में सूक्ष्म और क्रूड दोनों प्रकार की प्रवृत्तियॉं होती हैं, सूक्ष्म प्रवृत्तियों का रुख अन्तर्मुखी और क्रूड प्रवृत्तियों का रुख वहिर्गामी होता है। कू्रड प्रवृत्तियॉं पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः इन छः प्रदिशाओं और ईशान, वायु, अग्नि और नैऋत्य इन चार अनुदिशाओं में अर्थात् सभी दशों दिशाओं में सक्रिय रहती हैं और ये इकाई जीव को सांसारिकता में ही फंसाये रखना चाहती हैं । यही क्रूड प्रवृत्तियॉं ही रावण के दस मुंह हैं। सूक्ष्म आन्तरिक प्रवृत्तियॉं आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर ले जाती हैं जो राम कहलाती  हैं। इस प्रकार प्रत्येक जीवधारी के पास राम और रावण होते हैं। राम और रावण का संघर्ष सबके जीवन में चलता रहता है रावण भौतिक जगत में उलझाये रखना चाहता है और राम आत्मोन्नति के रास्ते पर ले जाना चाहता है। अतः हमें प्रत्येक क्षण सतर्क रहने की आवश्यकता है क्योंकि रावण की प्रवृत्तियॉं धीरे धीरे अपना शिकार बनाती हैं। जैसे,  छात्र परीक्षा में नकल करने से पहले यह नहीं सोचता कि वह पकड़ा जा सकता है, चोर को चोरी करने के लिए जाने से पहले पकड़े जाने का भय नहीं लगता, समाजनेता अपने गलत कार्यों के प्रकाशित हो जाने का भय नहीं पालते आदि अनेक उदाहरण है जो रावण की प्रवृत्तियों को धीरे धीरे बढ़ाते हुए जीवन नष्ट करने के लिये कार्य करती हैं। इसलिये प्रारंभ से ही इनसे सतर्क रहना लाभदायी होता है, तभी राम की रावण पर विजय हो पाती है। इस दशमुखी रावण पर सरलता से विजय पाना संभव है यदि हम परमपुरुष की शरण में पूरे हृदयसे चले जायें। जब कभी भी रावणी वृत्ति का विचार आता है हम तत्काल उसे राम अर्थात् परमपुरुष की ओर मोड़ दें, रावण का तुरन्त अन्त हो जायेगा। परमपुरुष की सहायता के बिना दसमुखी रावण को परास्त करना बड़ा कठिन है।

Tuesday, 11 July 2023

413 जगत मिथ्या

 प्रश्न- कुछ विद्वान लोग कहते हैं कि यह संसार मिथ्या है! ये सब कुछ माया है! इसका क्या अर्थ है?

उत्तर- जिन विद्वानों ने जगत को मिथ्या कहा है वे यह तब कह पाये जब उन्होंने आत्मसाक्षात्कार कर लिया। उन्हांने इस अवस्था में अनुभव किया और यह कहा कि ‘ब्रह्म सत्यम जहद्मिथ्या‘ अर्थात् ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या। इसे दर्शनशास्त्र में मायावाद कहा गया है।

आप तर्क दे सकते हैं कि जो स्पष्ट दिखाई दे रहा है, जिसके अस्तित्व का हम आप और सभी अनुभव करते हैं उसे मिथ्या कैसे कहा जा सकता है?

इसे समझने के पहले हमें ‘सत्य‘ की परिभाषा को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये तभी तो असत्य या मिथ्या को समझ सकेंगे।

सत्य माने जो जैसा है वैसा ही और मिथ्या माने जो अपने मूलस्वरूप से भिन्न हो वह। परन्तु ‘सत्य‘ अपरिवर्तनशील होता है, प्रत्येक स्थिति में एक सा एकरस। परंतु ‘असत्य या मिथ्या‘ परिवर्तनशील होता है। जो अपरिर्विर्तत रहता है उसे निर्पेक्ष सत्य और जो परिवर्तित होता है उसे सापेक्षिक सत्य कहते हैं।

यह ब्रह्मॉंड उस एक ही परमसत्ता के परम मन अर्थात् कास्मिक माइंड की विचार तरंगों के अलावा कुछ नहीं है अतः निर्पेक्ष या परमसत्य तो केवल परमपुरुष ही हैं अन्य सब का अस्तित्व उनके सापेक्ष ही है इसलिये यह जगत सापेक्षिक सत्य है परंतु अज्ञानवश हम इसे निर्पेक्ष सत्य मानकर उसके स्वाभाविक परिवर्तनों से प्रभावित होकर सुख दुख का अनुभव करते हैं और मैं मेरा तथा तू तेरा के चक्कर में पड़ जाते हैं।

परंतु अब आप कह सकते हैं कि विद्वानों ने तो इसे स्पष्टतः मिथ्या कहा है और ‘माया‘ अर्थात् इल्यूजन कहकर दूर रहने का संदेश बार बार दिया है।

ठीक है, श्रुति में माया का अर्थ क्या है? ‘ घातना अघातना पतीयसी माया‘ अर्थात् ‘‘जो है, वह न होने और जो नहीं है, उसे होने जैसा अनुभव कराती है‘‘ वह सत्ता माया कहलाती है। इस संसार में सभी कुछ निश्चित समय के लिये ही अस्तित्व में रह पाता है परंतु हमें अनुभव यही होता है कि यह सब हमारे साथ सदा ही रहेगा यही भ्रम माया के नाम से जाना जाता है।

इसीलिये तो निर्पेक्ष अवस्था का अनुभव करने वाले महापुरुष इसे मिथ्या कहने लगते हैं। जगत को दार्शनिकगण ‘सापेक्षिक सत्य‘ कहते हैं जो विद्यामाया और अविद्या माया के द्वारा अपना अस्तित्व बनाये रखता है। यह वैसा ही है जैसे वृत्ताकार गति करने वाले किसी पिंड पर संतुलन बनाये रखने के लिये तुरंत दो बल सक्रिय हो जाते हैं एक केन्द्र की ओर अर्थात् सेन्ट्रीपीटल और दूसरा केन्द्र के बाहर की ओर अर्थात् सेन्ट्रीफ्यूगल। ब्रह्मॉंड के केन्द्र में परमपुरुष की ओर विद्यामाया और बाहर की ओर अविद्यामाया सक्रिय रहती है। हमें यह अष्ट पाशों (भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये अष्ट पाश )और षडरिपुओं ( काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु)के जाल में उलझाकर अपने अस्तित्व को बनाये रखती है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य इन आठों बंधनों और छहों शत्रुओं से लगातार संघर्ष करते हुए अपने मूल स्वरूप अर्थात् केन्द्र स्थित परमपुरुष की ओर लौट जाना है जहॉं से कभी हम उनकी विचार तरंगों के रूप में अर्थात् ब्रह्म चक्र में आये और सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म रूपों में लगातार चक्कर लगा रहे हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि जब इतने प्रबल शत्रु और बंधन सब के साथ हैं तो उन से कहॉं तक संघर्ष किया जाये? अपने मूलस्वरूप में वापस हो पाना संभव ही नहीं है?

बात सही है अतः इन से किया जाने वाला यही संघर्ष ही साधना करना या पूजा करना कहलाता है। अविद्या माया, विरोधात्मक बल उपरोक्त प्रकार से लगाती अवश्य है परंतु वह हमारी आध्यात्मिक अग्रगति में सहायता करने के लिये ही यह करती है। जैसे, धरती पर चलते समय घर्षण बल हमारी गति का विरोध करता है परंतु जब हम फिर भी आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो यही सहायक बन जाता है, यदि यह विरोध न हो तो हम आगे चल ही नहीं सकते। चिकने तल पर आप नहीं चल पाते क्यों?

तो क्या इससे हमें यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि विद्यामाया का ही सहारा लेना चाहिये और अविद्यामाया से दूर रहना चाहिये?

नहीं, केवल एक किसी के सहारे हमें अपने संघर्ष में सफलता नहीं मिल सकती । हमें सम्यक रूपसे अविद्यामाया की मदद लेते हुए विद्यामाया का साथ देना चाहिये। यदि आप केवल विद्या की उपासना करेंगे तो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें भोजन वस्त्र आवास आदि कौन जुटायेगा? इन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्त करने के लिये ही अविद्या का सहारा लेना पड़ता है । यदि केवल अविद्या की उपासना करेंगे तो यहीं फंसे रहेंगे । श्रुतियों में कहा गया है ‘‘ अंधं तमः प्रविश्यन्ति ये अविद्यामुपासते, ततो भूय ऐव ते तमो य उ विद्यायांरताः ।‘‘ अर्थात् जो केवल अविद्या की उपासना करते हैं वे अंधे कुए में ही अपने को फेकते हैं और जो केवल विद्या की उपासना करते हैं वे उससे भी अधिक गहरे अंधे कुए में अपने को फेक देते हैं। अतः स्पष्ट है कि सम्यक अविद्या का उपयोग कर विद्या की उपासना करने से ही हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं। इसलिये यह जगत मिथ्या नहीं सापेक्षिक सत्य है।

Thursday, 22 June 2023

412 स्वर्ग और नर्क का मनोवैज्ञानिक, योगवैज्ञानिक और आधुनिक वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण

