Saturday, 10 December 2022

395 मन ,आत्मा और परमात्मा क्या हैं और इनमें क्या संबंध है?


अकेले मन को समझना है तो एक लाइन का उत्तर है कि हमारी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की सहायता से पूरे शरीर का संचालन करने वाला ‘मन’ कहलाता है। परन्तु सही अर्थ जानना हो तो आपको हमारे  "बाबा की क्लास डिस्कशन" में हुए  मन ,आत्मा, परमात्मा  से जुड़े निम्नांकित  प्रश्नोत्तरों को ध्यान से पढ़िए।

रवि- आपने जो भी कहा है वह तो विज्ञान और तर्क दोनों से मान्य है परन्तु हम लोगों ही की नहीं सबकी यह समस्या है कि ‘मन‘ और ‘आत्मा‘ या इनसे जुडे़ समानार्थी अन्य शब्द, बड़ा ही कन्फ्युजन पैदा करते हैं । कभी कभी वे एक ही लगते हैं, यह क्या हैं, इनमें परस्पर क्या संबंध है? जब तक आप हमें यह नहीं बताते हैं हम किस प्रकार से व्यावहारिक अभ्यास नहीं करें?

इन्दु- हॉं बाबा! ‘मन और आत्मा‘ हमें दिखाई तो देते नहीं हैं इससे कभी कभी लगता है हम यह सब जानने और आत्म विद्या सीखने के उपाय बेकार ही कर रहे हैं?

बाबा- मैं ने अनेक बार यह स्पष्ट किया है कि ‘आत्मा‘ साक्षी सत्ता है ‘मन‘ का। इसलिए इकाई मन जो कुछ भी करता है उसका साक्ष्य देता है इकाई आत्मा । इसका अर्थ यह है कि मन के द्वारा किया गया हर अच्छा बुरा कार्य आत्मा के द्वारा केवल देखा जाता है वह उसकी क्रियाओं में सहभागी नहीं होता। मन के साथ इसका उल्टा होता है , वह अपने हर कार्य और क्रियाओं के साथ पूर्ण रूप से प्रभावित रहता है। इसीलिए कहा गया है कि मानव का मन ही बंधन और मुक्ति दोनों के लिए उत्तरदायी होता है। इकाई आत्मा, मन के साथ अपना दृष्टि संबंध बनाये रखता है परन्तु अपने को निर्लिप्त रखकर सदैव शुद्ध भी बनाये रखता है। इन सभी इकाई आत्माओं का साक्ष्य देने वाला परमात्मा कहलाता है। मन से लिंक बनाए रखने और साक्ष्य देने वाला होने के कारण यह आभास होता है कि आत्मा मन के कार्य में भी सम्बद्ध है परन्तु यह वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति किसी स्थान पर चोरी होते केवल देख रहा हो तो दूर से इस घटना को देखने वाला अन्य व्यक्ति यह सोचेगा कि यह भी चोरों के साथ उनके  कार्य में संलग्न है जबकि वह एक अक्रिय दृष्टा मात्र ही है।

राजू- क्या यह विचित्र नहीं लगता कि आत्मा का लिंक मन से होते हुए भी वह मन के कार्यों से प्रभावित नहीं होता? यदि यह सही है तो उसे साक्ष्य देना भी कैसे सम्भव होता है?

बाबा- तुम आत्मा से कुछ भी नहीं छिपा सकते । जैसे, यदि किसी स्टेज पर ड्रामा हो रहा है तो उसे साक्ष्य देता है प्रकाश। सब कहते हैं कि हॉं नाटक खेला जा रहा है। जब नाटक बंद हो जाता है तब भी प्रकाश के साक्ष्य के आधार पर ही कहा जाता है कि अब नाटक समाप्त हो गया। इस प्रकार प्रकाश नाटक को चलते हुए और समाप्त होते हुए साक्ष्य ही देता है नाटक में सहभागिता नहीं देता। या जैसे कोई लाल फूल दर्पण के सामने रखा जाता है तो पूरा दर्पण भी लाल ही दिखाई देता है पर वास्तव में दर्पण अपने मूल रूप में ही रहता है क्योंकि फूल के हटा लिए जाने पर वह फिर अपने मूल रूप में आ जाता है। इस संसार में अनेक सद्गुणी और दुर्गुणी लोग हैं परन्तु सभी के भीतर उनका इकाई आत्मा निष्कलंक रहता है क्योंकि उनका इकाई मन ही क्रिया से प्रभावित होता है आत्मा नहीं। क्रिया की प्रकृति के अनुसार मन ही उसके शुभ या अशुभ प्रभाव से बंधता है इकाई आत्मा नहीं। परन्तु जब यही मन परमात्मा में मिल जाता है तब वह पाप और पुण्य दोनों से मुक्त हो जाता है। 

चन्दू- तो शुभ या अशुभ परिणामों के लिये उत्तरदायी कौन होता है? और उनका परिणाम कौन भोगता है?

बाबा- मन ही कार्य करता है , उसमें लिप्त रहता है और उसी से प्रभावित होता है इसलिए परिणाम भी मन के द्वारा ही भोगा जाता है। मन में आने वाले विचार और क्रियाओं के अनुसार ही मन का उत्थान और पतन होता रहता है। वह मन ही है जो साधना करता है और सन्मार्ग का अनुसरण करता है और वह भी मन ही है जो कुसंगति में पड़कर अपना पतन कर डालता है। जब उसे यह समझ में आ जाता है कि वह ब्रह्म है तब इस प्रकार सोचते सोचते वह शुद्ध होता जाता है और पूर्ण रूपसे शुद्ध हो जाने पर वह इकाई आत्मा में ही मिलकर अपना रूपान्तरण कर लेता है जबकि इकाई आत्मा में इस प्रकार का कोई रूपान्तरण नहीं होता, वह हमेशा एकसमान रहता है। परमात्मा की ओर जाने वाले रास्ते पर चलने की सम्पूर्ण प्रक्रिया मन के द्वारा ही अनुभव की जाती है। मन आज गन्दा है तो वह कल स्वच्छ भी हो सकता है। विभिन्न मन ब्रह्म में लिकर स्वयं भी ब्रह्म ही हो जाते हैं।

नन्दू- तो इकाई मन के कार्यों को देखते रहने के अलावा इकाई आत्मा का और कोई कार्य है ही नहीं?

बाबा- आत्मा, मन को शान्ति पाने के लिए प्रेरित भी करता है। केवल यही काम है जो वह मन के हित में कर सकता है और अच्छे काम करने की ओर लगाने का विचार उत्पन्न करता है। यह उत्प्रेरण तभी समझ में आता है जब मन का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर होता है , यदि वह भौतिकता की ओर खिंच कर उसी में रम जाता है तो उस मन को यह आत्मप्रेरण समझ में नहीं आता । जैसे चुंबक लोहे की वस्तुओं को खीच लेता है परन्तु यदि उन वस्तुओं में गंदगी लगी हो , कीचड़ से सनी हों तो चुंबक की ओर वे वस्तुए नहीं खिंच पाती जबकि चुंबक उन्हें खींचता ही रहता है।

रवि- मेरे मन में फिर नई भ्रान्ति उत्पन्न हो गई है वह यह कि संस्कारों के प्रभाव में प्रत्येक अस्तित्व का अलग अलग इकाई मन होना तो समझ में आता है परन्तु सभी दर्शन और ऋषिगण आत्मा को तो अखंड ही मानते हैं फिर यह आपने ‘‘इकाई आत्मा ‘‘ कहॉं से खोज ली? यह उस अखंड परमात्मा से किस प्रकार भिन्न है?

बाबा- आत्मा तो अखंड ही है रवि ! वह सभी इकाई अस्तित्वों में उनकी परावर्तन क्षमता के अनुसार परावर्तित होकर कम या अधिक परिमाण में आभास देता है इसीलिए उसे किसी इकाई अस्तित्व का साक्ष्य देते समय इकाई आत्मा कहा जाता है। जैसे दर्पण के अनेक छोटे छोटे टुकड़े कर देने पर उनके सामने रखी एक ही वस्तु अलग अलग दिखाई देने लगती है। मन की तरह वह बाह्य प्रभावों से प्रभावित नहीं होता ।

इन्दु- परन्तु शास्त्रों में तो दुरात्मा, पापात्मा, महात्मा , पुण्यात्मा आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है और विद्वानों को भी अपने व्याख्यानों में इन्हें प्रयुक्त करते देखा जाता है?

बाबा- ‘ब्रह्म ‘ जिसकी कल्पना यह ब्रह्मांड है वही मात्र ‘महात्मा‘ या ‘परमात्मा‘ कहलाने के पात्र हैं अन्य कोई नहीं। जिन्हें जीवात्मा या इकाई आत्मा कहा गया है वह तो इकाई अस्तित्वों के मानसिक पटल पर उसी परमचेतना या परमात्मा का परावर्तन है इसलिये उन्हें महात्मा कहना उचित नहीं है। चूंकि आत्मा पाप या पुण्य से प्रभावित नहीं होता वह सदा ही शुद्ध और बोधमय होता है अतः इन शब्दों को उसके साथ जोड़कर दुरात्मा, पापात्मा और पुण्यात्मा कहना तर्कसंगत नहीं है। कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए चापलूसी करने के उद्देश्य से किसी को महात्मा कहने लगते हैं उनसे सावधान रहना चाहिए क्योंकि अत्यधिक प्रशंसा के पीछे धोखे का संकेत ही छिपा रहता है। इसलिये कहा जा सकता है कि इन शब्दों का निर्माण और उपयोग अज्ञानता के कारण ही किया जाता है। किसी सद्गुणी व्यक्ति, पापी या चीटी के आत्मा में कोई अन्तर नहीं होता अन्तर होता है केवल मन के अवनत या उन्नत होने में जिसके कारण ही कोई पापी, कोई पुण्यवान कहलाते हैं। 

चन्दू- यदि कोई आपके अनुसार पुण्यवान की कोटि में आता है तो उसे सम्मान देने के लिए किस प्रकार संबोधित किया जाये?

बाबा- उन्हें महापुरुष या महान महिला कहा जा सकता है।

राजू- अच्छा, तो मैं अपने इकाई आत्मा को कैसे पहचानूं और मन को इससे किस प्रकार भिन्न समझूं ं?

बाबा- जब कोई तुमसे यह पूछता है कि, क्या तुम्हारा अस्तित्व है या नहीं? तो क्या कहते हो, यही कि हॉं मेरा अस्तित्व है। यह आस्तित्विक भावना ही इकाई मन है ‘मैं हॅूं‘ इस भावना का ‘मैं‘ इकाई मन है। जब कोई पूछता है कि, क्या तुम जानते हो कि तुम हो? तो क्या उत्तर होता है यही कि, हॉं मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं, यह ‘‘मेरे होने का ज्ञान‘‘ जिस सत्ता के कारण होता है वह है तुम्हारा इकाई आत्मा। मैं जानता हॅूं का ‘‘मैं‘‘ ही इकाई आत्मा, इकाई चेतना या ज्ञातृ सत्ता कहलाता है और मैं हूॅं का ‘‘मैं‘‘ इकाई मन है। हर जीवित सत्ता के भीतर उसके होने की भावना रहती है जो तुम्हारे भीतर ‘‘मैं हॅूं’’ का बोध कराता है वही सूक्ष्म मन कहलाता है। और तुम्हारे भीतर, तुम्हारे होने की भावना के सत्य  को जो ‘‘मैं‘‘ कहता है कि मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं, वह ‘मैं‘ जीवात्मा, या इकाई आत्मा है।


Wednesday, 16 November 2022

394 तर्क ऋषि

 

(बाबा की क्लास में हुए डिस्कशन का विवरण)


रवि-  बाबा! आज राजू नहीं आयेगा, वह अपनी मॉं के साथ ‘‘हरसिद्धि देवी‘‘ के मंदिर के पुजारी के कहने पर कुछ अनुष्ठान करने गया है जिससे,  उसके परिवार पर आई बाधायें दूर हो जायेंगी।

चंदू- बाबा! ये हरसिद्धि देवी कौन हैं? ये किससे संबंधित हैं? 

बाबा-  मैं ने पिछली बार बताया था कि सभी देवी देवता पौराणिक काल में ही कल्पित किये गये हैं जिनका आधार तथाकथित पंडितों का स्वार्थ है। सभी काल्पनिक देवी देवताओं को महत्व और मान्यता मिलती रहे इसलिये सभी का किसी न किसी प्रकार शिव से संबंध जोड़ दिया गया है। तुम लोग जानते हो कि भगवान सदाशिव सात हजार वर्ष पहले धरती पर आये थे जबकि यह देवी देवता तेरह सौ वर्ष पहले ही कल्पित किये गये हैं अतः शिव से उनका संबंध किस प्रकार जोड़ा जा सकता है? पर तथाकथित पंडित लोग इस तर्क को सुनना ही नहीं चाहते।

नन्दू- बाबा! लेकिन पंडितों को यह कल्पनायें करने की क्या आवश्यकता हुई?