कुछ विद्वानों ने  स्वर्ग और नर्क के भी अनेक स्तरों का वर्णन किया है और कहा है कि जघन्य पाप करने वाले ‘रसातल‘ को जाते हैं और अच्छे कर्म करने वाले स्वर्ग को। परन्तु इनके भौतिक अस्तित्व को मनोविज्ञान, योग और आधुनिक विज्ञान के आधार पर समझाया जा सकता हो तभी मान्य किया जाना चाहिए।

वास्तव में, मन की अपरिपक्व अवस्था ही नर्क का आधार होती है और इसी अपरिपक्वता के स्तर को उसकी गहनता के आधार पर सात स्तरों में समझाया गया है जिन्हें तल, अतल, वितल, तलातल, पाताल, अतिपाताल, और रसातल नाम दिये गये हैं। अविद्या की उपासना करने वाले या घोर पाप कर्म से जुड़े व्यक्ति से कहा जाता है कि रसातल के अंधकार में  जाओगे, इसका मतलब यही है मन का स्तर इतना निम्न हो जायेगा  कि वह ज्ञान का प्रकाश  नहीं पा सकेगा अतः अंधकार में रहेगा, मन की निम्नतम (crudest state of mind)  अवस्था में पड़ा रहेगा । इसी तरह उन्नत मन की उच्चतर अवस्थाओं को महः ,जनः ,तपः और सत्यम कहा गया है। सत्यम और हिरण्यमय कोश एक ही हैं । हिरण्यमय का अर्थ है स्वर्णमय , सोने जैसा । योग और विद्यातन्त्र में यह स्वीकार किया गया है कि परमपुरुष हिरण्यमय कोश  के पर्दे के पीछे रहते हैं। यथार्थता यह है कि जब साधना के द्वारा मन को इतना पवित्र और स्वच्छ कर लिया जाता है कि उसमें किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं हो सकता हो तो वह स्वर्ण की भॉंति कॉंतिमान लगता है और परमसत्ता का पूर्णतः  परावर्तन उसमें होने लगता है और फिर इकाई मन और भूमा मन अर्थात् परमपुरुष के मन में कोई अन्तर नहीं रहता यह अवस्था आत्मसाक्षात्कार कहलाती है।  इसलिये कर्मों के अनुसार ही मन की विभिन्न अवस्थायें होती रहतीं हैं इसलिये कोई भी व्यक्ति अपनी मानसिक अवस्थाओं के अनुसार एक ही दिन में अनेक बार स्वर्ग और नर्क की यात्रा करता रह सकता है। इसलिये विद्यातंत्र वह विधि समझाता है जिससे हमेशा  ब्रह्मभाव में मन को बनाये रखने पर वह स्वर्ग और नर्क दोनों से ऊपर रहने लगता और क्रमशः  परमपुरुष के निकट होता जाता है।

 आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मनोमय कोश  को अवचेतन मन (subconscious mind) कहते हैं। यह विज्ञान कहता है कि अवचेतन मन में हमारे भूतकाल के अनेक जन्मों और वर्तमान की सभी स्मृतियों का संग्रह होता है। बिना अवचेतन मन के हम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते क्योंकि सभी ज्ञान और स्मृति इसी में केन्द्रित रहते हैं। मनोविज्ञान में मन के केवल तीन स्तर माने गये हैं चेतन (conscious) अवचेतन (subconscious) और अचेतन (unconscious) जबकि योग विज्ञान में अचेतन को भी तीन और स्तरों में बॉंटा गया है अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय, जो मन की क्रमानुसार अत्यन्त कम आवृत्तियों की सूचक हैं। अतिमानस पराज्ञान, विज्ञानमय पराशक्तियों  और हिरण्यमय परम उपलब्धियों  का क्षेत्र है। 

आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रत्येक अस्तित्व की मूल आवृत्ति (fundamental frequency) होती है और यह जड़ता (crudity)  की ओर अधिक और सूक्ष्मता (subtlety) की ओर कम होती जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मन की आवृत्ति का अत्यधिक बढ़ जाना जड़ता अर्थात् पर्वत या पत्थर हो जाना या नर्क की ओर जाना, और आवृत्ति का लगभग शून्य  हो जाना अर्थात् स्वयं को जान लेना या परमात्मा अर्थात् स्वर्ग को पा लेना ही है। परमात्मा की तरंगदैर्घ्य  (wave length) अनन्त कही गई है अर्थात् आवृत्ति शून्य  अर्थात् हिरण्यमय कोश । योग का व्यावहारिक ज्ञान और विद्यातंत्र की व्यावहारिक विधियॉं अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय क्षेत्रों की यात्रा कराते हुए अन्त में परमात्मा से एकाकार करा देती हैं जो मानव मात्र के जीवन का लक्ष्य है।


Thursday, 15 June 2023

411स्वर्ग और नर्क क्या हैं?

 

अनेक धर्मों में यह कहा गया है कि मरने के बाद कर्मानुसार स्वर्ग या नर्क में रहना पड़ता है अर्थात् ये स्थान पृथ्वी से भिन्न कहीं अन्यत्र माने गये हैं। परंतु ‘आनन्दसूत्रम् में कहा गया है कि ‘‘न स्वर्गो न रसातलः’’।

अतः यदि इसे इस प्रकार कहें कि सब कुछ तो परमपुरुष की ही रचना है तो स्वर्ग और नर्क दोनों के स्वामी वही हुए।  उपनिषदों में भी कहा गया है - ‘‘उतामृतस्येशानो  = उत + अमृत+  ईशान‘‘। उतः का अर्थ है नर्क , अमृतस्य का अर्थ है स्वर्ग,  ईशानः का अर्थ है स्वामी या नियंत्रण करने वाला । अतः यदि उन परमपुरुष का ही आश्रय लिये रहें तो स्वर्ग हो या नर्क वह भी साथ साथ ही रहेंगे कि नहीं? 

परंतु क्रूर सच्चाई यह है कि स्वर्ग और नर्क कोई ऐसी जगहें नहीं हैं जो कि पृथ्वी के ऊपर या नीचे हों । ये, इकाई मन अर्थात् मानव मन की विभिन्न पॉंच पर्तें हैं दार्शनिक  इन्हें कोश  या लोक कहते हैं। इनके नाम हैं , अन्नमय या काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय। ये पॉंचों भूलोक और सत्यलोक के बीच मानी गईं हैं, भूलोक अर्थात् पृथ्वी पर मनुष्य और सत्यलोक पर परमपुरुष का आधिपत्य माना गया है परंतु ये सभी एक ही परमपुरुष के मन (cosmic mind)    के भीतर ही हैं क्योंकि उपनिषदों में कहा गया है कि ‘‘ सर्वं खल्विदम् ब्रह्म‘‘ अर्थात् यह सबकुछ उन परमब्रह्म की ही विचार तरंगें हैं। निर्पेक्ष रूप से इन्हें क्रमशः  भूः, भुवः, स्वः महः जनः तपः और सत्यम कहा जाता है। पुनः स्पष्ट किया जाता है कि यह सब पृथक पृथक स्थान नहीं हैं वरन् वैज्ञानिक आधार पर परमपुरुष की सगुणावस्था में भूमा मन (cosmic mind )  की विभिन्न विचार तरंगों के समूह (wave pattern) माने जाते हैं। भूलोक में भौतिक जगत और उसमें होने वाली सभी गतिविधियॉं आती हैं, मनुष्य, पशु , वनस्पति , ठोस, द्रव आदि इसी लोक की वस्तुएं हैं। भुवः लोक में वे सभी निर्माणाधीन अस्तित्व आते हैं जिन्होंने कोई आकार या रूप अब तक धारण नहीं किया है अर्थात् पदार्थ की चतुर्थ अवस्था जिसे ‘प्लाज्मा स्टेट‘ कहते हैं, को इसके अन्तर्गत माना जाता है। स्वःलोक, सूक्ष्म मन या मानसिक संसार या मनोमय कोश  कहलाता है, यहीं पर सुख या दुख की अनुभूति होती है इसीलिये मनुष्य इसे स्वर्ग लोक कहने लगे  (स्वः + ग = स्वर्ग )। जब किसी मनुष्य को अपने शुभ किये गये कार्य से संतुष्ठि होती है तो उसे जो आनन्दानुभूति होती है वही स्वर्ग है और अनुचित कार्य करने वाले का असंतुष्ठ मन हमेशा  दुख का अनुभव करता है यह उसके लिये नर्क हो जाता है। इसलिये स्वर्ग और नर्क केवल मन की अवस्थायें हैं और वे इसी भौतिक जगत में ही हैं कहीं अन्य स्थान पर नहीं। यह मनोमय कोश  ही है जो आपके साथ ही रहता है अतः स्वर्ग लोक हमेशा  आपके साथ ही है और आप यदि कल्याणकारक कार्य से जुड़े हैं तो आप साधारण व्यक्ति से असाधारण व्यक्ति के रूप में स्वर्ग में ही हैं अन्यथा की स्थिति में नर्क में। इसलिये वे लोग भले ही पंडित कहलाते हों या नहीं, यदि स्वर्ग और नर्क की कहानियॉं सुनाकर उनके  अलग स्थान पर होने की शिक्षा देते हैं तो वे भ्रामकता की ओर ले जाते हैं।