बाबा-अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये और समाज में वर्चस्व बनाये रखने के लिये। सभी मतों के तथाकथित विद्वान पंडितों ने संसार भर के विभिन्न समाजों को शोषण करने के लिये नये नये तरीके खोज रखे हैं और खोजते जा रहे हैं। कहीं कहीं उन्होंने लोगों को दिव्य स्वर्ग से ललचाया है तो उसी के साथ नर्क का भय दिखाकर उनको धमकाया भी है। किसी विशेष पंडित की विचारधारा को ‘भगवान के शब्द‘ कहकर जनसामान्य की स्वाभाविक अभिव्यक्तियों को सीमित कर दिया है और उन्हें बौद्धिक रूप से दिवालिया बना डाला है ।

रवि- कुछ मतों में तो पंडित नेताओं ने जनसामान्य की दृष्टि में स्वयं को सदैव मन की उच्चतम दशा में रहने का स्थायी प्रभाव जमा कर अपने को भगवान का अवतार या भगवान के द्वारा नियुक्त संदेशवाहक घोषित कर दिया है।

बाबा- इतना ही नहीं रवि! उन्होंने अपने तथाकथित धर्मशास्त्रों के द्वारा परोक्ष रूप में लोगों को यह समझा दिया कि उनके समान ईश्वर के निकट और कोई नहीं है, जिससे सामान्य लोगों के मन में हीनता का बोध सदा ही बना रहे ताकि वे चाहे भय से हो या भक्ति से, उनकी शिक्षाओं को मानते रहें। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग भी उनके इस फंदे में फंस गये और यह कहने को विवश हो गये कि ‘‘विश्वासे मिले वस्तु तर्के बहुदूर...‘‘ ... अर्थात् वस्तु की प्राप्ति विश्वास से होती है न कि तर्क से अथवा यह कि ‘‘मजहब में अकल का दखल नहीं है‘‘ ।

चंदू- अर्थात् विश्वास करने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती ? फिर यह क्यों कहा गया है कि ‘‘विश्वासं फलदायकम्?

बाबा- तर्क और विवेकपूर्ण आधार पर प्राप्त किये गये निष्कर्ष ही विश्वसनीय होते हैं तर्कविहीन आधार पर किया गया विश्वास तो अंधविश्वास ही कहा जाता है परंतु अनेक मतों के धुरंधर अपनी बात के सामने अन्य किसी तर्क वितर्क को धर्म विरुद्ध कहकर भयभीत करते हैं और जनसामान्य को मनोवैज्ञानिक ढंग से शोषित करते हैं। निरुक्तकार (मजलउवसवहपेजे ) अर्थात् शाब्दिक व्युत्पत्ति के विद्वान इसे इस प्रकार समझाते हैं- ‘‘ जब धीरे धीरे ज्ञानवान ऋषियों की संख्या घटने लगी तो विद्वान जिज्ञासुओं ने परस्पर विवेचना की, कि जब सभी ऋषिगण उत्क्रमण कर जायेंगे तो हमारा मार्गदर्शन कौन करेगा? इस पर यही निष्कर्ष निकला कि ‘तर्क ऋषि ‘ हमारा मार्गदर्शन करेगा।

‘‘(मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानुब्रवन् को न ऋषिर्भवतीति। ..... 

तेभ्यं एतं तर्कऋषिं प्रायच्छन् ... ...।)‘‘

रवि- ‘‘ विज्ञान‘‘ में तर्क और विवेक का सहारा लेकर ही नये नये अनुसंधान किये जाते हैं और उनमें सदैव नयेपन का स्वागत किया जाता है यही कारण है कि बहुत कम समय में विज्ञान ने विश्व पर अपना प्रभुत्व जमा लिया है जबकि पूर्वोक्त अतार्किक शिक्षाओं के बढ़ते जाने के कारण आध्यात्म जैसा उत्कृष्ट क्षेत्र केवल आडम्बर ओढ़ कर रह गया है।

बाबा- रवि तुमने  विल्कुल सही कहा है। हमारे पूर्व मनीषियों ने यही निर्धारित किया है जैसा कि ऊपर श्लोक में बताया गया है, परंतु स्वार्थ और लोभ के वशीभूत होकर तथाकथित पंडितगण यह हथकंडे अपनाते हैं और तर्क करने वालों को पास नहीं फटकने देते या स्वयं ही उनसे दूर रहते हैं। श्रुतियों का ही कथन है ‘‘यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नापरः‘‘ अर्थात् जो तर्क से वेदार्थ का अनुसन्धान करता है वही धर्म को जानता है दूसरा नहीं। स्पष्ट है कि  तर्क से विश्लेषण करते हुए निश्चित किया हुआ अर्थ ही ऋषियों के अनुकूल होगा। इसलिये बिना सोचे विचारे, अतार्किक और अवैज्ञानिक तथ्यों को स्वीकार नहीं करना चाहिये , तुम लोग राजू को यह समझा देना।


Saturday, 22 October 2022

393 ज्ञानदीप

  

ज्ञानदीप हर ओर जलाएं

आओ दीपावली मनाएं।


तम आच्छादित दिवा रात्रि,

घनघोर शोर में बहरे होते।

दूभर जीवन दूषित हो 

नव कष्ट देह में गहरे ढोते।

धूलधूसरित धरा धाम पर , 

मेघ पुनीत नीर बरसाएं।

ज्ञानदीप हर ओर जलाएं

आओ दीपावली मनाएं।1।


दम्भ प्रदर्शन की जड़ता ने

मनोभाव पंगु कर डाले।

मानवता कराहती पल पल,

रिश्तों में भी विष भर डाले।

अज्ञ विज्ञ सब हुए पंकमय

प्रज्ञनीर में सभी नहाएं।

ज्ञानदीप हर ओर जलाएं

आओ दीपावली मनाएं।2।


लोभ मोह की क्षुधा प्रसारित

जल थल नभ रोते अपनों पर।

नीर समीर व्योम पावक सब

चकित व्यथित दूषित सपनों पर।

दिव्य प्रकाश ज्योति फैलाकर

क्यों न नव्यमानवता लाएं ?

ज्ञानदीप हर ओर जलाएं

आओ दीपावली मनाएं।3।

- डॉ टी. आर. शुक्ल, सागर मप्र।


Tuesday, 18 October 2022

392 स्वार्थ और अहंकार के दलदल में डूबे धर्ममत


यदि सावधानी पूर्वक परीक्षण किया जाय तो हम पाते हैं कि वेदों के ‘‘ज्ञानकाण्ड’’ जिसमें ‘आरण्यक और उपनिषद’ आते हैं अपनी कठिनता के कारण धीरे धीरे जनसामान्य की रुचि से हट रहे थे और ‘‘कर्मकाण्ड’’ जिसमें ‘ब्राह्मण और मंत्र’ का समावेश किया गया है, अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।  इस कर्मकांड के प्रभाव के विरोध में लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुए ‘ऋषि चार्वाक’ ने आवाज उठाई। महावीर और बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अन्तर था। ‘चार्वाक’ के शिष्य ‘अजितकुसुम’ जो  बुद्ध के समकालीन थे, का तर्क था कि ‘‘जब थोड़ी दूर खड़े व्यक्ति को कोई वस्तु देने पर वह उसके पास नहीं पहॅुंचती तो जो मर चुके हैं उन्हें घी, चावल और शहद देने पर कैसे पहुॅंचेगी?’’ समाज का एक बड़ा भाग कर्मकाण्ड के प्रभाव में आज भी देखा जा सकता है। इस तरह तात्कालिक चार्वाक के सिद्धान्तों से प्रभावित समाज में महावीर और बुद्ध ने अपनी अपनी शिक्षाओं को प्रचारित करने का कष्टसाध्य कार्य किया। स्वभावतः दोनों को समाज के पूर्ववर्ती अनुकरणकर्ताओं का विरोध झेलना पड़ा।

भगवान महावीर के महाप्रयाण के कुछ सालों बाद ही उनके अनुयायियों में दो भाग हो गए एक अपने को श्वेताम्बर और दूसरे दिगम्बर कहने लगे। इसी प्रकार भगवान बुद्ध के अनुयायी भी उनके महाप्रयाण के बाद महायान और हीनयान इन दो भागों में बंट गए। दोनों मतों में यह विभाजन ही प्रकट करता है कि महावीर और बुद्ध दोनों के अनुयायियों में अपने अपने अहंकार की वृद्धि और अपने मूल उद्गम श्रोत से विचलन आ गया। इतना ही नहीं आधुनिक युग के बुद्ध कहलाने वाले भीमराव अंबेडकर ने तो कथित रूप से सभी मतों का अध्ययन करने के बाद बौद्ध धर्म को अपनाने का मन बनाया परन्तु वे फिर भी संतुष्ठ नहीं हुए और कुछ बुद्ध के और कुछ अपने सिद्धान्त मिलाकर नया बौद्ध मत ‘नवयान’ बना डाला जिसे आजकल भारत में देखा जाता है। तत्समय अपने अपने प्रभाव को समाज के सामान्य वर्ग में स्थापित करने के लिए जैनों ने महावीर की शिक्षाओं को पत्थरों की मूर्तियों में उकेर कर प्रचारित करना शुरु कर दिया इनसे प्रेरित होकर बौद्धों ने भी बुद्ध की मूर्तियां बनाना प्रारंभ कर दिया और उनके साथ काल्पनिक कथाओं को जोड़ने लगे जबकि न तो महावीर ने और न ही बुद्ध ने अपनी मूर्तियॉं बनाकर धर्म प्रचार करने की सलाह दी थी। जैनमत  और बौद्धमत के इस प्रकार के प्रचार से जन सामान्य उनकी मूर्तियां देखने आने लगे और उनकी कहानियों से प्रभावित होने लगे। इसे देखकर सानातनी (जो बाद में मुगलों के शासन में हिंदु कहलाए) भी क्यों पीछे रहते, वे भी काल्पनिक पौराणिक कथाओं को मूर्तियों के रूप में अपने मत का प्रचार करने लगे जबकि उनका ‘मूल भागवत धर्म’ इस कार्य को कोई महत्व नहीं देता। इसके बाद प्रारंभ हुई अपने को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ जो आज भी जारी है। फलतः कुछ विद्धानों ने तीनों मतों में पारस्परिक सामंजस्य स्थापित करने के प्रयासों में कुछ पौराणिक कहानियों के देवी देवता बौद्ध और जैनों ने स्वीकार कर लिए और कुछ बौद्धों के देवी देवता सनातनियों ने मान लिए जिनमें तारादेवी जो कहीं उग्रतारा कहीं बज्रतारा नाम से स्वीकृत हुई। जैनों की चौंसठ योगिनियॉं भी अन्यों ने मान ली और सभी को भगवान ‘‘सदाशिव’’ के परिवार से जोड़ा गया क्योंकि  शिव तो जनजन के हृदय में पहले से ही बसे थे। यदि वे इन काल्पनिक देवियों का संबंध शिव से न जोड़ते तो उन्हें कोई महत्व ही न मिलता। यही कारण दशमहाविद्याओं के संबंध में माना जाता है। 

भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को गलत ढंग से प्रचारित करने वालों के कारण ही पूरे देश में मेडीकल साईंस की प्रगति सैकड़ों वर्ष पिछड़ गयी। यह बड़ी समस्या उत्पन्न हुई, विशेषतः दुखवाद का सिद्धान्त और अहिंसा की गलत परिभाषा देने के कारण। इसके फलस्वरूप सामान्य लोग भीरु हो गये। यही बात भगवान महावीर के जैन धर्म की भी है। ये दोनों ही धर्म समय की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके। गौतम बुद्ध ईश्वर के बारे में स्पष्ट मत नहीं दे सके और न ही यह बता सके कि जीवन का अंतिम उद्देश्य क्या है, इतना ही नहीं वे अपने सिद्धान्तों पर आधारित मानव समाज का भी निर्माण नहीं कर सके। महावीर जैन ने भी सबसे पहले निर्ग्रंथवाद अर्थात् नग्न रहने पर बहुत जोर दिया। आदिकाल के लोग अपने शरीर को नहीं ढंकते थे परंतु मौसम के अनुसार वे  अपने शरीर को ढंकने लगे। अब जब कि वे अपने शरीर को ढंकने के अभ्यस्थ हो गये तो उन्हें नग्न रहकर शर्म आने लगी। इसलिये महावीर का दर्शन जनसमान्य का समर्थन नहीं पा सका। इसके अलावा उन्होंने दया और क्षमा करने पर बहुत अधिक बल दिया, उन्होंने यह सिखाया कि अपने जानलेवा शत्रु सॉंप और विच्छू को भी क्षमा करना चाहिये। इस शिक्षा के कारण लोगों ने समाज के शत्रुओं से लड़ना छोड़ दिया और वे भीरु हो गये। इस प्रकार महावीर और बुद्ध की शिक्षायें यद्यपि भावजड़ता पर आधारित नहीं थीं और न ही उन्होंने लोगों को जानबूझकर गलत दिशा दी परंतु कुछ समय के बाद वे असफल हो गये क्योंकि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और संतुलित नहीं थीं। इसके वावजूद सत्य के अनुसन्धानकर्ताओं ने बुद्ध की ‘अष्टॉंग योग‘ और ‘चक्षुना संवरो साधो‘ तथा अन्य विवेकपूर्ण शिक्षाओं को मान्यता दी है। महावीर की शिक्षा ‘‘जिओ और जीने दो‘‘ को भी मान्यता दी गई है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इन दोनों चिंतकों की समग्र विचार धाराओं को मान्यता दी गई है।