410 पृथकता विरुद्ध एकता।


वह परमसत्ता केवल एक ही है। दार्शनिकों ने उसे अपने अपने ढंग से समझाने के लिए अनेक दार्शनिक नाम दिये हैं जैसे, परमब्रह्म, परमपुरुष आदि। स्वयंभू का अर्थ है केवल ‘‘स्वयं होना’’ अर्थात् स्वयं अस्तित्व में आना। इसलिए सभी कुछ जो हम देख पाते हैं और नहीं देख पाते, उनके मन में ही हैं अतः वे निर्पेक्ष हैं और पूरा ब्रह्मांण्ड सापेक्ष।

जैसे, हमारा शरीर हमारे मन का ही विस्तार है उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत, गेलेक्सीज, ब्लेकहोल सहित पूरा ब्रह्माण्ड और स्पेस, टाइम आदि सब उनके मन का ही विस्तार है। हमें यह जानकर अजीब लगता है क्योंकि हम सभी उन्हें अपने से पृथक मानते हैं जबकि हम सब उन्हीं के मन में हैं। इसीलिए  उपनिषदें बार बार उनसे अपनी पृथकता को भूलकर अपने ही हृदय में अनुभव करने की विधियों का पालन करने का मार्गदर्शन करती है।

जब तक हम अपने को उनसे पृथक मानते रहेंगे हम उस अमरत्व को अनुभव नहीं कर सकते। समुद्र के किनारे पर बैठकर समुद्र की गहराई का अनुभव नहीं किया जा सकता उसमें डूबना ही पड़ता है। इस तरह जब हम समुद्र के साथ अपनी एकता स्थापित कर लेते हैं तब हमें समुद्र क्या है यह अनुभूति हो जाती है। वास्तव में लोगों को पौराणिक कहानियों ने भ्रमित कर रखा है। हमें अपने तर्क, विज्ञान और विवेक का उपयोग करना चाहिए।



Thursday, 8 June 2023

409 जिसे केवल बिग बेंग कहा जाता है उसे उपनिषदों इस प्रकार समझाया गया है-

 

जो व्यष्टि भाव में जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएं कहलाती हैं वही समष्टि भाव में क्रमशः क्षीरसागर, गर्भोदक और कारणार्णव कहलाती हैं।

इन तीनों अवस्थाओं के व्यष्टिभाव में जो बीज होता है वह क्रमशः विश्व, तैजस और प्राज्ञ कहलाता है यही समष्टिभाव में क्रमशः विराट, हिरण्यगर्भ और सूत्रेश्वर कहलाता है।

कहा गया है कि तुरीयावस्था में जहॉं सूत्रेश्वर भी लुप्त रहता है, वह परमसत्ता निस्प्रह, और निष्काम सुसुप्तावस्था में होता है। परन्तु प्रकृति के आलोडन से जब उनमें अस्मिता का बोध होता है तो एक से अनेक होने की भावना से कारणार्णव यानी सुसुप्तावस्था से गर्भोदक अर्थात् स्वप्नावस्था में आकर हिरण्यगर्भ का बीजारोपण होता है और जाग्रद अवस्था में यही क्षीरसागर में ( स्थूलावस्था में)  विश्व रूप में अस्तित्व पाता है। इसे पुराणों में विष्णु का स्वप्न कहा गया है।

आधुनिक वैज्ञानिक केवल बिग बेंग का नाम लेकर इस विश्व को अचानक ही अस्तित्व में आ जाना कहते हैं। वे टाइम और स्पेस के निर्माण अथवा वायु,ऊष्मा, थल और जल के निर्माण बारे में स्पष्टतः कुछ नहीं कहते परन्तु उपनिषद स्पष्टतः  कहते हैं कि -

कारणार्णव से गर्भोदक की अवधि में वह परमसत्ता अपनी शिवानी शक्ति के उपयोग से, बिना किसी वक्रता के अनन्त तरंग लंबाई की ऊर्जा को प्रसारित करते हैं जो आधार का कार्य करता है (जिसे हम आज स्पेस कहते हैं।) इस शिवानी का संवेग जब कुछ धीमा होने लगता है तो भैरवी शक्ति से पूर्वोक्त तरंगों में वक्रता उत्पन्न होने लगती है जो कला कहलाती है और यहीं से ‘काल अर्थात् टाइम’ अस्तित्व में आता है। वक्रता के क्रमशः बढ़ने पर स्पेस और टाइम आपस में और अधिक द्रढ़ता लाकर नए स्तर को बनाते हैं जहॉं भैरवी, भवानी शक्ति में परिवर्तित होकर इस दृश्य प्रपंच भौतिक जगत का निर्माण क्रमशः करती रहती है । कारणार्णव से क्षीरसागर तक की यात्रा का क्रम ‘संचर धारा’ और फिर क्षीरसागर से पुनः कारणार्णव तक वापस जाने की प्रक्रिया को ‘प्रतिसंचर’ कहा गया है।

स्पष्ट है कि हमारे पास यह ज्ञान हजारों वर्ष से सो रहा है और हम केवल दंभ भरते रहे हैं कि हमारे ऋषियों ने यह खोजा वह खोजा ।

यदि तथाकथित पंडितों ने यथासमय इसे ढंग से समझा और समझाया होता तो आज हमारा ज्ञान विज्ञान कितने उच्च स्तर पर होता यह कहने की आवश्यकता नहीं है। मेरा निवेदन है कि केवल यह कहकर कि ‘‘हमारी उपनिषदों में तो यह बहुत पहले से लिखा है जो वैज्ञानिक आज खोज रहे हैं’’ काम नहीं चलेगा, आवश्यकता है इस पर तर्क, विज्ञान और विवेक पूर्ण चिंतन करते हुए उसे नए आयाम देना। इसके लिए सभी प्रबुद्धों को एकसाथ आकर शोध करना होगा, समय की यही मांग है।


Tuesday, 30 May 2023

408 क्या सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ परमेश्वर में भी कोई कमियॉं हैं?

 

उत्तरः- 

आप सभी इस पर मुझसे प्रतिप्रश्न कर सकते हैं कि जब वह परमेश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है तो उसमें कमियॉं ढूंड़ना कहॉं तक उचित है?

अच्छा, आइए जरा विश्लेषण करें-

आप इस बात से तो सहमत ही होंगे कि जबतक भक्त हैं तभी तक भगवान को महत्व देने वाले हैं अन्यथा नहीं। अतः यदि कोई व्यक्ति पापी है और यह मानकर चलता है कि भगवान तो उससे घृणा करेंगे, उसे पास भी नहीं आने देंगे, उसकी ओर देखेंगे भी नहीं, वे कहेंगे कि ‘गैट आउट’ आदि आदि। अब, यदि वह व्यक्ति अपने तर्क और विवेक का उपयोग करता है तो कह सकता है कि ठीक है, मैं बाहर चला जाता हॅूं पर यह तो बता दो कि आपके बाहर है क्या? मैं वहॉं चला जाता हॅूं। तब परमेश्वर क्या कहेंगे? उनके पास क्या उत्तर होगा? कुछ नहीं।

अब, एक अन्य स्थिति पर विचार करते हैं, जैसे पूर्वोक्त पापी व्यक्ति यदि यह सोचता है कि मैं ईश्वर के पास जाकर कुछ मांगॅूं तो वह मुझे दुतकार देंगे, कहेंगे किसी अन्य से मांग लो, मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकता। इस समय भी यदि वह अपने तर्क और विवेक का उपयोग करता है तो उनसे पूछ सकता है कि आप ही बता दें कि मैं अन्य किस के पास मांगने जाऊं? आपके अलावा अन्य कोई ईश्वर हो तो बता दो मैं उनके पास जाकर मांग लेता हॅूं। क्या उस व्यक्ति के इस प्रश्न का उत्तर भगवान के पास होगा? नहीं।

इससे स्पष्ट होता है कि ईश्वर के पास ये दो कमियॉं हॅं-

1. वे किसी से घृणा नहीं कर सकते, क्योंकि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उन्हीं की रचना है अतः वे अपनी किसी भी कृति से घृणा कैसे कर सकते हैं।

2. वे किसी दूसरे ईश्वर का निर्माण नहीं कर सकते क्योंकि यदि ऐसा हो सकता तो किसी एक कृति या घटना पर दो दो प्रकार आदेशों का प्रभाव होने से वह घटित ही नहीं हो पाता और इस संसार का अस्तित्व ही मिट जाता। 


Sunday, 23 April 2023

407 शत्रु कौन और मित्र कौन है?


शत्रु और मित्र में विभेद करना कठिन है क्योंकि उनकी कोई स्पष्ट पहचान कहीं नहीं मिलती। कब मित्र शत्रु हो जाए और शत्रु मित्र यह भी  ज्ञात नहीं होता। विद्वान लोग मित्रों की महिमा में कहते हैं कि जिसे सच्चा मित्र मिल गया उसे सब कुछ मिल गया। 

परन्तु शास्त्र क्या कहते हैं?