यहॉं एक बाद पर चिंतन करना आवश्यक है कि गौतम बुद्ध ने ईश्वर के बारे में स्पष्ट मत नहीं दिया जबकि वे स्वयं परमसत्ता अर्थात् ईश्वर का ध्यान करते थे और उन्हें अनुभूत किया; इसका क्या कारण  हो सकता है? वास्तव में उन दिनों ईश्वर के नाम पर बहुत शोषण हो रहा था, लोभी पंडों और पुजारियों द्वारा जनसामान्य को मूर्ख बनाया जा रहा था, अतः ईश्वर या भगवान का नाम सुनते ही लोग विपरीत प्रतिक्रिया करने लगे थे। इन झंझटों से बचने के लिए बुद्ध ने खुले रूप में ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा परन्तु इससे उनकी शिक्षाओं में गहरे मतभेद आ गए और परिणामतः बुद्ध का दर्शन या धर्म अनीश्वरवादी घोषित हो गया। भौतिकवादियों के लिए वह अनीश्वर धर्म बन गया अतः वर्तमान में कुछ लोग इसी कारण बौद्ध धर्म का पालन करने लगे हैं क्योंकि उनके अनुसार वहॉं ईश्वर का कोई भय नहीं है। इसी से मिलता जुलता दृश्य चर्चों में भी देखा जा सकता है जहॉं अनुचित व्यवहार, ‘डोगमा’ और संकीर्ण मानसिकता से ऊबकर क्रिश्चियन अनुयायी ‘‘गाड‘‘ अर्थात् भगवान नाम से ही चिड़ने लगे हैं । वे पूर्णतः भौतिकवादी और स्वयंकेन्द्रित दृष्टिकोण अपनाने लगे हैं। निष्कर्ष यह कि न तो सनातनी अपने मूल भागवत धर्म का अनुसरण सही ढंग से कर रहे हैं और न ही जैन और बौद्ध। सभी अपने अपने धर्म के ठेकेदारों के अहंकार और स्वार्थ के बबंडर में गोता लगाते अपने आपको श्रेष्ठ कह रहे हैं। आज का युग वैज्ञानिक युग है जहां हर तथ्य को तर्क, विज्ञान और विवेक के आधार पर ही ग्रहण किया जाता है कोरी कहानियों के आधार पर नहीं, इसलिए मेरा विनम्र आग्रह है कि ज्ञानी बुद्ध के दर्शन को वाक्युद्ध की भ्रामक कीचड़ से अशुद्ध होने से बचाइए। यदि आप कहानियों में ही विश्वास रखते हैं तो मैं बुद्ध के कार्यकाल की ही एक सत्य घटना का उल्लेख कर अपनी वार्ता को समाप्त करता  हॅूं, भगवान बुद्ध आपको सन्मार्ग पर ले चलें। सुनिए-

भगवान बुद्ध के कार्यकाल में ही बौद्ध धर्म के अनुयायी दो पड़ौसी देशों में युद्ध छिड़ गया। दोनों देशों के योद्धाओं की पत्नियॉं, माताएं, बहिनें भगवान बुद्ध से क्रमशः अपने अपने पतियों, पुत्रों, भाइयों को विजयी होकर सकुशल वापस घर लौटने की प्रार्थना करने उनके पास पहॅुंची। बुद्ध पूरे समय चुपचाप बने रहे। 

बाद में उनके सेवक ने पूछा, भगवन्! आपने किसी भी देश की महिलाओं की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया; वे सभी बड़ी आशा से आपका आशीष लेने दूर दूर से आपके पास आई थीं, दोनों ही देशों के नागरिक आपके भक्त हैं?

भगवान बुद्ध ने कहा, ‘‘यदि वे सच्चे बौद्ध होते तो युद्ध कभी न करते।’’

(आपकी जानकारी के लिए बता दें कि वे देश थे तत्कालीन ‘बर्मा या ब्रह्मदेश’ और ‘थाइलेंड’। आप जानते हैं, युद्ध तो प्रत्यक्षतः राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से ही होते आए है, यही कारण यहॉं भी था। यह युद्ध दोनों देशों के हजारों योद्धाओं के प्राणों की बलि लेकर ही अन्त हुआ।)


Wednesday, 14 September 2022

391स्पेस और टाइम

 जब परमपुरुष के विचारों को मूर्तरूप देने के लिए उनके नाभिक अर्थात् कॉस्मिक न्युक्लियस, से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बॉंधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप, विशेष आकार पाता है। (ध्यान रहे, इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, ‘‘काल’’ Eternal Time Factor के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे ‘कालिकाशक्ति’ दार्शनिक नाम दिया गया है।) इस प्रकार टाइम और स्पेस के बनने के साथ ही निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई जिसमें ब्लेक होल, गैलेक्सियॉं, तारे, नक्षत्र और जीव जगत क्रमागत रूप से आए । ब्राह्मिक मन पर उसकी क्रियात्मक शक्ति, जिसे प्रकृति कहा जाता है, जब सृष्टि, स्थिति और लय की तरंगे ( अर्थात् ब्रह्मॉंड के निर्माण करने के समय ) उत्पन्न करती हैं, उसे वेदों में ‘‘ओंकार ध्वनि’’ के नाम से जाना जाता है। इसमें ‘उत्पत्ति’, ‘पालन’ और ‘संहार’ तीनों सम्मिलित हैं इसलिए इसे ‘‘कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन’’ कहा जाता है और दार्शनिक भाषा में ‘ अनहद या अनाहत नाद’ या ‘प्रणव’। इसकी अनेक आवृत्तियों में से मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ध्वनि तरंगें विश्लेषित करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें ‘काल’ अर्थात् ‘समय का वर्णक्रम’ कहा जाता है । परन्तु , इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को ‘अखंड’ रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता मानव मुॅंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यॅंजनों में से प्रत्येक के एक एक मुॅंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुॅंहों की माला, भद्रकाली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया। यद्यपि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था अतः पूर्वोक्त मानव मुॅंहों को ही वर्णमाला/अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि उच्चारण मुॅंह से ही किया जाता है। और, पौराणिक काल में इसे काल्पनिक कालीदेवी से जोड़कर वीभत्स ढंग से प्रस्तुत किया गया और मूल सिद्धान्त को तिलॉंजलि दे दी गई।

390 मानसिक बीमारियॉं

  

इस युग में विज्ञान की प्रगति से अनेक क्षेत्रों में सुविधाएं प्राप्त हुई हैं परन्तु मनुष्य की मानसिक और आध्यात्मिक प्रगति पिछड़ गई है। मानसिक समस्याएं और तनाव लगातार बढ़ रहे हैं। यही कारण है कि नर्व, ब्रेन,  और हार्ट सम्बंधी बीमारियों के रोगी बढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं एंक्जाइटी, नर्वसनैस, और इनसेनिटी ने समाज में अपना व्यापक प्रसार कर लिया है। इनसे बचने का उपाय यह है कि कार्य कते हुए मनुष्य यह सोचे कि यह कार्य परमपुरुष का कार्य है, मेरा नहीं और मैं यह कार्य उन्हें प्रसन्नता देनें के लिए कर रहा हॅूं। इस प्रकार की भावना रखने पर तनाव, नर्वसनैस और मानसिक बीमारियॉं कभी पनप ही नहीं पाएंगी। इतना ही नहीं संस्कार भी नहीं बन पाएंगे।


Thursday, 18 August 2022

389राजाधिराज योग

  

लगभग 2000 वर्ष पहले भारत के एक महान सन्त अष्टावक्र ने योग विज्ञान में क्रान्तिकारी अनुसंधान किया था। वास्तव में उनका शरीर अष्टांगयोग की साधना करने के लिए वांछित योगासनों को उचित प्रकार से नहीं कर पाता था। बताया जाता है कि उनके शरीर में आठ प्रकार की वक्रता थी जिससे वे किसी भी प्रकार से अपने शरीर को साधना करने के लिए सीधा और स्थिर रखकर नहीं बैठ पाते थे। इसलिए उन्होंने शरीर में स्थित विभिन्न ऊर्जा केन्द्रों (जिन्हें योगविज्ञान में चक्र कहा जाता है) और उनसे संबंधित वृत्तियों पर नियंत्रण करने का उपाय खोजा जिनके आधार पर वे शरीर की किसी भी स्थिति में साधना करने में सफल हो गए। अपनी ‘‘अष्टावक्र संहिता’’ नामक पुस्तक में उन्होंने इस योग साधना की पद्धति को उन्होंने ‘‘राजाधिराज योग’’ नाम दिया है। उन्होंने इस पद्धति को सबसे पहले बंगाल के वक्रेश्वर में अलार्क नामक शिष्य को सिखाया था।

उन्होंने अपनी पुस्तक में बताया है कि मनुष्य के शरीर में स्थित रीढ़ के सबसे निम्न विंदु पर जो ऊर्जा केन्द्र होता है उसे ‘मूलाधार चक्र’ कहा जाता है और वह चार वृत्तियों, धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष को नियंत्रित करता है। उससे ऊपर लिंगमूल के बिलकुल पीछे ‘स्वाधिष्ठान चक्र’ छह वृत्तियों अवज्ञा, मूर्छा, प्रणाश, अविश्वास, सर्वनाश, और क्रूरता को नियंत्रित करता है। उससे ऊपर नाभि पर स्थित मनीपुर चक्र दस वृत्तियों लज्जा, पिशूनता, ईर्ष्या, सुषुप्ति, विषाद, क्षय, तृष्णा, मोह घृणा और भय पर नियंत्रण करता है। उससे ऊपर छाती के केन्द्र पर अनाहत चक्र होता है जो बारह वृत्तियों, आशा, चिंता, चेष्टा, ममता, दंभ, विवेक, विकलता, अहंकार, लोलता, कपटता, वितर्क और अनुताप पर नियंत्रण करता है।

गले के क्षेत्र में स्थित विशुद्ध चक्र 16 वृत्तियों षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत्य, निषाद, औम, हुम्, फट्, वोषट, वषट, स्वाहा, नमः, विष और अमृत को नियंत्रित करता है। दोनों भौहों के बीच स्थित आज्ञा चक्र दो वृत्तियों अपरा, और परा ज्ञान को नियंत्रित करता है। इन चक्रों के आस पास ही इनके उपचक्र होते हैं जो इनसे जुड़ी वृत्तियों को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार मनुष्य से संबंधित सभी 50 वृत्तियां भीतर, बाहर और दसों दिशाओं में क्रियारत होने के कारण कुल 1000 हो जाती है जिन्हें कपाल के मध्य स्थित सहस्त्रार चक्र नियंत्रित करता है। आज के विज्ञान को यह अभी तक अज्ञात है, इसे जानकर आगे के अनुसंधान की आवश्यकता है।

अष्टावक्र ने बताया कि हम नियमित योगासनों की सहायता से प्रत्येक चक्र से जुड़ी वृत्तियों पर नियंत्रण पा सकते हैं और अपने विचारों और व्यवहार में परिवर्तन ला सकते हैं। आसनों से इन चक्रों या उपचक्रों पर या तो दबाव बढ़ाया जाता है या कम किया जाता है जिससे वृत्तियों पर नियंत्रण होता है जैसे, मयूरासन से मनीपुर चक्र पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है अतः यदि इसे नियमित रूप से किया जाता है तो इस चक्र और उसके चारों ओर के उपचक्रों से स्रावित होने वाले हरमोन्स व्यवस्थित होकर उनसे जुड़ी हुई वृत्तियों को भी अधिक संतुलित कर लेते हैं। मानलो कोई व्यक्ति बड़े जनसमूह के सामने बोलने से डरता है तो इसका अर्थ है उसका मनीपुर चक्र कमजोर है। अब यदि वह मयूरासन नियमित रूप से करता है तो उसका यह भय समाप्त हो जाएगा। इसी प्रकार अन्य चक्रों और उपचक्रों  पर आवश्यक दबाव कम करके भी हारमोन्स को अपने अनुकूल स्रावित करने योग्य बनाया जा सकता है और उनसे जुड़ी वृत्तियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

स्पष्ट है कि आध्यात्मिक साधना करने वालों को अपने अनुकूल आसनों को ज्ञात कर सावधानी से उन्हें करने का अभ्यास नियमित रूप से करते रहने पर अवश्य ही सफलता मिलती है। आजकल तथाकथित योग के प्रचार से विश्व भर में योगासनों का व्यापक प्रदर्शन करने वाले योग गुरुओं की अचानक बाढ़ आ गई और यह धंधा जोर पकड़ता जा रहा है। योग साधना करने के इच्छुक और योग से रोग हटाने के इच्छुक लोगों को बहुत सोच समझकर योग्य व्यक्ति से ही इनसे यह सीखना चाहिए।


Saturday, 6 August 2022

388 शिव को प्रणाम कैसे करें ?