शास्त्र कहते हैं कि 

‘‘न कस्यकस्यचित मित्रम न कस्यकस्यचित रिपुम्,

व्यवहारेण जायन्ति मित्राणी रिपवस्तथा।’’

अर्थात् न तो कोई किसी का मित्र होता है और न कोई शत्रु। वह तो अपना अपना व्यवहार ही है जो मित्र या शत्रु को जन्म देता है।

यह बात तार्किक और सत्य लगती है। श्रीमद्भवदगीता में भी मोक्ष मार्ग पर बढ़ने वालों के लिए ही नहीं सबके लिए यह स्पष्ट कहा गया  है कि, 

‘‘उद्धरेदात्मानम् न आत्मानम्वसादयेत्,

आत्मैवात्मानम् बंधु आत्मैव रिपुरात्मनः।’’

अर्थात् अपने आप की उन्नति करना चाहिए न कि अवनति क्योंकि अपना आप ही अपना मित्र है तथा अपना आप ही अपना शत्रु।

स्पष्ट है कि उस विचारधारा और संगति को ही प्रश्रय देना चाहिए जो आत्मोन्नति में सहायक हो। आत्मोत्थान करना ही मानव जीवन का मूल उद्देश्य है, इसलिए अपने आपको अपना मित्र बनाने में ही भलाई है।


Thursday, 20 April 2023

406 सत्य और कल्पना की दृष्टि


हमारे वेदों में इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संबंध में युक्तिपरक व्याख्या की गई है परन्तु पौराणिक युग में उसे कहानियों के माध्यम से समझाने के प्रयास में लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर डाला है।

जैसे, उस परम चैतन्य सत्ता को निर्विकार और निर्गुण अवस्था में ‘ब्रह्म’ या ‘शिव तत्व’ कहा गया है जिसे उपनिषदों के सार श्रीमद्भगवद्गीता में सत्,चित और आनन्द की घनीभूत अवस्था (सच्चिदानन्दघन) कहा गया है। इस अवस्था में वे अपनी प्रकृति(अर्थात् उनकी क्रियात्मक सत्ता या शक्ति) के सभी गुणों (सत, रज और तम) को अपने में ही लीन किए होते हैं। इसीलिए कहा गया है ‘‘शिवशक्त्यात्मकं ब्रह्म’’। प्रकृति के इन तीनों गुणों का स्वभाव परस्पर प्रतिद्वन्द्विता का होता है अर्थात् वे शान्त नहीं रह सकते, अपना अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अन्य गुणों को दबाए रखने के प्रयास में लगे रहते है। प्रकृति के गुणों के इस प्रकार के आलोड़न से जब आनन्दघन सत्ता को अपना आभास होता है तब उनके मन में विचार आता है कि ‘मैं अकेला हॅूं क्यों न बहुत हो जाऊं?’(एकोहं बहुस्याम।) इस विचार के आते ही प्रकृति उनके ही थोड़े से भाग में अपने अनन्त स्वरूपों की रचना में जुट जाती है और अब वह परमसत्ता, साक्षी स्वरूप होकर उसके इस कृत्य को देखने लगते हैं। इस स्थिति में उन्हें  एक दार्शनिक नाम ’ब्रह्मा’ कहा जाता है, (ध्यान दीजिए ब्रह्म से वे हुए ब्रह्मा)। इसलिए इस समग्र सृष्टि को ही उनका सगुण रूप कहा गया है जिसे सूत्र में समझाया गया है ‘‘ सर्वं खल्विदं ब्रह्म’’। क्षण भर में ब्रह्मांड की उत्पत्ति होने को आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है।

इस संकल्पना को समझाने के लिए पुराणों में अपनी अलग काल्पनिक कहानियॉं गढ़ कर जनसामान्य को बताया गया है कि काली माता शिव के वक्षस्थल पर नृत्य करती हैं। इस प्रकार के चित्र सभी जगह देखने में आते हैं कि बेसुध लेटे हुए शिव की छाती पर पैर रखे काली देवी अपनी जीभ बाहर निकाले हुए हैं। इसके पीछे लम्बे काल्पनिक दृष्टान्तों का भी विवरण दिया गया है। इस प्रकार कहानियों के पात्रों को सत्य मानकर उनकी पूजा की जाने लगी है और असली शिव तत्व को भूलकर अपने मन के देवों के देव महादेव, या भोलेनाथ को भांग धतूरा खिला कर बेहोश ही रहने दिया जाता है! 

इस संबंध में आधुनिक शोधकर्ताओं के अनुसार 93 बिलियन लाइटईयर व्यास  वाला यह ब्रह्मांड, 13.75 बिलियन वर्ष पूर्व अचानक ही अस्तित्व में आया परन्तु इस पर जीवन का संचार बहुत बाद में हुआ। मनुष्य लगभग एक लाख साल पहले अस्तित्व में आए परन्तु मानव सभ्यता लगभग सोलह हजार साल पुरानी ही है। इसमें अपने अपने ढंग से जीवन व्यतीत कर रहे लोगों को नई दिशा देने और सही जीवन पद्धति से परिचय कराने के लिए आज से 7 हजार साल पहले एक सरल, शान्त, तेजस्वी और साहसी  व्यक्तित्व अस्तित्व में आया जिसका कार्य था सदा सबकी भलाई करना, सभी को कल्याण का रास्ता दिखाना। उनका नाम हुआ सदाशिव। सदाशिव ने जीवन का ऐसा कोई कोना नहीं छोड़ा जिस पर उन्होंने जनसामान्य को सच्चाई का अनुभव न कराया हो। उन्होंने बिखरे ज्ञान को एकत्रित कर उचित रूप दिया और विद्यातन्त्र के नाम से अपने पुत्र भैरव और पुत्री भैरवी को प्रशिक्षित कर सबको सिखाने का दायित्व दिया। अपने अन्य पुत्र कार्तिकेय जो बर्हिमुखी थे, को सैन्य विद्या और सुरक्षा के कार्य में निपुण बनाकर संगठन का कार्य सौंपा, धन्वन्तरी को वैद्यक विज्ञान में पारंगत कर सभी वनस्पतियों के औषधीय गुणों से परिचय कराकर लोगों को स्वस्थ बनाने का दायित्व सौंपा, नन्दी को कृषिकार्य और पशुपालन तथा विश्वकर्मा को भवन निर्माण और स्थापत्य कला में पारंगत कर लोगों को घर बनाकर रहना सिखाने का कार्य दिया। जीवन को सरस बनाने के लिए उन्होंने भरत मुनि को संगीत की शिक्षा दी और जनसामान्य को वाद्य, नृत्य और गायन सिखाने का दायित्व दिया। इस प्रकार सदाशिव ने व्यवस्थित जीवन जीने और जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने जैसे दुरूह कार्य कर समाज का निर्माण करने में अपना अमूल्य योगदान दिया। परन्तु उनके इस योगदान को भूलकर क्या हमने उन्हें गंजेड़ी, भंगेड़ी बनाकर उनके व्यक्तित्व को विकृत नहीं कर दिया है? इन शोधकर्ताओं ने पूर्व वर्णित लेटे हुए शिव की छाती पर काली के नृत्य करने की घटना को इस प्रकार समझाया है-

शिव के द्वारा सिखाई गयी विद्यातंत्र साधना की विधि को श्मशान में प्रारंभिक अभ्यास करने हेतु जाने के समय एक बार बहुत देर हो जाने पर काली को अपनी पुत्री भैरवी के संबंध में बहुत चिंता होने लगी और वह उसे देखने श्मशान में पहुंची। वहां पर शिव बहुत गंभीर ध्यान में मग्न थे। काली, श्मशान में अंधेरे में चलते हुए रास्ते में शिव से टकरा गयीं। शिव ने पूछा, कस्त्वम्? अर्थात् तुम कौन हो? काली घबराईं, पहले अपना नाम काली का ‘का‘ ही उच्चारित कर पायीं फिर डरती हुई भैरवी उच्चारित करने के प्रयास में बोल गयीं ‘‘का...वै...री‘‘ असम्यहम्। अर्थात् मैं कावेरी हूॅं, तब से उनका एक नाम ‘कावेरी’ हो गया। इस घटना को पुराणकार ने काली को नग्नावस्था में शिव के ऊपर पैर रखे जीभ बाहर निकाले हुये वर्णित किया है!


Monday, 3 April 2023

405 ध्यान का विषय क्या हो अर्थात् किसका ध्यान किया जाय?

 

अनेक विद्वान अपने अपने ढंग से इस प्रश्न का उत्तर देते हैं परन्तु संतोषप्रद नहीं पाए जाते हैं। जैसे, कुछ लोग कहते हैं कि ‘काल अर्थात् समय’ ही सब कुछ है उससे ताकतवर और कोई नहीं है, इसलिये वही ध्यान करने योग्य है। परन्तु सभी जानते हैं कि विज्ञान के अनुसार समय अर्थात् टाइम दो घटनाओं के बीच का अन्तराल ही है जो अन्तरिक्ष में चौथी डायमेंशन के रूप में स्वीकृत है। इतना ही नहीं विज्ञान में ‘‘समय’’ को स्पेस के साथ बुना हुआ लचीला रेशा भी कहा गया है। परन्तु सच्चाई यह है कि वैज्ञानिक भी स्पष्टतः उसे पारिभाषित नहीं कर पाते हैं।

 चिंतन करने के बाद ऋषिगण कहते हैं कि ‘समय या काल‘ वास्तव में क्रिया की गतिशीलता का मानसिक मापन है जबकि पात्र, मन की सहायता से इसे ग्रहण करने वाला और स्पेस, पात्र तथा काल के बीच सम्बंध स्थापित करने वाली सत्ता है। स्पष्ट है कि समय अलौकिक घटक नहीं है।  इसका कारण यह है कि जहॉं क्रिया नहीं होगी वहॉं समय भी नहीं होगा। जैसे सूर्य के चारों ओर धरती चक्कर लगाती है इससे हम सौर वर्ष, सौर माह , सौर दिन पाते हैं और चन्द्रमा धरती के चक्कर लगाता है जिससे चन्द्र वर्ष, चन्द्र मास और चन्द्र दिन पाते हैं। यह सभी गतियॉं हमारे मन के द्वारा किये गये मापन से ही इन नामों के द्वारा प्रकट की जाती हैं। इसलिये मन एक सापेक्षिक घटक है, मन और गतिशीलता में से किसी एक के न होने पर समय का कोई अस्तित्व नहीं होता। स्पष्ट है कि काल या समय परम या निर्पेक्ष घटक या अखंड सत्ता नहीं है इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकता। 


-तो क्या ‘प्रकृति या स्वभाव’ को ध्यान का विषय माना जा सकता है?