 

(प्रणाम मंत्र में शिव)

‘‘नमस्तुभ्यं विरुपाक्ष नमस्ते दिव्य चक्षुसे, 

नमः पिनाक हस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः,

नमः त्रिशूल हस्ताय दंडपाशासिपानये, 

नमस्त्रैलोक्यनाथाय भूतानाम पतयेनमः,

नमः शिवाय शॉंताय कारणत्रयहेतबे, 

निवेदयामि चात्मानम् त्वमगतिः परमेश्वरा।’’

अर्थात्, ‘‘दिव्यद्रष्टि वाले विरूपाक्ष तुम्हें प्रणाम, पिनाक और बज्र को हाथ में धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, त्रिशूल रस्सी और दंड को धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, सभी प्राणियों/भूतों के स्वामी और तीनों लोकों के स्वामी तुम्हें प्रणाम, तीनों लोकों के आदिकारण शॉंत शिव को प्रणाम, परम प्रभो मेरी यात्रा के अंतिम बिंदु और लक्ष्य मैं अपने आप को आपके समक्ष समर्पित करता हॅूं।’’

स्पष्टीकरण- 

शब्द ‘विरूपाक्ष’ के दो अर्थ हैं, एक तो वह जिसके नेत्र विरूप अर्थात् अप्रसन्न या क्रोधित हों, दूसरा यह कि जो प्रत्येक को विशेष मधुर और कल्याणकारी द्रष्टि से, दयालुता से देखता हो। पापियों के लिये शिव, विरूपाक्ष  पहले रूप में और सद्गुणियों के लिये दूसरे अर्थ में लेते थे।

‘दिव्यचक्षु’ का अर्थ है जिसके पास प्रत्येक वस्तु के भीतर छिपे मूल कारण को देख सकने  की दिव्य द्रष्टि है, अर्थात् वर्तमान भूत और भविष्य को देख सकने वाला।

‘पिनाक’ अर्थात् जो डमरु को बजा कर सभी प्राणियों के शरीर मन और आत्मा को कंपित कर देता हो वह सदाशिव हैं। दुष्टों को दंडित करने और अच्छे लोगों की रक्षा के लिये हमेशा से हर युग में हथियार बनाये जाते रहे हैं शिव ने भी सब की भलाई के लिये भयंकर वज्र धारण किया। इसलिये वे वज्रधर ही नहीं ‘शुभवज्रधर’ कहलाते हैं ।

‘त्रिशूल’ से शिव शत्रुओं को तीन ओर से छेदित करते थे, शिव इसे हाथ में लिये रहते थे इसलिये वे ‘शूलपाणि’ कहलाते हैं। पापियों के हृदय में भय पैदा करने और बांधने के लिये, जिससे कि वे पाप से दूर रहें और सच्चे लोगों को शॉंति से रहने दें, शिव, दंड और रस्सी लिये रहते थे।

‘त्रैलोक्यनाथ’, शिव तीनों लोकों के जीवन प्रवाह को नियंत्रित, पालित और पोषित करने के कारण त्रैलोक्यनाथ और इस पृथ्वी के सभी जीवधारियों की प्रकृति को भलीभांति जानते हैं अतः वे भूतनाथ कहलाते हैं। संगीत विद्या के विद्यार्थियों के लिये वह प्रमथनाथ हैं। चूॅंकि शिव अपने भीतर और बाहर पूर्ण नियंत्रित रहते थे अतः वे शान्त कहलाते हैं। इस शॉंत पुरुष के पास सब पर नियंत्रित करने की शक्ति है इसलिये कहा गया  है ‘नमः शिवाय शान्ताय‘।

जड़, सूक्ष्म और कारण संसार के मूलकारण घटक को चितिशक्ति कहते हैं। ये शिव और चितिशक्ति एक ही हैं। इसीलिये उन्हें ‘कारणस्त्रयहेतबे‘ कहा गया हैं। उस परमसत्ता को, जिसने अपने मधुर और प्रभावी प्रकाश से सभी निर्मित और अनिर्मित को भीतर बाहर से प्रकाशित कर रखा है, सभी प्रणाम करते हैं और समर्पित रहते हैं। वही सबके अंतिम लक्ष्य होते हैं, अतः कहा गया है ‘निवेदयामि च आत्मानम् त्वम गतिः परमेश्वरा‘। हे परमेश्वर मैं अपने आपको आपके समक्ष समर्पित करता हूॅ क्योंकि आप ही मेरे परम आश्रय हैं। हे शिव, हे परम पुरुष, अनाथों के अंतिम आश्रय, थकेमांदों के अंतिम आश्रयस्थल, मैं अपने अस्तित्व की सभी भावनायें आपके चरणों में समर्पित करता हॅूं।


Wednesday, 3 August 2022

387अजपा जप अर्थात् ‘‘आटो सजैशन’’

  

सभी लोग यह अनुभव करते हैं कि उनके जीवन का आधा समय तो सोने में बीत जाता है। शरीर को इस प्रकार के सोने से आराम मिल सकता है परन्तु मस्तिष्क को नहीं। मनोविज्ञान(साइक्लाजी) में जब अपने ‘मन’(माइंड) के द्वारा अपने ‘मन’ पर ही विशेष संवेदनों की आवृत्तियांॅ लगातार डाली जाती हैं तब इस क्रिया को ‘‘आटो सजैशन’’ कहते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने ‘इष्टमंत्र’ को लगातार बिना रुके जपते हुए निर्धारित विन्दु पर मन को स्थिर करने का अभ्यास करता रहता है तब उससे बनने वाली तरंगों की आवृत्तियांॅ एक लय (रिद्म) उत्पन्न करती हैं। यह तरंगें उस व्यक्ति के मन पर ‘‘आटो सजैशन’’ निर्मित कर उसके सोते समय भी इसी प्रकार की तरंगें उत्पन्न कर लय में ही बनी रहती है। व्यक्ति को यह याद नहीं रहता परन्तु जब वह सोकर उठता है तब उसे लगता है कि वास्तव में अच्छी नींद क्या होती है। इस प्रकार की नींद में न तो स्वप्न आते हैं और न ही कोई अन्य विचार (मन की निर्वात अवस्था) इसलिए इससे मस्तिष्क को आराम मिलता है।

मंत्र के लगातार जाप से या ध्यान से व्यक्ति थोड़े समय के लिए उच्च स्तर के ज्ञान क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है। अतः ध्यान और इष्टमंत्र के जाप से उत्पन्न तरंगों का लय जब कुछ देर तक स्थिर बना रहता है तब इसे योग विज्ञान में ‘‘धर्ममेघ समाधी’’ कहते हैं। इन तरंगों का स्वरसाम्य अर्थात् ‘सिंफोनी’ अधिक देर तक बने रहने पर व्यक्ति यदि ध्यान या जप नहीं कर पाता तब भी अपने इष्ट के प्रति उसकी स्मृति क्षय नहीं होती इसे ‘‘धुवास्मृति’’ कहते हैं। इस प्रकार की स्मृति प्राप्त साधक सोते रहने की अवस्था में भी अपना ध्यान या जाप करता रहता है। अर्थात् वास्तव में वह जाप या ध्यान नहीं कर रहा होता है फिर भी उसकी यह क्रिया सोते हुए भी चलती रहती है। योगविज्ञान में इसे ‘‘अजपा जप’’ या ‘‘अध्यान ध्यान’’ कहा जाता है। ‘आटो सजैशन’ का यह उत्तम उदाहरण है।

महर्षि विश्वामित्र, धर्मराज युधिष्ठिर, राजाधिराज योगी वशिष्ठ, महर्षि अष्टावक्र, विबंधक और कालहन जैसे योगियों ने भी ध्रवास्मृति और अजपाजप के महत्व को स्वीकार किया है। वे यह भी स्वीकारते हैं कि ध्यान करते हुए आई निद्रा में व्यतीत हुए समय को व्यर्थ खर्च हुआ नहीं माना जाना चाहिए। योग मार्ग पर चलते हुए इन अवस्थाओं से भेंट होना स्वाभविक है।


Monday, 25 July 2022

386 महेशं रजतगिरिनिभं रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम् परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् शिव :

 

संस्कृत में नियंत्रक को ईश्वर कहते हैं। संसार के छोटे बड़े सभी मामलों में हर स्तर के नियंत्रक होते हैं जो विभिन्न अधिकारों से सम्पन्न होते हैं। पर, जो अत्यंत तेज मस्तिष्क वाला, दूरद्रष्टा और सबके प्रति हृदय में असीम करुणा और स्नेह से भरा हो वह इन छोटे, मध्यम और बड़े सभी नियंत्रकों का नियंत्रण कर सकता है। शिव सबको नियंत्रित करते थे अतः उन्हें महेश्वर कहा गया है।(महेशम्)

वर्फ की तरह सफेद रैवतक पर्वत पर जब सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो वह जिस प्रकार चमकता है वैसे ही शिव का शरीर चॉंदी की तरह चमकता था।(रजतगिरिनिभम्)

क्या शिव केवल सफेद रंग के ही थे? नहीं, उनका सारा शरीर उस दिव्य अमृत के क्षरण से चमकता था और मध्यान्ह के सूर्य की भांति इस प्रकार प्रभावित करता था कि जैसे उनके शरीर से अनेक हीरे जवाहारात चमक रहे हों (रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम्) न केवल चमकदार वरन् उनका शरीर कोमल और सुगंधित भी था। 

दुष्टों की दुष्टता को दबाने के लिये शिव हाथ में फरसा लिये रहते थे तथा सभी मनुष्यों पौधों और पशुओं की देखभाल अपने बच्चों की तरह करते थे। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि मृग शब्द को संस्कृत के समानार्थी सामान्य पशु के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है केवल मृग अर्थात् हिरण के अर्थ में नहीं। मृग का अर्थ है कोई भी पशु, जैसे, शाखमृग का मतलब है बंदर क्योंकि वह शाखाओं पर रहता हैं, मृगचर्म का मतलब है किसी भी जंगली पशु का चर्म, मृगया का अर्थ है किसी भी जंगली पशु का शिकार करना आदि आदि। इस प्रकार सभी पशु और मानव खतरे के समय शिव की शरण में आकर सुरक्षा अनुभव करते थे और शिव भी सबको निर्भय रहने का वरदान देने की मुद्रा में रहते थे। शिव जो कि स्वयं की सुख सुविधाओं के प्रति बिलकुल उदासीन रहते थे वे किसी के आंसू नहीं देख सकते थे उसे सब सुविधायें उपलब्ध करा देते थे। चाहे वह दुष्ट  ही क्यों न हो यदि उसकी आंखों में आंसू दिखते तो शिव उसके शुद्धीकरण का रास्ता बताते और वरदान भी दे देते थे, (परशुमृगवराभीतिहस्तं)।

प्रत्येक परिस्थिति में वह अपना मानसिक संतुलन बनाकर रखते थे, कितनी ही विकट स्थिति क्यों न हो उनके चेहरे से प्रसन्नता ही झलकती थी। इतिहास में इस प्रकार का सदा हंसमुख चेहरा दुर्लभ है,(प्रसन्नम्) ।


Thursday, 21 July 2022

385 व्याघ्रकृत्तिमवसानम और विश्वाद्यम् विश्वबीजम शिव


शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘व्याघ्रकृत्तिमवासनम्’ कहा गया है। व्याघ्र का अर्थ है शेर या ‘टाइगर’, कृत्तिम का अर्थ है चर्म या चमड़ा और वसानम् का अर्थ है वस्त्र या पहनावा। अर्थात् वे शेर के चमड़े को पहना करते थे। जैन दर्शन के प्रभावी काल में कुछ अज्ञानियों ने शिव को दिगम्बर मान लिया जब कि ध्यान मंत्र में स्पष्ट है कि वे व्याघ्रचर्म पहना करते थे, इसी कारण अनेक नामों में से उनका एक नाम ‘कृत्तिवास‘ भी है। 

इसी मंत्र में उन्हें विश्वाद्यम् और विश्वबीजम् भी कहा गया है। विश्वाद्यम् अर्थात् विश्व आद्यम् अर्थात् विश्व में सबसे पहले। और विश्वबीजम् अर्थात् विश्व को उत्पन्न करने के बीज स्वरूप। शिव को परमपुरुष मानने का कारण यह है कि उनमें परमसत्ता के सभी गुण हैं और वे हमारे बिल्कुल निकट हैं अतः उन्हें परमपिता कहना न्यायसंगत है। वे पुरुषोत्तम हैं, प्रथम पुरुष है, परम शिव हैं और वे विश्वाद्य अर्थात् बृह्मॉंड के उद्गम है। विश्व के उद्गम का कारण भी इन्हीं प्रथम पुरुष में है, आदिशिव ही अपने निष्कलत्व को सकलत्व में मात्र इच्छा से ही रूपान्तरित कर देते हैं। आदिशिव की इच्छा के विना प्रकृति कोई भी रचना नहीं कर सकती। इसलिये विश्व के मूल कारण आदिशिव हैं न कि प्रकृति। ध्यान मंत्र में यह स्पष्ट कहा है कि शिव ही विश्व के बीज हैं।


Sunday, 17 July 2022

384 चारुचंद्रावतंसं शिव

 

शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘‘चारुचंद्रावतंसं’’ अर्थात् सुंदर चंद्रमा (चारुचंद्र) जिनका मुकुट(अवतंस) है ऐसा कहा गया है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म या ऊर्जा केन्द्र कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियों को नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियोंके नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इन 9 चक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियोंको नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतिकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित हो जाता है नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी बेहोशी का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं। अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं। इसी सोलहवीं कला से अमृत निकलता है, इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया है। इसी से निकलने वाले अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं इसलिये अनेक लोगों का मत था कि यह अद्रश्य सोलहवीं चंद्र कला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये, इसीलिए उन्हें ‘‘चारुच्रद्रावतंसं’’ कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं से अनजान,  भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।


Friday, 15 July 2022

383 हिप्नोटिज्म अर्थात् ‘आउटर सजैशन’’

  

मनोविज्ञान(साइक्लाजी) में, जब किसी एक व्यक्ति के ‘मन’ के द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के मन पर लगातार विशेष प्रकार के संवेदनों की आवृत्तियॉं डाली जाती हैं तब इसे ‘‘आउटर सजैशन’’ कहा जाता है। जब बाहरी संसार की वस्तुओं की तथ्यात्मकता को हमारे ब्रेन के ‘‘एक्टोप्लाज्मिक’’ सैलों द्वारा विषयगत बना लिया जाता है तो हम कहते हैं कि हमने उसे जान लिया या समझ लिया है। यदि इन एक्टोप्प्लाज्मिक सैलों की ऊर्जा या ज्ञान शक्ति को किसी व्यक्ति विशेष के मन पर केन्द्रित कर दिया जाय तो वह व्यक्ति भी वही सोचेगा और समझेगा जो एक्टोप्लाज्मिक सैलों को नियंत्रित करने वाला व्यक्ति समझाना चाहेगा। ज्ञान का यह क्षेत्र ‘योग मनोविज्ञान’ के अन्तर्गत आता है और यह विद्या संस्कृत में राक्षसी विद्या और अंग्रेजी में ‘हिप्नोटिज्म’ कहलाती है। कुछ लोग इन सैलों के नियंत्रण का अभ्यास कर उसका दुरुपयोग करने लगते हैं और भूतप्रेतों के नाम से लोगों को डराने लगते हैं। बाहरी संसार में उनकी गतिविधियों के प्रभाव अनुभव भी किये जाते हैं। इनसे मुक्त होने का एक मात्र उपाय है उस व्यक्ति के एक्टोप्लाज्मिक सैलों के संतुलन को बिगाड़ देना। परन्तु कैसे? इसका एक दृष्टान्त रामायण में इस प्रकार दिया गया है। 

‘‘अंगद जब रावण से मिलने पहंॅुचे तो दरवार में रावण के साथ साथ उन्नीस मंत्री और रावण का पुत्र इंद्रजीत अर्थात् मेघनाथ बैठे थे। सभी मंत्रियों ने अंगद को भ्रमित करने के लिए एक साथ सोचना प्ररंभ कर दिया कि उनका आकार भी रावण के समान हैं। सबों के मन से निकलने वाली मानसिक तरंगों ने अंगद के मन को चक्कर में डाल दिया, उसे बीस रावण दिखाई देने लगे। मेघनाद मंत्रियों की तरह नहीं सोच रहा था अतः वह अपने ही रूप में दिखाई दे रहा था अन्य सभी बिलकुल रावण की तरह ही दिखाई दे रहे थे। उनके भौतिक शरीर बिलकुल स्थिर थे। अंगद ने असली रावण को पहिचानने के लिए ट्रिक का उपयोग करते हुए मेघनाद से पूछा, मित्र इंद्रजीत! इस सभा में मैं 20 रावण देख रहा हूंॅ क्या ये सभी तुम्हारे पिता हैं? यह सुनकर सभी मंत्रियों को गुस्सा आ गया और उनके मन के तथ्यात्मक खंडों (अर्थात् एक्टोप्लाज्मिक सैलों)) की स्थिरता भंग हो गई और वे अपने मौलिक रूप में दिखाई देने लगे।’’

कुछ अविद्या तांत्रिकों को इन एक्टोप्लाज्मिक सैलों की सहायता से दूसरों के घरों में हड्डियां फेकने, गंदगी फेकने या तोड़फोड़ करने के किस्से प्रायः जब तब सुनाई देते हैं। सामान्य लोग समझते हैं कि यह सब भूतों के काम हैं। परन्तु सावधानी से 50 मीटर की परिधि में ढूंड़ा जाय तो किसी एकान्त कोने में अविद्या तान्त्रिक सीधा बैठा इन मानसिक सैलों को आदेश देता मिल जाएगा। इसके प्रपंच को हटाने के लिए बिना डरे उसे जोर से हिलाकर सिर में आघात करना होगा तब उसका खेल तुरंत समाप्त हो जाएगा। बाहरी तथ्यात्मकता को विषयगत बनाने के लिए हमें अपने एक्टोप्लाज्मिक सैलों की ऊर्जा को केन्द्रित कर परमपुरुष की ओर संचारित करना चाहिए जिनके जान लेने पर फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता।


382 निखिलभयहरम् शिव

  382 निखिलभयहरम् शिव

भगवान शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘‘निखिलभयहरम्’’ कहा गया है। असीमित या अबाधित अस्तित्व को निखिल या अखिल कहते हैं अर्थात् सबके भय को नष्ट करने वाला । जीवन के अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अनेक चीजों से डर पाल लेते हैं। पशु  भी अपने शत्रुओं से डरते हैं। वर्तमान में मनुष्यों के भौतिक स्तर के भय में कमी आई है पर मानसिक स्तर में भय की बृद्धि हुई है। शिव ने मनुष्यों और पशुओं दोनों को निर्भय करने के लिये अनेक कदम उठाये। बीमारियों से निपटने हेतु चिकित्सा विज्ञान को विकसित किया, शत्रुओं से निपटने के लिये अनेक हथियार बनाये, मानसिक भय को दूर करने के लिये ज्ञान की अनेक शाखाओं को विकसित किया और आत्मिक भय को हटाने के लिये तंत्रविज्ञान को स्थापित किया। पशुओं और पौधों  को सुरक्षा देना, पालना और पोषण करना भी उन्होंने सिखाया, इसी लिये उन्हें संसार के दुख/भयहर्ता के नाम से जाना जाता है।


Sunday, 3 July 2022

381 पंचानन और त्रिनेत्र शिव

 

शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम्’ अर्थात जिसके पॉच मुंह और तीन नेत्र हों वह। क्या शिव के सचमुच पॉच मुंह थे? नहीं, एक ही मुख से पॉच प्रकार का भाव प्रदर्शन कर लोगों का हित करते थे। चित्र में दिखाने के लिये मुख्य मुंह बीच में, कल्याण सुंदरम् कहलाता है और सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर। कल्याण सुंदरम् और दक्षिणेश्वर  के बीच में ईशान। सबसे बायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्याण सुन्दरम् के बीच में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम् में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कराते हैं। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है, मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर  कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो ? मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा, तुम्हारी गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और, कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे, ऐसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पॉच तरह के भावों को प्रकट कर शिव सभी का कल्याण करते थे जिससे शिव को ‘पंचवक्त्रम’्  कहा जाता है।

अब प्रश्न है कि पॉच मुंह वाले के दस नेत्र न होकर तीन ही क्यों? ‘त्रिनेत्रम्’ कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका एक ही मुंह है अतः दस ऑखें नहीं हो सकती। तो तीन कैसे?  इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जाग्रत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु सभी व्यक्ति असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐसा कर सकता है तो यह क्रिया  ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना‘‘ कहलाती हैं। यही ‘ज्ञाननेत्र‘ तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव त्रकालदर्शी थे, अनन्त ज्ञान के भंडार थे क्योंकि उनका ‘ज्ञाननेत्र’ बहुत ही विकसित था। चित्रों में इसे दोनों भौहों के बीच दिखाया जाता है। अतः ध्यान मंत्र में उन्हें त्रिनेत्रम् कहा गया है।


Tuesday, 28 June 2022

380 भूलना प्राकृतिक वरदान

 

यदि भूलना एक वरदान न होता तो, मनुष्य जबकि एक जन्म के बोझ में ही इतना दबा रहता है अनेक जन्मों का बोझ एक साथ  इस जीवन में  कैसे उठाता? मनुष्य का इतिहास,  आशायें , शोक निराशायें सब कुछ सूक्ष्म मन में संचित रहते है । ‘क्रूडमन और सूक्ष्ममन’ (crude and subtle mind) के बेचैन बने रहने के पर कारणमन(causal mind) अपना दावा नहीं करता परन्तु, पिछले सभी जन्मों का पूरा पूरा लेखा क्रमागत रूप से ‘कारणमन’ (causal mind) में संचित होता जाता है। इस प्रकार मन में संचित प्रत्येक सतह अपने अपने जीवन की होती है और चित्रमाला की तरह बनी रहती है जब तक कि वे सब संस्कार भोगकर समाप्त नहीं हो जाते हैं। साधना के द्वारा जब क्रूडमन को सूक्ष्ममन में और सूक्ष्ममन को कारणमन में निलंबित करने का अभ्यास हो जाता है तो साधक अपने पिछले जन्मों का क्रमशः द्रश्य देख सकता है बिलकुल सिनेमा की तरह। दूसरों के पिछले जन्म को देख पाना स्वयं के पिछले जन्मों को देख पाने से सरल होता है, पर क्या यह करना उचित होगा? नहीं । यह भी ईश्वरीय विधान है, पिछले जन्म को जानने पर आगे बढ़ने के लिये मिल रहे अवसरों का लाभ नहीं मिल पाता और अवसाद में ही जीवन निकल जाता है।

पिछले जन्मों की स्पष्ट स्मृति केवल तीन प्रकार की स्थितियों में ही हो सकती है, 1, जिनका व्यक्तित्व अच्छी तरह उन्नत हो, 2, जो स्वेछा से पूर्ण सचेत होकर मरे हों, 3, जो दुर्घटना में मरे हों। इस स्थिति में भी 12 या 13 वर्ष की आयु तक ही यह स्मरण रह पाता है अन्यथा उस व्यक्ति को दुहरा व्यक्तित्व जीना पड़ता है जो पुनः मृत्यु का कारण बनता है। जो व्यक्ति 12/13 साल तक पिछले जन्म की घटनाओं को याद रख पाते हैं वे संस्कृत में यतिस्मर कहलाते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने मन को  एक विंदु पर केन्द्रित कर दे तो उसे अपने पिछले जन्म का सब कुछ याद आ सकता है यदि उसके पिछले संस्कार अपूर्ण रहे हों। पर इस प्रकार का परिश्रम करने का कोई उपयोग नहीं बल्कि उस पराक्रम को परमपुरुष को अनुभव करने में ही लगाना चाहिये उसे जान लेने पर सब कुछ ज्ञात और प्राप्त हो जाता है, पिछले इतिहास को जान लेने से क्या मिलेगा?


Monday, 13 June 2022

379 राज्य, देश, राष्ट्र, राष्ट्रवाद और आध्यात्म


यह विश्वास कि लोगों का एक समूह इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर स्वयं को एकीकृत करता है, राष्ट्रवाद (nationalism) कहलाता है। इन सीमाओं के कारण निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि लोगों को अपने निर्णयों के आधार पर अपना स्वयं का संप्रभु राजनीतिक समुदाय अर्थात् ’राष्ट्र’ स्थापित करने का अधिकार है। परन्तु दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जो इस कसौटी पर खरा उतरता हो। इस आधार पर यदि दुनिया का नक्शा लिया जाए, तो पृथ्वी का हर इंच राष्ट्र की सीमाओं के भीतर विभाजित हो जाएगा। राष्ट्रवाद के आधार पर बना राष्ट्र कल्पना में तब तक बना रहता है जब तक कि वह राष्ट्र, राज्य में नहीं बदल जाता। पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान किया है। इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया है। इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है। इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है तो यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।