परन्तु प्रकृति ब्रह्मॉंड का क्रियात्मक पक्ष ही है। किसी समय विशेष पर क्रियात्मक पक्ष द्वारा प्रयोग में लाई गयी प्रणाली ही प्रकृति कहलाती है। कुछ लोग मानते हैं कि प्रकृति से ही ब्रह्मॉंड उत्पन्न हुआ है जो गलत है। यह तो उस क्रियात्मक सिद्धान्त की शैली है इसलिये यह सर्जनात्मक सत्ता नहीं है। पदार्थवादियों ने प्रकृति को सर्जनात्मक माना है जो सही नहीं है, इसलिए प्रकृति या स्वभाव को ध्यान का विषय नहीं माना जा सकता।


-तो क्या भाग्य को ही मार्गदर्शक घटक मान लेना चाहिए?

 ऋषियों का उत्तर है नहीं। क्योंकि भाग्य मानव की गतिशीलता को नियन्त्रित नहीं करता। भाग्य क्या है? वह है हमारे पिछले अभुक्त संस्कारों का परिणाम। सभी को अपने अपने अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। जब तक क्रिया की प्रतिक्रिया को (जो बीज रूप में रहती है) पूरी तरह सन्तुष्ठ हो जाने का अवसर नहीं मिलता है तब तक मुक्ति नहीं मिलती। यही सुप्त बीज रूपी संस्कार भाग्य कहलाते हैं अतः वे मार्गदर्शक कैसे हो सकते हैं? 

 तर्क-परन्तु कुछ लोग जैसे ज्योतिषी कहते हैं कि इस धरती पर या अन्य ग्रहों की संरचना और उनकी स्थिति के आधार पर ही जीवों का जन्म होता है। 

 ऋषियों का उत्तर है, नहीं यह भी सच नहीं है। जिस प्रकार के किसी ने कर्म किए होते हैं उस प्रकार की ग्रह स्थिति के अनुसार ही उसे संस्कार भोग पाने का अवसर जुट पाता है और उसे जन्म मिलता है, और अपने पूर्व कर्मों के अनुसार सुख या दुख मिलता है। स्पष्ट है कि ग्रह जीवों को नियंत्रित नहीं करते उनके अपने कर्म ही उन्हें नियंत्रित करते हैं। जहॉं मूल क्रिया अथवा कर्म का पता नहीं होता है परन्तु उसका फल मिलता है तो उसे कहते हैं नियति। इसलिए भाग्य न तो नियंत्रक और न ही रचनात्मक घटक है अतः वह ध्यान का विषय भी नहीं हो सकता।

अन्य लोग जो इसको एक दुर्घटना अर्थात् एक्सीडेंट मानते हैं, वे अपने अज्ञान को छिपाने के लिय यह कहते हैं। ब्रह्मॉंड में कुछ भी बिना कारण के नहीं घटित होता, यह अलग बात है कि हमें वह पहले से मालूम हो भी सकता है और नहीं भी। हॉं, कभी कभी यह हो सकता है कि वह कारण बहुत कम समय के लिए अपना प्रभाव डाले, जिसे लोग एक्सीडेंट कहने लगते हैं। यह उचित नहीं है अतः भाग्य भी ध्यान करने का विषय नहीं हो सकता।


- तो क्या पदार्थ को ही सब कुछ मान लिया जाए?

 ऋषियों का उत्तर है कि, यदि पदार्थ ही सब कुछ होता तो ‘कारण मन‘ उससे कैसे आ सकता है? मन पदार्थ से श्रेष्ठ होता है, मानव बुद्धि और आत्मा उससे भी श्रेष्ठ होती है। इसलिए पदार्थ को पूजा का या ध्यान का विषय नहीं बनाया जा सकता अन्यथा वह व्यक्ति पदार्थ में ही बदल जा सकता है। 


- तो क्या जीवात्मा को ध्यान करने हेतु मूल तत्व माना जा सकता है?

  ऋषियों का उत्तर है नहीं, क्योंकि असंख्य जीवात्मा हैं, हर सत्ता की अपनी जीवात्मा है। इतना ही नहीं पदार्थों में भी जीवात्मा है यह अलग बात है कि उनका मन अविकसित होने से वे उसका अनुभव नहीं कर पाते। किसी भी इकाई मन के सुख दुख के अनुसार वह जीवात्मा भी प्रभावित होती रहती है, जैसे दो टीमें फुटवाल मैच खेलती हैं, सामान्य दृष्टाओं के लिए उनके जीतने हारने से कोई मतलब नहीं है परन्तु फिर भी मैच देखते हुए मन प्रभावित होता है कि नहीं?  इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं, जैसे दर्पण का कोई रंग नहीं है परन्तु लाल रंग का फूल उसके सामने लाने पर वह लाल दिखने लगता है वैसे ही जीवात्मा भी सुख दुख से प्रभावित होती है। अतः स्पष्ट है कि कोई विशेष जीवात्मा, विशेष सत्ता या इकाई चेतना पूरे ब्रह्मॉंड की उत्पत्ति का मूल कारण नहीं हो सकती इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकती । 

- तो क्या काल, प्रकृति या स्वभाव, नियति, और दुर्घटना, इन सब घटकों का संयोजन ब्रह्मॉंड की उत्पत्ति का मूल घटक है?

 ऋषियों का उत्तर है, नहीं, क्योंकि इनमें प्रत्येक में कोई न कोई अपूर्णता अवश्य है अतः ये अथवा ये सभी मिलकर भी ब्रह्मॉंड के होने का परम कारण नहीं हो सकते । 

तर्क- परन्तु कुछ लोग तो महामाया को इसका कारण मानते हैं?

 ऋषियों का उत्तर है, महामाया अर्थात् क्रियात्मक सत्ता कोई भी कार्य कर सकती है परन्तु संज्ञानात्मक सत्ता की स्पष्ट अनुमति के बिना कुछ नहीं कर कर सकती। शिव के बिना शक्ति का पृथक अस्तित्व नहीं है, अतः महामाया भी ब्रह्मांड की रचना का मूल कारण नहीं है, ध्येय नहीं है।

-इकाई चेतना कर्मफल के अनुसार रूप बदलती रहती है, प्रकृति भी सदा ही अपने रूप बदलती रहती है तो फिर वह कौन है जो इनका संज्ञान रखता है, जिसे अपना ध्येय बनाया जाए? 

ऋषियों का उत्तर हैः-

अब सोचिए जैसे, आप हो, आपके होने का आप ही अनुभव करते हो, परन्तु आपके अस्तित्व का साक्ष्य कौन देता है कि आप हो ? वही संज्ञानात्मक परमसत्ता जिससे सभी आते हैं, जिसमें रहते हैं और अन्त में जिसमें जा पहॅुंचते हैं । इस सत्ता को ही शिव, परमब्रह्म या अखंडसत्ता कहते हैं। केवल यही चिन्तन करने योग्य, ध्यान करने योग्य, मनन करने योग्य और पूजनीय ह,ै अन्य सब व्यर्थ है।


Wednesday, 29 March 2023

404 स्वाहा और स्वधा क्या हैं? यज्ञोपवीत, प्राचीणवीत और निवीत क्या हैं?