‘‘प्रउत दर्शन’’ के अनुसार हमारा न तो राष्ट्र है और न राष्ट्रधर्म। इसका कारण जानने के लिये सबसे पहले हमें अपने इतिहास में जाकर यह समझना होगा कि राष्ट्र और राष्ट्रधर्म होता क्या है। राष्ट्र न तो किसी राज्य के निवासियों से, न भाषा से और न ही रीतिरिवाजों, जीवन शैलियों, जाति , धर्म आदि में से किन्हीं दो या दो से अधिक घटकों के होने से बनता है। ‘‘राष्ट्र’’ है एक अवधारणा एक सेन्टीमेन्ट। भारत में इस प्रकार के सेन्टीमेन्ट्स बनते और नष्ट होते रहे हैं जैसे, आर्यों के आने पर आर्य और अनार्य दो सेन्टीमेंन्ट थे और परस्पर संघर्ष में दोनों मिल गये और भारत, सेन्टीमेन्ट के बिना राष्ट्र नहीं बन पाया। बौद्ध और अबौद्धों के सेन्टीमेन्ट्स के संघर्ष से शंकराचार्य का ब्राह्मण सेन्टीमेन्ट आया परन्तु बौद्धों की पराजय के साथ ब्राह्मण सेन्टीमेन्ट भी परस्पर विभाजित हो जाने से अधिक नहीं जी पाया और भारत फिर राष्ट्र बनते बनते रह गया। जब तक इनके बीच सेन्टीमेन्ट था बाहर से मुस्लिम नहीं आ पाये। मुस्लिमों का अपना जीने का ढंग, भाषा, पहनावा, धर्म और रीतिरिवाजों से नया मुस्लिम सेन्टीमेन्ट आया परन्तु उन्होंने भी आर्यो जैसी अनार्यो पर शोषण की नीति, या जैसे ब्राह्मणों ने बौद्धों के विरुद्ध शोषण की नीति, ही अपनाई । अतः इसके विरुद्ध मुस्लिम विरोधी सेन्टीमेन्ट जागा और दो प्रकार के राष्ट्र बनने लगे एक पर्सियन पर आधारित मुस्लिम और दूसरा संस्कृत पर आधारित हिन्दु। इस प्रकार प्रबल मुस्लिम बिरोधी सेन्टीमेन्ट उत्पन्न हुआ और हिन्दु राष्ट्र बना। परन्तु एकसाथ दो दो राष्ट्र अधिक समय तक नहीं चल सकते अतः आर्यो और अनार्यों की तरह इनमें भी पारस्परिक भाषा, पहनावा और रहन सहन आदि में परिवर्तन आने लगा और फिर से सेन्टीमेन्ट की कमी आ गयी। इसी प्रकार भारत में तीसरी बार सेन्टीमेन्ट की कमी आई जिसका लाभ अंग्रेजों ने उठाया और उन्होंने भी पूर्व में आगन्तुक विदेशियों की तरह शोषण की ही नीति अपनाई जिसके बिरुद्ध पूरे भारत ने नया सेन्टीमेन्ट अंग्रेजों को हटाने के लिये उत्पन्न किया जिससे स्वतन्त्र राष्ट्र के लिये आन्दोलन प्रारम्भ हुआ और नये राष्ट्र का निर्माण हुआ। 

स्पष्ट है कि हम राजनैतिक रूप से स्वतंत्र अवश्य हुए हैं पर अर्थिक रूप से नहीं। राजनैतिक आजादी का सबसे बड़ा दुर्गुण यह है कि इसमें भेदभाव और आर्थिक शोषण की पराकाष्ठा होने से जनसामान्य सुखी नहीं रह पाता। वर्तमान में सबसे खतरनाक प्रकार का शोषण है बौद्धिक और मनोआर्थिक शोषण। इसमें पहले लोगों को मानसिक रूपसे कमजोर करते हुए अपंग बनाया जाता है, फिर आर्थिक शोषण किया जाता है। जैसे, सबसे पहले स्थानीय लोगों की भाषा और संस्कृति को दबाया जाता है, इसके बाद बड़े पैमाने पर छद्मसंस्कृति को गंदे साहित्य में प्रचारित प्रसारित किया जाता है जिससे युवावर्ग का मन उस ओर विशेष प्रकार से आकर्षित होता है। इसके बाद महिलाओं पर अनेक प्रकार के बंधन लगाकर उन्हें आर्थिक रूपसे पुरुषों पर आश्रित बनाये रखा जाता है। अमनोवैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली जिसमें निहित स्वार्थों की भागीदारी होती है उसको चुना जाता हैं। धर्म को नकारा जाता है। समाज को अनेक जातियों और समूहों में विभाजित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के संचार और प्रचार साधनों जैसे न्यूजपेपर, टेलीविजन, रेडियो आदि पर पूँजीपतियों का नियंत्रण होता है। इन परिस्थितियों में धर्मान्धता का अस्त्र फेककर नागरिकों में सच्चे राष्ट्रवाद का सेंटीमेंट कैसे जगाया जा सकता है?

परन्तु यदि स्वतन्त्रता संग्राम, राजनैतिक स्वतंत्रता के स्थान पर आर्थिक स्वतंत्रता के लिये लड़ा जाता तो भारत का विभाजन नहीं होता। अब, हिन्दु और मुस्लिम दो अलग अलग सेन्टीमेन्ट्स फिर आ गये हैं। इस गलती के बाद भाषा के आधार पर राज्यों को सीमांकित करना, राष्ट्रभाषा के प्रश्न को हल न करना, और उच्च अध्ययन में स्थानीय भाषा को माध्यम के रूप में स्वीकार करना, जैसी अनेक गलतियों का परिणाम यह है कि पूर्वकाल से चली आ रही शोषण की प्रवृत्ति और बढ़ती जा रही है तथा भ्रष्टाचार अपनी चरमसीमा पर जा चुका है। इस अवस्था में एक बार राष्ट्र फिर खो गया है और नया सेन्टीमेन्ट मॉंगता है। वह सेन्टीमेन्ट हो सकता है शोषण और भ्रष्टाचार के बिरुद्ध। इसलिये भारत के लोग यदि अपने बौद्धिक दिवालियापन को पाले रहने का लालच छोड़कर सभी प्रकार के शोषण और भ्रष्टाचार के विरुद्ध सेन्टीमेन्ट जनसामान्य में जगाते हैं तो यह सम्भव है कि एक नये राष्ट्र, ‘‘शोषणरहित भारत राष्ट्र’’ का निर्माण हो । परन्तु ध्यान रहे, यह भी सदैव स्थायी नहीं रह सकेगा क्योंकि शोषणमुक्त राष्ट्र बन जाने के बाद शोषण के विरुद्ध कार्यरत सेंटीमेंट समाप्त हो जाएगा अतः समाज को एकीकृत बनाए रखने के लिये नया सेंटीमेंट ‘‘आध्यात्मिक विरासत और ब्रहमांडीय आदर्श विचारधारा’’ लाना होगा वही मनुष्यों को एकता के सूत्र में बांधे रह सकेगा और ‘‘भारत राष्ट्र’’ सही अर्थ में विश्वगुरु कहलाने का हकदार हो सकेगा।


Wednesday, 11 May 2022

378 अपूर्णीय क्षति

  

आजकल प्रायः अनेक विद्वान चर्चा करते हैं कि हमारे पूर्वज ऋषियों के पास बहुत पहले से चिकित्सा, इंजीनियरिंग, एअरोनाटिक्स आदि का ज्ञान था। यह सत्य भी है परन्तु प्रश्न यह है कि वह ज्ञान कहॉं चला गया, हम उसे संरक्षित क्यों नहीं रख पाए? आइए इसका कारण खोजें।

जब मूल सिद्धान्तों को भूलकर अपने वर्चस्व के लिए मनमाने सिद्धान्तों को प्रधानता दी जाने लगती है तो स्वाभाविक रूप से आडम्बर जन्म लेता है और मूल सिद्धान्तों के पालनकर्ताओं को हेय समझा जाने लगता है। भारतीय दर्शन के अनुसार प्रकृति अपने तीन गुणों सत्व, रज और तम में पारस्परिक संतुलन के आधार पर अपनी गतिविधियां जारी रखती है जिससे कहीं पर सत्व की अधिकता हो तो अन्य दोनों रज और तम की आनुपातिक रूप से कमी होती है और इस प्रकार के जीव सात्विक कहलाते हैं जबकि अन्य गुणों की प्रधानता जिनमें होती है वे क्रमशः राजसिक और तामसिक कहलाते हैं। सपष्ट है कि एक ही परिवार में कोई राजसिक कोई तामसिक और कोई सात्विक हो सकता है परन्तु उनमें आपस में घृणा नहीं होती। पूर्वकाल में कुछ अहंकार ग्रस्त लोगों ने तामसिक गुणों के लोगों को घृणित मानकर उन्हें सामाजिक महत्व से वंचित कर दिया और ‘राक्षस’ कहकर पुकारने लगे। अब यदि राक्षस कुल के किसी व्यक्ति ने कोई अच्छा कार्य किया तब भी वह समाज के तथाकथित सात्विकों द्वारा ग्राह्य नहीं माना जाता था अतः हमारे देश में इन तथाकथित राक्षस प्रवृत्ति के लोगों के द्वारा प्राप्त विद्याओं और किये गए अनुसंधानों को भुलाया जाता रहा है।

हमारा पुराना साहित्य इस प्रकार के दृष्टान्तों से भरा पड़ा है। यह उदाहरण देखिए, पूर्वकाल में बंगाल और झारखंड के एक भूभाग के राजा अनुभवसेन की पत्नी कर्कटी तमोगुणी अर्थात् तथाकथित राक्षसी थी परन्तु वह चिकित्सा के क्षेत्र में लगातार अनुसंधान करती रहती थी। उनका पुत्र सुतनुक आदर्श चरित्र का जनहितकारी वैद्य था। इस प्रकार राजा और उनका पुत्र सात्विक परन्तु पत्नी राक्षसी प्रवृत्तियों की मानी गई। कर्कटी ने अपनी प्रयोगशाला में कर्कट रोग जिसे आज केंसर कहा जाता है की खोज कर ली थी परन्तु तत्कालीन संकीर्ण सोच के सात्विकों ने उसे मान्यता नहीं दी इतना ही नहीं जब वह अपनी प्रयोगशाला में शवों का परीक्षण कर रही थी तो इस समूह के लोगों ने उसे यह कहकर वहीं जला दिया कि वह नरमांस भक्षण के लिये शवों को एकत्रित करती रहती है। अर्थात् उसे राक्षसी कहकर मार डाला गया। कहा जाता है कि कर्कटी की प्रयोगशाला में रखे शवों और अन्य रसायनों के साथ उसके जलने से जो भी गैसें उत्पन्न हुई उनसे ‘कॉलेरा’ अर्थात् हैजा (संस्कृत में विसूचिका) और ‘डायबिटीज’ अर्थात् मधुमेह रोग फैला। इसके साथ ही कॉलेरा और केंसर की औषधि भी विलुप्त हो गई। आयुर्वेद, चिकित्सा और सर्जरी के क्षेत्र में पुराने भारत का ज्ञान इसी निरर्थक सोच के कारण नष्ट होता गया ।

यह सर्वविदित है कि लिपि का ज्ञान न होने के कारण उस समय वेदों के ज्ञान को सुन सुन कर एक दूसरे को दिया जाता था इसीलिये उन्हें श्रुति भी कहा जाता है। परन्तु जब लिपि का ज्ञान हो चुका तब भी परम्परावादी तत्कालीन विद्वानों ने लिखने नहीं दिया क्योंकि वेदों को सुनकर ही एक दूसरे को सिखाने की परम्परा को वे बदलना नहीं चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि बहुत सा ज्ञान याद ही नहीं रखा जा सका और जानकार पृथ्वी छोड़कर चले गए। ऋषि अथर्वा ने बड़ी कठिनाई से  इन लोगों से छिप छिप कर अपने साथियों और शिष्यों अंगिरा, अंगिरस, वैदर्भि आदि के साथ वेदों को लिखा जिसे बाद में वेदव्यास ने कालक्रम के अनुसार चार भागों में विभाजित किया।

इसी प्रकार की दकियानूसी विचारधारा का वर्तमान समय का ही उदाहरण है, वह घटना जब अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव बढ़ा तब उसी अवधि में अड़ियल मुल्लाओं के एक समूह ने अंग्रेजी भाषा के खिलाफ एक फतवा जारी किया कि ‘‘यह एक अपवित्र भाषा है क्योंकि यह बाएं से दाएं लिखी जाती है। अगर मुसलमानों ने इसे सीख लिया तो वे अपनी धार्मिक पहचान खो देंगे और ईसाई बन जाएंगे।’’ मुस्लिम विद्वानों के इस रवैये का भारतीय मुसलमानों पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ा। बाद में उन्हें क्षति पूर्ति करने के लिए ही अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना करनी पड़ी।

स्पष्ट है कि जब तक हम तर्क और विज्ञान पर आधारित विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता का समुचित उपयोग कर ऊंचनीच की भावना को दूर करना नहीं सीख लेते हमारे इस प्रकार के दम्भ का कोई मूल्य नहीं कि हम पूर्वकाल में कितने ज्ञान सम्पन्न थे।


Friday, 6 May 2022

377 धर्म


आजकल कुछ विद्वानों को इस बात पर बहस करते देखा जाता है कि कृष्ण के समय अर्थात् पांच हजार साल पहले जब अनेक धर्म थे ही नहीं तो उनका अर्जुन से यह कहना निरर्थक है कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात् सभी धर्मो को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। कुछ विद्वानों तर्क है कि उनका यह कथन उस बनिये की तरह है जो कहता है कि मेरी दूकान में ही सबसे अच्छा माल मिलता है इसलिए अन्य दूकानों पर न जाकर केवल मेरे पास ही आओ।
वास्तव में यह बहस तब उत्पन्न होती है जब हम ‘‘धर्म’’ का अर्थ अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द के समानार्थी की तरह स्वीकार करते हैं जबकि रिलीजन का अर्थ है ‘मतवाद’ से न कि धर्म से। अंग्रेजी में धर्म के समतुल्य यदि कोई शब्द है तो वह है ड्युटी अर्थात् कर्तव्य। सोचने वाली बात यह है कि कृष्ण और अर्जुन का संवाद हो रहा है युद्ध स्थल पर। युद्ध भी तत्काल के निर्णय पर नहीं वरन् अनेक प्रकार से शान्ति के प्रयास असफल हो जाने के बाद हुआ। अब यदि कोई योद्धा कहे कि मैं इन्हें क्यों मारूं ये तो मेरे सगे संबंधी हैं, यदि ये मर गए तो इनके आश्रित संबंधियों का क्या होगा, यह पाप क्यों करना आदि, तो क्या उचित होगा? नहीं।
इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात्, पृथकता, चिन्ता, भय और रोना (द्वितीयक धर्म यानी सभी उपधर्म) छोड़कर, केवल मेरी ओर अर्थात् परमसत्ता की ओर (प्राथमिक धर्म यानी प्रधान धर्म की ओर ) आनन्दपूर्वक चले आओ । यदि चलते हुए गिरने से चोट लग जाए तो तुम्हारा पिता गुणकारी मरहम लगा कर ठीक कर देगा, धूल को पोंछ कर स्वच्छ कर देगा, चिन्ता की कोई बात नहीं । यही समझाने के लिए उन्होंने अनेक शब्दों में से ‘‘ब्रज’’, ब्रजति अर्थात् ‘‘आनन्द पूर्वक चलना’’ को ही अपने कथन में प्रयुक्त किया है। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि ‘ चिंता न करो, मैं तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा’ जो इससे पहले न किसी ने कहा है और न भविष्य में कहेगा। यह केवल कृष्ण का ही सामर्थ्य है किसी बनिये का नहीं। संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद की गई पुस्तकों में प्रायः इस प्रकार के निराधार अर्थ किये गए हैं और अर्थ का अनर्थ किया गया है। पाठकों को मूल संस्कृत का निरुक्त के आधार पर स्वविवेक से अर्थ ग्राह्य करना चाहिए। कृष्ण लगातार बुला रहे हैं और हम डरकर उनसे दूर भागते जा रहे हैं प्रकृति के हर क्षण बदलते मायावी स्वरूपों से आकर्षित होकर । इस विचित्र दुनिया के सतत रूपान्तरित होते वर्णक्रम को हमने सबकुछ मान लिया है!

Sunday, 10 April 2022

376 अनर्थ


योग में यम और नियम साधना करने का विशेष महत्व है। नियम साधना का एक खंड है‘‘स्वाध्याय’’। इसका अर्थ है किसी जटिल आध्यात्मिक तत्व के गूढ़ार्थ को समझकर अध्ययन करना और तदनुसार आचरण करना। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि शास्त्रों में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ को जिस संदर्भ में प्रयुक्त किया गया है उन्हें उसी के आधार पर उनकी व्युत्पत्ति के साथ समझना। यदि ऐसा न किया जाय तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है और समाज को अपूर्णीय क्षति का सामना करना पड़ता है। वर्तमान में शास्त्रज्ञों और व्याख्याकारों की भरमार देखी जाती है जो शास्त्रों को अत्मसात किये बिना ही धनोपार्जन के लिये मनमानी व्याख्या में लगे हुए हैं। शास्त्र निहित भाषा की दूरूहता को समझे बिना किस्से कहानियों की तरह सुनाकर दूर हो जाने से समाज विभ्रान्त होकर धर्मच्युत हो जाता है। इन तथाकथित विद्वानों की व्याख्याओं के कुछ उदाहरण देखिए जिनसे समाज पर कुप्रभाव पड़ा है-

1. ‘शाक्त’ संप्रदाय के उपासकों में ‘पंच मकार’ साधना में ‘मकार’ को सिद्ध करने के लिये शक्ति  रूपी ‘मॉं’ को संतुष्ट करने के नाम पर बलि देने का प्रावधान किया गया और प्रसाद के रूप में  ‘मांस’ भक्षण  प्रारंभ कर दिया गया। जबकि शब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर ‘मा’ का अर्थ होता है ‘जिव्हा’ अर्थात् जीभ, और मांस का अर्थ हुआ ‘जिव्हा का कार्य’ अर्थात् ‘वचन’। इसका गूढ़ार्थ हुआ ‘‘जो साधक वचन का रोज भक्षण करता है’’ अर्थात् ‘वाक् संयम’ का नियमित अभ्यास करता है वह है ‘मांस साधक’। परन्तु दुख है कि सतही ज्ञान के पोषक तथाकथित व्याख्याकारों ने अनर्थ कर निरीह प्राणियों की हत्या कराना प्रारंभ कर दिया।

2. शब्दों के प्रयोग करने के स्थान आदि के अनुसार शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं परन्तु सतही ज्ञान वाले पंडित स्वाध्याय के अभाव में इसका महत्व नहीं जानते और समाज को गलत दिशा देते पाए जाते हैं। जैसे, ‘‘शोण्डिकः सुरालयं गच्छति’’ में ‘सुरालय’ का स्वाभाविक अर्थ होगा सुरा की दूकान यानि ‘मदिरालय’ (अर्थात् शोण्डिक मदिरालय जाता है) परन्तु ‘नारदः सुरालयं गच्छति’ में यदि इस प्रकार का अर्थ लिया जाएगा तो अनर्थ होगा। यहॉं ‘सुरालय’ का अर्थ होगा ‘सुरों का आलय’ अर्थात् ‘सुर’ माने ‘देव’ इसलिये सुरों का आलय मतलब देवालय, (अर्थात् नारद देवालय जाते हैं) न कि मदिरालय यानि ‘सुरा का आलय’।

3. वैदिक काल में जब लिपि नहीं थी तब सभी तथ्य और मंत्र मौखिक ही गुणीजन अन्यों को समझाया करते थे। उस समय व्यवस्था बनायी गई थी कि पति के मरने पर पत्नी शवयात्रा में कुछ दूर तक आगे आगे जायेगी (विधवा अग्रे गमिष्यति) परन्तु लिपि के आने के बाद इसे लिखा गया (विधवा अग्ने गमिष्यति) और अमानवीय ‘सतीप्रथा’ का दंश यह मानव समाज झेलता रहा।

इस प्रकार के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे यही निष्कर्ष निकलता है कि शास्त्रों के नाम पर धर्मव्यवसायी तथा स्वार्थी तत्वों द्वारा युक्तहीन, तर्कहीन, अवैज्ञानिक  और अव्यावहारिक धारणाओं का प्रचार किया जा रहा है जिनका यथार्थ ज्ञानवेत्ताओं को खंडन करना चाहिए और ‘स्वाध्याय’ को सही अर्थ मैं आत्मसात करने का प्रोत्साहन करना चाहिए।


Monday, 21 March 2022

375 वर्णार्घ्य


रंग सभी को आकर्षित करते हैं। यह विश्व रंगीन है, सभी इन रंगों को पाने की इच्छा से उसी ओर दौड़ते जा रहे हैं। बसंत ऋतु में प्रकृति अपने रंगों को अद्वितीय रूप से विकीर्णित करती है। इसके उल्लास में लोग बसंतोत्सव मनाते हैं। रंगों की ओर पागलों की तरह दौड़ने वाले यह लोग वैसा ही कार्य कर रहे होते हैं जैसे कोई धुएं या ध्वनि को पकड़ने के लिए उनके पीछे भागे। विवेक पूर्वक सोचने पर पता चलता है कि यदि धुएं या ध्वनि के श्रोत को ही पकड़ लिया जाए तो इन्हें नियंत्रित कर पाना कठिन नहीं है। पर यह कोई नहीं करता, उन रंगीन वस्तुओं को पाने के लिए उनके पीछे दौड़ लगाते हैं जो उनका है ही नहीं। विज्ञान के अनुसार सभी रंग तो प्रकाश के ही हैं वस्तुएं तो केवल उसे परावर्तित ही करती हैं। लोगों के मन में यह विचार कभी नहीं आता कि जिसने इतने आकर्षित करने वाले रंगों की दुनिया बनाई है वह निश्चय ही इससे अधिक अकर्षक होना चाहिए पर उसे पाने की इच्छा ही नहीं जागती।

संस्कृत में रंग को ‘‘वर्ण’’ कहा जाता है और विज्ञान में ‘‘तरंगदैर्घ्य’’। जब हम किसी वस्तु या व्यक्ति के संबंध में व्याख्या करते हैं तो इसीलिए उसे कहा जाता है ‘वर्णन’। विद्यातंत्र में सभी प्रकार के अच्छे बुरे संस्कारों को मन के ऊपर तरंगों अर्थात् वर्णों के रूप में चिपका हुआ माना जाता है। इसका साक्षीस्वरूप जीवात्मा भी इसी कारण इन रंगों के प्रभाव में आकर वर्ण बिखेरने लगता है। मूलतः वर्णहीन, यह अलग अलग प्रकार से वर्णित किया जाने लगता है और संसार इसी में भ्रमित बना रहता है। विद्यातंत्र में इन सभी वर्णों से मुक्त होकर अपने ‘अवर्ण स्वरूप’ को जाने की विधियां समझाई गई है। प्रतिदिन इन्हें प्रयुक्त करते हुए अपने अवर्ण स्वरूप से साक्षात्कार किया जा सकता है। इन्हें ‘‘वर्णार्घ्य दान ’’ कहा जाता है। जिसका अर्थ है रंगों के रूप में चिपके हुए सभी संस्कारों को उनके निर्माता को ही दान करते जाना। वैष्णवतंत्र में इस सिद्धान्त को ‘‘हरि’’ शब्द से व्यक्त किया जाता है जिसका अर्थ है ‘‘हरति पापान् इत्यर्थे हरिः’’ अर्थात् जो पापों को हर लेता है वह हरि है। 


Tuesday, 15 March 2022

374 निरुक्तकार ‘‘यास्क’’

  

‘‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’’ यह वेद का कथन नहीं है परन्तु 6 वेदांगों में से एक जिसे ‘निरुक्त’ कहा जाता है, की व्याख्या है। निरुक्त में, वेदों में प्रयुक्त हुए शब्दों की शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर व्याख्या की गई है। निरुक्त का जनक ‘‘यास्क’’ को माना जाता है। यास्क ने सरल सूत्रों के अनुसार वैदिक संस्कृत के शब्दों की व्याख्या की है अतः वेदों का सही सही अर्थ जानने के लिये निरुक्त का अध्ययन करना परम आवश्यक है। इसका महत्व ‘पाणिनी’ जैसे व्याकरणाचार्य ने समझाते हुए कहा है कि निरुक्त श्रुति (वेद) के श्रोतृ (कान) हैं। निरुक्त में तीन कांड क्रमशः नैघंटुक, नैगम और दैवत हैं इन्हें 12 अध्यायों में विस्तारित किया गया है।

निरुक्त के अध्याय 2 के 12 वें श्लोक में यास्क का कथन मनन करने योग्य है ‘‘मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानब्रुवन् को न ऋषिर्भवतीति। तेभ्य एतं तर्कऋषिं प्रायच्छन्....’’ अर्थात् वेदार्थ को भली भांति समझने के लिए ‘‘तर्क ऋषि’’ की मदद ली जाना चाहिए क्योंकि अब ऋषियों का उत्क्रमण हो चुका है। अतः तर्क से गवेषणापूर्वक निश्चित किया हुआ  अर्थ ऋषियों के अनुकूल ही होगा। इसी आधार पर स्मृतियों में भी कहा गया है कि ‘‘यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्म वेद नापरः’‘ अर्थात् जो तर्क से  वेदार्थ का अनुसंधान करता है वही धर्म को जानता है दूसरा नहीं।

हमारे देश में बाहर से आकर अपनी जड़ें फैलाते जा रहे कुछ तथाकथित धर्मों का कहना है कि उनके ज्ञाता जो कह रहे हैं वही सत्य है उसे आंख मूंद कर स्वीकार करना चाहिए, उसमें तर्कवितर्क करने की गुंजाइश ही नही है। वे अपने धर्मग्रंथों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ‘मजहब में अकल का दखल नहीं ’। इससे प्रभावित होकर देश के कुछ लोगों ने यह भी कहना प्रारंभ कर दिया है कि ‘‘ विश्वासे ही फल मिले तर्के बहुदुर ।’’ स्पष्ट है कि ये मतावलंबी, अंधानुकरण करने की प्रेरणा ही देते हैं जिससे उनकी स्वार्थ सिद्धि होती रहे। इसलिए सत्य के अनुसंधान कर्ताओं को ‘‘निरुक्त’’ में की गई व्याख्या के आधार पर प्रत्येक शब्द का अर्थ अपने तर्क, विज्ञान और विवेक के अनुसार ही निर्धारित करना चाहिए। 