  

क्रिया के पूर्ण होने का ध्वन्यात्मक मूल है ‘स्वाहा‘, अर्थात् घी को आग में डालने पर स्वाहा नहीं कहा जा सकता जब तक कि वह पूरा जल नहीं जाता। जब कोई दिव्य कार्य करना होता है तभी स्वाहा बोला जाता है। पवित्र काम के लिये चाहे वह भौतिक, मानसिक या आध्यात्मिक कोई भी हो उसका नियंत्रक ध्वन्यात्मक मूल है स्वाहा। विशेषतः स्वाहा को आहुति देते समय कहा जाता है अतः इस अर्थ में वह ध्वन्यात्मक मूल ‘स्वधा’ से संबंधित है। स्वधा का सामान्य अर्थ है ‘जो आत्म विश्वासी हो‘ इसलिये स्वधा का उपयोग पूर्वजों को आहुति देने में किया जाता है। प्राचीन काल में स्वाहा और स्वधा समानार्थी थे पर बाद में स्वाहा ‘‘ कल्याण हो‘‘ के अर्थ में और स्वधा ‘‘ भगवान आपको शान्ति दे‘‘ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। इसीलिये स्वाहा का उपयोग देवी देवताओं के लिये और स्वधा का उपयोग पूर्वजों की स्मृति के लिये किया जाने लगा।

प्राचीन काल में देवताओं और पूर्वजों को आहुति देने के पहले लोगों को बड़े संयम के काल से गुजरना पड़ता था अतः इस प्रारंभिक तैयारी के समय को अधिवास कहते थे।  जहॉ तक ज्ञात है वैदिक युग में लोगों की सबसे कमजोरी थी सुरा या सोमरस या मद्य, को पीने की। अतः अधिवास के समय पुजारी लोग अपने कंधे पर मृगचर्म डाले रहते थे ताकि अधिवास के समयान्तर में कोई उन्हें सुरापान के लिये निमंत्रित न करे। जब धार्मिक कार्य किया करते थे और स्वाहा उच्चारित करते थे तब वे मृगचर्म को बॉंयें कँधे पर ले लेते थे और मृगचर्म को यज्ञोपवीत कहा जाता था, पर यदि वे पूर्वजों के लिये धार्मिक कार्य करते थे तो स्वधा मंत्र का उच्चारण करते और मृगचर्म को दायें कँधे पर डाल लेते थे इसे प्राचीणवीत कहा जाता था। जब वे इन में से कोई कर्म नहीं कर रहे होते तो वे मृगचर्म को गले में चारों ओर लपेट लेते थे जिसे निवीत कहा जाता था। देवताओं के कार्य के लिये स्वाहा मंत्र के साथ सम्प्रदान मुद्रा का, त्योहारों पर वोषट और वषट मंत्रों के साथ वरद मुद्रा का और स्वधा मंत्रों का उपयोग करते समय अंकुश मुद्रा का उपयोग किया करते थे।


Tuesday, 28 March 2023

403 ‘‘विवाह’’

 

सभ्यता के उद्गम के पूर्व समाज में बहुत विकृतियॉं थीं। सामाजिक संगठन, परस्पर सौहार्द और महिलाओं के प्रति पुरुषों के उत्तदायित्व का कोई अस्तित्व नहीं था अतः महासम्भूति सदाशिव ने समाज के सभी लोगों को ‘‘विशेष व्यवस्था के अन्तर्गत जीवन निर्वाह करने’ की सामाजिक संरचना की स्थापना की जिसे ‘‘विवाह’’ कहा जाता है। विवाह के बाद पति और पत्नी को परस्पर एक दूसरे के प्रति समर्पित रहकर अपनी संतान के पालन पोषण करने का समान उत्तरदायित्व देने को ही विशेष व्यवस्था के अन्तर्गत जीवन निर्वाह करना कहा गया है। इस व्यवस्था में उत्तरदायित्व निभाने के लिए सर्वप्रथम भगवान सदाशिव ने अपने को ही उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया और प्रथम विवाहित पुरुष कहलाए। आज जो भी विवाह होते हैं वे इसी परम्परा के अन्तर्गत शैव विवाह कहलाते हैं। शिव के विवाह से जुड़ा हुआ दिन शिवरात्रि के नाम से मनाया जाता है। शिव की संतानों में भैरव, भैरवी और कार्तिकेय का योगदान शिव द्वारा स्थापित सामाजिक सरचना को सुदृढ़ करने में देखा गया है। शिव को स्वयंभू कहा गया है अतः उनके जन्म और महाप्रयाण का किसी को कुछ भी पता नहीं है अतः उनके जन्मदिन या महाप्रयाण मनाने का कोई दिन नहीं है।


Tuesday, 14 March 2023

402ओम ओम चिल्लाना?

 

अनेक गोष्ठियों में बहुत चिंतन मनन करने के बाद ऋषियों ने पाया कि इस ब्रह्मांड अर्थात् ‘कॉसमस’ की तीन लाक्षणिकताएं हैं। वे हैं, उत्पन्न होना, नियत समय तक बने रहना और अंत में समाप्त हो जाना। जब उन्होंने इन्हें अभिव्यक्त करने का प्रयास किया तो ध्वनियों के समूह से प्रत्येक के लिए बीज मंत्रों की तलाश हुई। सर्वसम्मति से ‘उत्पत्ति’ के लिए ‘अ’, निर्मित की गई वस्तुओं का पालन करने के लिए ‘उ’ और उनके वापस चले जाने को ‘म’ बीज मंत्र दिया गया। जब तीनों बीज मंत्रों को संयुक्त कर एक साथ ब्रह्मांड के अस्तित्व को दर्षाने का प्रयत्न किया गया तो पता चला कि जो ध्वनि बनती है उसे गले से उच्चारित ही नहीं किया जा सकता परन्तु यह ध्वनि ब्रह्मांड के निर्माण के समय से ही उत्पन्न हुई है और आज भी ज्यों की त्यों अनुभव की जा सकती है। ‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ को संयुक्त रूप से प्रकट करने के लिए उन्होंने ‘‘ॐ‘‘ इस अक्षर को प्रतीकात्मक ढंग से स्वीकार किया और संयुक्त ध्वनि को ‘ओंकार ध्वनि’ नाम दिया। सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों में जब अभ्यास चरम पर पहुंच जाता है तब अंत में अपने अस्तित्व के बीज मंत्र की ध्वनि को इस ओंकार ध्वनि के साथ अनुनाद कराने का अभ्यास सद्गुरु द्वारा कराया जाता है। इस अनुनाद की अवस्था में व्यक्ति अलौकिक आनन्द की अनुभूति करता है और इसी के साथ वह आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ता है। इसे महत्व देने के लिए बाद में ऋषियों ने वेद मंत्रों के प्रारंभ और अंत में इसे जोड़ दिया ताकि शोधकर्ता यह जान सकें कि किसी भी मंत्र का गूढ़ार्थ समझने के लिए इस ओंकार ध्वनि के साथ अनुनादित होना महत्वपूर्ण है। जैसे, गायत्री छंद में लिखी गई सर्वोत्तम प्रार्थना मूलतः यह है- ‘‘भूः, भुवः, स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यम, भर्गोदेवस्य धीमही, धियोयोनः प्रचोदयात्।’’ परन्तु बाद में इसे, ‘‘ॐ भूः, भुवः, स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यम, भर्गोदेवस्य धीमही, धियोयोनः प्रचोदयात् ॐ ।’’ लिखा जाने लगा।

आपने  देखा होगा कि सभी लोग इस ओंकार ध्वनि को  ‘ओम’ ओम’ इस प्रकार जोर जोर से उच्चारित करते हैं और मानते हैं कि उन्होंने मंत्र जान लिया। परन्तु ऊपर स्पष्ट किया गया है कि ओंकार ध्वनि तो अ, उ, और म की संयुक्त ध्वनि है जिसमें उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों का समावेष होने के कारण वह हमारी वर्णमाला के सभी 50 अक्षरों की संयुक्त ध्वनि से मिलकर बनी है। वर्णमाला के इन पचास अक्षरों की संयुक्त ध्वनि को किसी भी व्यक्ति द्वारा अपने गले से उच्चारित ही नहीं किया जा सकता अतः उसे जोर जोर से चिल्लाने का भी कोई फायदा नहीं है। फायदा तो तब मिलता है जब आप अपने गुरु द्वारा बताए गए बीज मंत्र को इस ध्वनि के साथ हृदय में अनुभव कर अनुनादित करें। परन्तु इस संबंध में किसी को भी रुचि नहीं है वे तो चाहते हैं कि ‘ओम ओम’ जोर से चिल्लाने में ईष्वर उनकी मनोकामना पूरी कर देंगे!


Monday, 13 March 2023

401योग्य और अयोग्य आध्यात्मिक शिक्षक


जब भी संसार में आध्यात्मिक संस्कृति का पतन होता है तब आध्यात्म के जिज्ञासुओं और योग्य प्रवक्ताओं की भी कमी आ जाती है। इस आधुनिक संसार में उन्नत और विकसित आध्यात्म विज्ञान सरलता से उपलब्ध है परन्तु, जिज्ञासुओं और आध्यात्मिक रूपसे प्रवीण व्याख्याकारों का नितान्त अभाव है। योग्य आध्यात्मिक शिक्षक वह हैं जिनका उन्नत एकीकृत दृष्टिकोण हो और वे उसे अपने छात्रों तक सम्प्रेषित करने की योग्यता रखते हों। दुर्भाग्य से अनेक तथाकथित आध्यात्मिक शिक्षक संकीर्ण और दोषपूर्ण विचारों का आध्यात्म के नाम पर प्रचार करते पाए जाते हैं जिसके पीछे उनका व्यक्तिगत स्वार्थ ही निहित होता है।

इतना ही नहीं, कुछ लोग धार्मिक कथाओं को सुनाकर कहा करते हैं कि कोई विशेष देवता अपने प्रिय और विश्वसनीय भक्तों को विशेष शक्ति, धन, पद और प्रतिष्ठा देते हैं और उन्हें न मानने वालों को निर्दयता से दंडित करते हैं। अपने भोले भाले भक्तों की मानसिक कमजोरियों का लाभ उठाने के लिए वे हर अवसर की तलाश में जुटे रहते हैं। आध्यत्मिक प्रशिक्षण देने के नाम पर ऐसे लोग इधर उधर की कहानियों को सुनाकर उन भक्तों की आध्यात्मिक प्रगति में बाधा ही उत्पन्न करते हैं। ये वही लोग होते हैं जो संकीर्ण मानसिकता और विविध दृष्टिकोणों को पालते हुए धर्म का व्यापार करते हैं और समाज को अनेक ऊॅंच नीच की भावनाओं भरे अनेक समूहों (जैसे भारतीय, अमेरिकन, रशियन या जर्मन आदि) में बॉंटते हैं।

400 सच्चे साधकों को कष्ट ही भोगते क्यों देखा जाता है?


ब्रह्म साधना करने वालों के संस्कार अन्य साधारण लोगों की तुलना में शीघ्र ही क्षय होते हैं । इसका कारण यह है कि जब मूल क्रियाओं को परमपुरुष के समक्ष समर्पित कर दिया जाता है तो केवल उनकी प्रतिक्रिया को ही भोगना शेष बचता है, ये प्रतिक्रियाएं अच्छी या बुरी हो सकती हैं जो कि मूल क्रियाओं पर आधारित होती हैं। परन्तु, जरा सोचिए कि साधना पथ पर चलने के पहले कितने काम अच्छे किए और कितने बुरे? कटुसत्य तो यह है कि उनमें अधिकॉंशतः बुरे ही होते पाए जाते हैं। यही कारण है कि साधक गण जैसे जैसे साधना में आगे बढ़ते जाते हैं, अच्छे संस्कारों का आनन्द लेने के स्थान पर बहुधा बुरे संस्कारों को भोगते देखे जाते हैं। हॉं, यह हो सकता है कि परिणाम भोगते समय कष्ट का अनुभव न हो परन्तु यह उनकी मूल क्रियाओं की प्रकृति पर निर्भर होता है। प्रत्येक दशा में ब्रह्म के प्रति मूल क्रियाओं के समर्पण का स्तर जितना अधिक होगा उतना ही कम समय प्रतिक्रियाओं को भोगने में लगेगा। सामान्य अवस्था में प्रतिक्रियाओं या संस्कारों के क्षय होने की तुलना में यदि उनके क्षय होने की गति तेज होती है तो यह अच्छा संकेत माना जाता है क्योंकि संस्कारों का क्षय कम समय में ही हो जाएगा।

साधक को ‘काम लिप्सा’ में डूबने से न तो उसकी आध्यात्मिक प्रगति होती है और न ही समाज को कुछ लाभ होता है। यह तो केवल स्वार्थमय भटकाव है। इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप नकारात्मक संस्कार, बीमारी या अपमान के रूप में भोगना पड़ते हैं। इनसे बचने या खींचतान करने का कोई उपाय नहीं है। जो साधना नहीं करते उनके साथ ये प्रतिक्रियाएं अपना समय आने पर ही घटित होती हैं भले ही वे अनेक जन्मों के बाद घटें परन्तु उनका परिणाम भोगने से कोई बच नहीं सकता।

Saturday, 11 March 2023

399 असली बंधु बांधव अर्थात् सगे संबंधी

 

चंद्रगुप्त मौर्य को राज्य दिलाने के बाद चाणक्य स्वयं अपना आश्रम बनाकर दूर रहने लगे थे। आश्रम में ही वे अपनी साधना के अलावा नीति, धर्म और दर्शन पर अपना लेखन जारी रखते थे। उनकी प्रसिद्धि पाकर अनेक विद्वान उनसे आश्रम में ही मिलने आते थे, अपनी समस्याओं का समाधान करते और गूढ़ विषयों पर विचार विनिमय किया करते थे। 

एक बार उनसे लिने आए एक विद्वान ने पूछा, ‘‘ आपके कितने बंधु बांधव हैं?’’

चाणक्य ने उत्तर दिया, ‘‘छः’’। 

उन्होंने कहा ‘इस कुटिया में 6 लोग कैसे रहते हैं और अभी वे कहां हैं?’ 

उत्तर मिला, 

‘‘सत्यं माता, पिता ज्ञानम्, बुद्धिः भ्राता, दया सखा। शांति पत्नी, क्षमा पुत्रः षष्ठेते मम बांधवाः।’’

अर्थात् सत्य मेरी माता, ज्ञान पिता, बुद्धि भाई, दया मित्र, शांति पत्नी और क्षमा पुत्र आदि, ये ही छः मेरे सगे संबंधी  हैं।


Tuesday, 7 March 2023

398 रंगोत्सव अर्थात् वर्णार्घ्य दान

 

शास्त्र में परमपुरुष के बारे में कहा गया है ’रसो वै सः।’ अर्थात् वे आनन्दमय, रसमय सत्ता हैं। अणुमन अर्थात् यूनिट माइंड को जब तक शतप्रतिशत सरस नहीं बना लिया जाता वह रसघन आनन्दमय सत्ता के साथ एकात्मता स्थापित नहीं कर पाता है। जो वास्तव में भक्त हैं, वे इस तत्त्व को जानते हैं, इसीलिए भक्तगण क्या करते हैं? वे परमपुरुष से कहेंगे- मेरी जो त्रुटि-विच्युति है वह सभी रहने दो, किन्तु यह, विद्वत्ता की अभिव्यक्ति या विद्या या धन को पाने के प्रति मेरी जो दुर्बलता है ये समाप्त कर दो, क्योंकि तुम्हें छोड़ अब अन्य कुछ माँगना मेरी भूल होगी।  यह भौतिक जगत की रंगीन वस्तुएं मांगकर जो मैंने भूल की है, अन्याय किया है, इससे वर्णमय जागतिक वस्तु माँगते ही मुझमें जो सामयिक रंगीनता आ गई, उसे मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ। मैं अपनी भूल सुधार कर अपने मन के वर्ण अर्थात् मन पर चिपके जागतिक रंगों को तुम्हारे वर्ण अर्थात् रंग में मिला कर मैं वर्णहीन (रंगहीन) होना चाहता हूँ। 

इस प्रकार अपनी मानस चिन्तन से हुई वर्णाधीनता की त्रुटि के लिए मैं मिटा देना चाहता हूँ। भक्त की इस प्रकार की वर्णातीत होने की भाव साधना को ही वसन्तोत्सव या रंगोत्सव या होली कहा जाता है। यही इसका मूल आध्यात्मिक यथार्थ है।

दर्शन में कहा गया है ‘‘परमपुरुष ही एकमात्र वर्णातीत अर्थात् रंगहीन सत्ता हैं’’ उनकी इच्छा से ही इस ब्रह्मांड के अजस्र वर्णों की सृष्टि हुई है। मनुष्य यदि अपने स्वयं के वर्णों को परमपुरुष को दे दे तो वह भी वर्णहीन हो जाएगा, परमपुरुष में मिल जाएगा। वह परमपुरुष से कुछ नहीं मांगेगा। यदि माँगना ही है तो एक ही वस्तु माँगना चाहिए वह है, “हे परमपुरुष, तुम यदि वास्तव में कुछ देना चाहते हो तो मेरी बुद्धि को शुभत्व के साथ संयुक्त करो- मुझे सद्बुद्धि दो, ताकि मैं तुम्हारे चरण कमलों में  स्वयं को सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर सकूँ।“ 

अर्थात् अपने सभी रंगों (वर्णों) को उन्हें ही समर्पित कर देना चाहिए, इसी के लिए वर्णार्घ्य दान करना कहते हैं। यह केवल होली को ही नहीं प्रतिदिन करना चाहिए। योगी प्रतिदिन होली खेलते हैं।


Thursday, 23 February 2023

397 उत्तमो ब्रह्मसद्भावो

वर्तमान में भगवान की पूजा करने के अनेक प्रकार प्रयुक्त किये जाते हैं अतः जन सामान्य के मन में  यह प्रश्न सदैव बना रहता है कि यथार्थतः वे किस का अनुसरण करें और किसका त्याग करें क्योंकि सभी प्रकारों का पालन करना न केवल भ्रमित करता है वल्कि लक्ष्य तक पहुॅंचाने से भटका भी सकता है। इसलिये आध्यात्म जगत में वहुचर्चित कुछ शब्दावलियों पर अच्छी तरह चिंतन कर लेने के बाद ही जो सर्वोत्तम हो उसी का अनुसरण किया जाये तो अपेक्षतया शीघ्र सफलता मिलती है। आध्यात्म चिंतन के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले महत्वपूर्ण पदों में से कुछ निम्नॉंकित प्रकार से समझे जा सकते हैं और इनमें से भी ब्रह्मसद्भाव को ऋषियों ने सर्वोत्तम माना है। आशा है सभी मित्र इन्हें हृदयंगम कर आनन्दित होंगे।

तन्मात्रा-  तत़्  +  मात्रा = तन्मात्रा । तत् अर्थात् वह। मात्रा अर्थात् न्यूनतम राशि। इसका संयुक्त अर्थ हुआ उस (अर्थात् परमपुरुष) की न्यूनतम राशि। सभी ज्ञानेद्रियॉं, तन्मात्राओं के सहारे ही भौतिक जगत का ज्ञान प्राप्त कर पाती है। इन्हें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के नाम से जाना जाता है। आत्मसाक्षात्कारियों द्वारा गंध तन्मात्रा को उस परंपुरुष की सबसे स्थूल तरंगें माना जाता है। 

पूजा अथवा पूजन- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यन्त आदर प्रकट करता है जिसमें बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है या इन वस्तुओं का नहीं भी अर्पण करता है तो उसे पूजा या पूजन कहते हैं।

अर्चा या अर्चना- जब कोई व्यक्ति केवल स्वार्थवश अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यन्त आदर प्रकट कर बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल, तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है तो इसे अर्चा या अर्चना कहते हैं।

प्रार्थना- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति गहरे मन से बिना किसी बाहरी सामग्री के साथ अत्यन्त आदर प्रकट करता है तो उसे प्रार्थना कहते हैं।

विधिपूजन- ऊपर वर्णित पूजा की विधियॉं, धार्मिक कर्मकांडियों द्वारा अनेक भागों में कराई जाती हैं जैसे, अंगन्यास, करन्यास, आचमन, शिखाबंधन, आवाहन, माल्यदान, तिलकधारण, और विसर्जन। इस प्रक्रिया सहित पूजन करने को विधिपूजन कहते हैं।

उपासना - उप का अर्थ है समीप या निकट, और आसना का अर्थ है बैठना। इस प्रकार उपासना का अर्थ हुआ निकट बैठना। पर किसके निकट? अपने आराध्य के निकट वैठने के कार्य को कहेंगे उपासना। इस कार्य को दार्शनिक भाषा में ईश्वरप्रणिधान भी कहते हैं।

ईश्वरप्रणिधान- वह यौगिक क्रिया जिसमें साधक अपनी मूल आवृत्ति को परमसत्ता की मूल आवृत्ति के साथ समानातर लाने का अभ्यास करता है ईश्वरप्रणिधान कहलाती है।

आराधना- राधाभाव बहुत ही उच्च स्तर का भक्तिभाव है यह किसी महिला का नाम नहीं है जिसे पुकार कर बुलाया जा सके। यौगिक विधियों के सतत अभ्यास और ईश्वरप्रणिधान के लगातार प्रयास से यह भाव अपने आप प्रकट होता है। स्पष्ट है कि राधा भाव को जागृत करने के लिये किये गये उपायों को आराधना कहते हैं।  केवल परमपुरुष ही वास्तविक और निर्पेक्ष सत्ता हैं और ज्योंही जीव उनकी ओर बढ़ने का प्रयास करते हैं तो वे उन्नत होने लगते हैं। उन्नयन के बहुत सूक्ष्म स्तर पर पहुंचने पर उनका मन कुशाग्र होकर उन्हीं में मिलना चाहता है, यही कुशाग्रतापूर्ण मिलने का भाव राधा भाव कहलाता है। इसमें भक्त सोचने लगता है कि प्रभु से मिले बिना उसके  अस्तित्व का कोई औचित्य नहीं है । जब इस अवस्था में पहुंचने वाले साधक अपने आराध्य से एक सेकेंड/एक क्षण भी दूर नहीं रहना चाहते तब कहा जाता है कि उसने ‘‘राधा भाव’’ प्राप्त कर लिया है। यह भक्त अपने आराध्य में मानसिक रूपसे मिल जाने के अलावा कोई विचार नहीं लाते इसे ही आराधना कहते हैं। ये सर्वोत्तम प्रकार के भक्तगण ही ‘राधा‘ कहलाते हैं चाहे पुरुष हों या महिला या कोई और।

ब्रह्मसद्भाव- वह विशेष प्रकार की पूजा जो निस्वार्थ भाव से बिना किसी वाह्य सामग्री के साथ अपने आराध्य के ध्यान में की जाती है उसे ब्रह्म चिंतन या ब्रह्मसद्भाव कहते हैं। इसके स्थायी हो जाने पर साधक की मूल आवृत्ति और परमपुरुष की मूल आवृत्ति में अनुनाद (resonance) होने लगता है और वह परमानन्द का अनुभव करता है, ऋषियों ने इस आनन्द को विभिन्न प्रकार की समाधियों के नाम से समझाया है। वेदान्त में पूजा का सर्वोत्तम प्रकार यही है।

धुवास्मृति- परमात्मा समग्र ब्रह्मॉंड का कर्ता और समग्र ब्रह्मॉड उसका कर्म है। इसलिये उन्हें अपना कर्म नहीं बनाया जा सकता। तब क्या किया जाय? इसके लिये यह विचार सदा करना होगा कि वह हमें लगातार देख रहे हैं। बुद्धिमान लोग परमात्मा को अपना विषय नहीं बनाते बल्कि अपने को उनका विषय मानते हैं और उन्हें हमेशा साक्ष्य देने वाला मानकर सोचते हैं कि ‘‘परमात्मा मेरे विषय नहीं हैं मैं उनका विषय हॅंॅू।‘‘ जब यह भावना किसी के मन में हमेशा के लिये दृढ़ स्थान ले लेती है कि वे हमेशा उन्हें देख रहे हैं तो इसे ‘‘धुवास्मृति’’ कहते हैं। इसी का नाम आध्यात्मिक ज्ञान है इस अवस्था में ही कोई व्यक्ति सच्चा ज्ञान पा सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान को मानसिक और भौतिक क्षेत्र में बदला जा सकता है। यदि कोई इस प्रकार करना चाहता है तो वह संसार का बहुत भला करेगा। इसी से प्रगति होती है। सबसे विद्वान व्यक्ति वह है जो समझता है कि वह कुछ नहीं जानता।

प्रमा- भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों क्षेत्रों में सुसंतुलन होने की स्थिति प्रमा कहलाती है। भौतिक क्षेत्र में की गई प्रगति प्रमासंवृद्धि, मानसिक क्षेत्र मे प्रगति प्रमारिद्धि और आध्यात्मिक क्षेत्र में हुई प्रगति प्रमासिद्धि कहलाती है। वास्तव में ब्रहमॅांड का प्रत्येक अस्तित्व आन्तरिक सूक्ष्म बलों और वाह्य गुरुत्व के प्रभाव में रहता है अतः प्रमा की स्थिति में बलसाम्य (equilibrium) और भारसाम्य (equipoise) होने पर ही वह सुसंतुलित रह सकेगा। गंभीरता से चिंतन करने पर ज्ञात होगा कि इस प्रमा को प्राप्त करने के लिये ही विश्व के विभिन्न दर्शनों में विभिन्न नामों और प्रकारों की पद्धतियॉं प्रचलित हैं।




Tuesday, 21 February 2023

396 अमृताक्षर

 विद्वान ऋषियों ने यह जानने के लिए एक संगोष्ठी की कि वह कौन है जो इस समग्र ब्रह्माण्ड का नियंत्रण करता है जिसकी उपासना कर हम इस विश्वमाया से मुक्त हो सकें। इस पर अनेक मत इस तर्क पर स्थिर हो गए कि ‘प्रकृति’ ही वह सत्ता है जो सभी पर नियंत्रण करती है और सभी का संचालन करती है, इतना ही नहीं प्रकृति ने ही अपनी विश्वमाया में सबको भ्रमित कर रखा है अतः उसी की उपासना करना चाहिए। एक ऋषि इससे सहमत नहीं हुए। उन्होंने तर्क दिया कि ‘‘ ‘प्र’ करोति या सा प्रकृतिः’’ अर्थात् जो अपने को विभिन्न प्रकारों में रूपान्तरित करती रहती है वह प्रकृति है अतः जो बदलता रहे वह परम सत्य नहीं माना जा सकता। चूंकि प्रकृति का क्षरण होता रहता है इसलिए वह अमर नहीं है अतः उसे उपास्य भी नहीं माना जा सकता। उपास्य वही हो सकता है जो अमर हो। तो वह अमर सत्ता कौन है जिसकी उपासना की जा सकती है? एक ऋषि बोले ‘‘हर’’ ‘ह’ माने अन्तरिक्ष और ‘र’ माने ऊर्जा इसलिए अन्तरिक्षीय ऊर्जा ही अक्षय है वह नष्ट नहीं होती अतः ‘हर’ ही अमर हैं और वही अक्षर भी इसलिए वही उपास्य हैं।

अन्य ऋषि ने तर्क दिया कि ऊर्जा भले ही नष्ट न हो परन्तु रूप तो बदलती रहती है अतः वह भी प्रकृति की भॉंति है इसलिए जब प्रकृति उपास्य नहीं है तो ऊर्जा को भी उपास्य नहीं माना जा सकता। बहुत डिस्कशन के बाद यह निष्कर्ष निकला कि ‘‘प्रकृति का क्षरण होता है और ऊर्जा भले अक्षर है परन्तु इसे उपासना का लक्ष्य नहीं माना जा सकता। परन्तु इन दोनों का ही नियंत्रणकर्ता कोई एक ही सत्ता है जिसके अभिध्यान करने, जिससे जुड़ने और जिसके सर्वत्र व्याप्त होने का अनुभव करने पर ही हम इस विश्वमाया से मुक्ति पा सकते हैं।

सूत्र के रूप में इसे उपनिषद इस प्रकार व्यक्त करते हैं- 

‘‘क्षरं प्रधानं अमृताक्षरं हरः क्षरात्मनावीशते देव एकः, 

तस्याभिध्यानात् योजनात् ततत्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमाया निवृतिः।’’