Sunday, 13 March 2022

373 अंतर्ज्ञान कालातीत होता है।

 अंतर्ज्ञान कालातीत होता है। 

बुढ़ापे की प्रक्रिया न केवल हाथों  और पैरों को प्रभावित करती है, बल्कि मस्तिष्क सहित पूरे शरीर को भी अपने प्रभाव में ले लेती है। मस्तिष्क  हमारा  मानसिक केंद्र है । यही कारण है कि 50 या 60 साल की आयु पार करने के बाद, आम लोगों की बुद्धि कमजोर पड़ती है। उनकी तंत्रिका कोशिकायें अधिक से अधिक  कमजोर हो जाती हैं। लोग, अपनी स्मृति और मनोवैज्ञानिक संकाय धीरे धीरे एक दिन कम होते जाते हैं और एक दिन  उनके दिमाग भी काम करना बंद कर देते हैं।  यह असाधकों के साथ होता है जब वे बहुत बूढ़े हो जाते हैं। हालांकि, योग साधना करने वालों के मामले में, यह नहीं होता है। परन्तु आपको केवल बुद्धि पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि बुद्धि में इतनी  दृढ़ता नहीं होती है। अगर आपके पास भक्ति है, तो अंतर्ज्ञान विकसित होगा और इसके साथ, आप समाज को बेहतर और बेहतर सेवा करने में सक्षम होंगे। 

इसलिए मानसिक क्षेत्र में, भक्त अंतर्ज्ञान पर अधिक निर्भर करते हैं जो  कभी भी क्षय नहीं होता क्योंकि अंतर्ज्ञान ब्रह्मांडीय विचारों पर आधारित होता है। जब मन को सुदृढ़ किया जाता है या उसे सूक्ष्म दृष्टिकोण की ओर निर्देशित किया जाता  है, तो वह  “पुराना हो रहा है“ इसका प्रश्न ही नहीं उठता । मन अपना विस्तार करना जारी रखता है जिससे वह  अधिक तेज और अधिक एकाग्र  होता जाता है परन्तु जो लोग केवल बुद्धि पर निर्भर होते हैं वे बहुत कष्ट पाते हैं। इसका कारण यह है कि बुढ़ापे की शुरुआत से ही  उनका  मानसिक संकाय अधिक से अधिक कमजोर  होता  जाता है जब तक कि उनकी बुद्धि पूरी तरह से नष्ट होने  की संभावना न हो जाय । जो लोग अपने अन्तर्मन से भक्ति कर रहे हैं वे आसानी से परमपुरुष  द्वारा अंतर्ज्ञान पाने का  आशीर्वाद प्राप्त कर लेते  हैं।

अगर किसी ने अपनी युवा अवस्था  से ही उचित साधना की है  और मन को आध्यात्मिक  अभ्यास  में प्रशिक्षण दिया  है तो उसकी  प्राकृतिक प्रवृत्ति परमार्थ  की ओर बढ़ने की हो जाती है।  इस प्रकार  साधना करते हुए  उसे अंतिम सांस तक कोई समस्या आने का कोई प्रश्न नहीं उठता । उनका मन  आसानी से ब्रह्मांडीय लय और  ताल में बह जाएगा और साधना क्रिया स्वाभाविक रूप से सरल होगी । इसके विपरीत यदि कोई कहे कि साधना करना तो बुढ़ापे का कार्य है तो उसे बहुत कठिनाई होगी।


Monday, 14 February 2022

372 अर्जुन का अहंकार


यह तो सभी जानते हैं कि अर्जुन महाभारत का वह पात्र है जिसे महावीर योद्धा और धनुर्विद्या में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यद्यपि उसी के समकालीन कर्ण और एकलव्य धनुर्विद्या में तथा घटोत्कच और बर्वरीक राक्षसी युद्ध विद्या में उससे श्रेष्ठ थे परन्तु तात्कालिक सामाजिक मान्यताओं के कारण अर्जुन को एकपक्षीय लाभ प्राप्त होता रहा। यह ठीक वैसा ही कहा जा सकता है जैसे आज के युग में उत्तम योग्यता धारक किसी सवर्ण का चयन रोककर आरक्षित श्रेणी के अपेक्षतया कम योग्यता धारक युवक का चयन किया जाता है। कर्ण को सूत पुत्र कहकर, एकलव्य को शूद्र कुल का कहकर तथा घटोत्कच और बर्वरीक को राक्षस कुल का कहकर अर्जुन के रास्ते से अलग कर दिया गया। यहांॅ यह स्मरणीय है कि महाभारत युद्ध में अर्जुन पर कर्ण द्वारा चलाए गए अमोघ ब्रह्मास्त्र को घटोत्कच ने अपने ऊपर लेकर अर्जुन के प्राण बचाये और अपना उत्सर्ग किया, बर्वरीक को युद्ध में लड़ने से कृष्ण ने अपनी नीति से न रोका होता तो निश्चय ही वह कौरवों की ओर से लड़ा होता और उसके अकेले लड़ने से ही पांडवों की हार निश्चय थी। जो भी हो, सब कुछ काल के आधीन होता है और तदनुसार ही  प्रकृति परिस्थितियॉं निर्मित करती जाती है।

इससे कुछ लोग पूछ सकते हैं कि ‘फिर अर्जुन के पास वह क्या था जो उपरोक्त महावीरों से पृथक करता है और उसे कृष्ण का प्रिय बनाता है?’ इसमें कोई शक नहीं  कि अर्जुन महावीर महारथी था। कृष्ण ने भी उसका साथ दिया क्योंकि वह धर्मपरायण और निष्पाप था। उपनिषदों में परमपुरुष को अनुभव करने के लिये जिन छः स्थितियों का विवरण मिलता है वे हैं, सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी और कैवल्य। कहा जाता है कि इनमें से अर्जुन को ‘सालोक्य’ स्थिति की उत्तम अनुभूति थी जबकि दुर्योधन को बिलकुल नहीं। इसका उदाहरण है, जब कृष्ण को युद्ध का आमंत्रण देने दुर्योधन और अर्जुन दोनों उनके घर पहुंचे तब भले ही कृष्ण ने सोते रहने का बहाना बनाया हो और दुर्योधन पहले आया हो, लेकिन वह उनके सिरहाने बैठा जबकि अर्जुन उसके बाद में आया और कृष्ण के पैरों की ओर बैठा। इस प्रकार जब कृष्ण ने अपनी झूठी निद्रा तोड़ी तो सबसे पहले अर्जुन को और बाद में दुर्योधन को देखा। विद्वान इसे सालोक्य अनुभूति का प्रभाव कहते हैं जो अर्जुन को प्राप्त थी दुर्योधन को नहीं। एक अन्य बात यह भी कि जहॉं अर्जुन को सहजनैतिकता के साथ परमपुरुष की भक्ति का उच्च स्तर प्राप्त था वहीं कर्ण, घटोत्कच या बर्वरीक में सहजनैतिकता होने के बाबजूद भक्ति का स्तर अपेक्षतया कम था।

आध्यात्म के मर्मज्ञ विद्वान कहते हैं कि जब भक्त अपने इष्ट की अनुभूति करने करने लगता है तो वह दूसरे भक्तों से अपने को अधिक श्रेष्ठ मानने की सात्विक भूल कर बैठता है। वह सोचता है कि मेरे  कार्य से भगवान प्रसन्न होते हैं अतः मुझे अपार प्रसन्नता का अनुभव होता है। दार्शनिक इसे ‘रागानुगा भक्ति ’ कहते हैं। जबकि इससे भी श्रेष्ठ मानी गई है ‘रागात्मिका भक्ति’ जिसमें भक्त की यह भावना होती है कि भले ही मुझे कितना ही कष्ट हो, मेरे हर कार्य से मेरे प्रभु प्रसन्न ही हों, उन्हें कोई कष्ट न हो। युद्ध के समाप्त होने और युधिष्ठर के राजकाज सम्हालने के बाद कुछ समय पश्चात् अर्जुन रागानुगा भक्ति के प्रभाव में अहंकारी हो चले तब कृष्ण ने इस दोष को दूर करने के लिए उपाय सोचा। इसका दृष्टान्त यह है कि एक दिन कृष्ण, अर्जुन को छद्मवेश में नगर से दूर घुमाने पैदल ही ले गए। दूर जाते हुए खेत में एक कृषकाय बृद्ध केवल लंगोट पहने परन्तु कमर में तलवार लटकाए, हाथ में टोकनी लिए खेत की कटाई हो चुकने के बाद वहॉं गिरे हुए बीजों को ढूंड़ रहा था। अर्जुन का ध्यान उस पर गया तो उसने कृष्ण से कहा ‘देखो तो, यह जीर्ण देहधारी जो अन्न वस्त्र से बंचित है फिर भी कमर में तलवार लटकाए फिरता है! कृष्ण बोले, चलो उसी से इसका कारण पूछते हैं। अर्जुन ने उस बृद्ध से पूछा, ‘महोदय! आप शरीर से बहुत कमजोर दिखाई देते हैं फिर भी इस तलवार का बोझ क्यों लादे हैं?’ उसने कहा, भैया! अभी मुझे तीन लोगों से बदला लेना है जिसमें यह तलवार ही काम आएगी।’ वे कौन लोग हैं, अर्जुन ने उत्सुकता से पूछा। बृद्ध ने कहा, ‘सबसे पहले अर्जुन जहॉं भी मिलेगा उसे मारना है, फिर द्रोपदी को और फिर सुदामा को’। ‘लेकिन इन बेचारों ने आपका क्या बिगाड़ा है,  अर्जुन ने पूछा। बृद्ध बोला, क्या नहीं बिगाड़ा? अर्जुन ने मेरे प्रभु को सारथी बना कर उनसे घोड़ों की लगाम खिचवाई, उनकी हथेलयों में छाले पड़ गए, मैं यह कैसे सहन कर सकता हॅूं। अच्छा, लेकिन बेचारी द्रोपदी ने तो कुछ नहीं किया, अर्जुन ने फिर पूछा। वह बोला, अरे! उसने तो मेरे प्रभु को उस समय पुकारा जब वह भोजन करने के लिए पहला कौर भी मुंह में नहीं रख पाए, वे भूखे ही उसे मदद करने दौड़ पड़े, क्या उनका कष्ट तुम समझ सकते हो? ठीक है, पर सुदामा तो गरीब ब्राहम्ण भक्त है उसकी क्या गलती है? अर्जुन ने फिर पूछा। बृद्ध बोला, अरे वह मिल जाय तो एक ही बार में उसे दो टुकड़े करना चाहता हॅूं, उसने मेरे प्रभु से अपने पैर धुलवाए, उन्हें नंगे पांव दौड़ते हुए महल के बाहर तक दौड़ाया, उनके पैरों में पड़े छालों का दर्द तुम क्या जानो राहगीर! जाओ मुझे अपना काम करने दो। अर्जुन को उसकी पराभक्ति का आभास हो गया और उच्च स्तर के भक्त होने का दम्भ चूर चूर हो गया। मन ही मन वे कृष्ण को साष्टांग प्रणाम करने लगे।

निष्कर्ष यह कि ज्ञान, विद्या, कौशल और भक्ति यह सभी लगन और अभ्यास पर निर्भर होते हैं जिन पर किसी वर्ग विशेष का विशेषाधिकार नहीं है परन्तु पूर्व काल से ही समाज के एक वर्ग ने दूसरे को यह अवसर नहीं दिया जिससे वे अपना मानसिक और आध्यात्मिक विकास करने से वंचित रह गये।

Friday, 21 January 2022

371 कृष्ण द्वैपायन व्यास

 

यमुना नदी जिस क्षेत्र से बहती है वह काली मिट्टी प्रधान है और गंगा का पीला। प्रयाग के पास संगम से पूर्व यमुना उस समय जिस काले क्षेत्र को घेर कर बहा करती थी वह कहलाता था कृष्ण द्वीप। इस  कृष्ण द्वीप पर निवास करने वाले एक (मत्स्यजीवी) मछुवारे परिवार में जन्मे बालक का नाम हुआ कृष्णद्वैपायन। उस परिवार की उपाधि थी व्यास इसलिये वह कहलाये कृष्ण द्वैपायन व्यास। परन्तु इस नाम से उन्हें संसार कम जानता है उन्हें वेदव्यास के नाम से अधिक जाना जाता है। इसका ऐतिहासिक कारण यह है कि आज से लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व तत्कालीन भारतीय जनसमाज में वेद प्रायः लुप्त हो चले थे। वेदों की चर्चा न होने के कारण सामान्य लोग वेदों के विषय में जानते भी नहीं थे। कृष्णद्वैपायन व्यास ने ही सर्वप्रथम वेद की महत्ता स्थापित की और सामाजिक जीवन में वेद का प्रचलन कराया। इसी कारण उन्हें प्रायः वेद व्यास के नाम से अधिक जाना जाता है। 

सामान्यतः इससे लोग यह अंदाज लगाते हैं और मानते हैं कि वेदों के रचियता वेद व्यास हैं। परन्तु यह सत्य नहीं है। वेद तो वेदव्यास से भी हजारों साल पहले ऋषियों के अनुभवों और अनुसंधान के ज्ञान के संग्रह के रूप में सुन सुन कर याद रखे जाते थे क्यों कि लिखने की लिपि का अनुसंधान उस समय नहीं हुआ था। सुन सुन कर याद रखे जाने के कारण ही वेदों को श्रुति भी कहा जाता है। इस प्रकार इस अमूल्य ज्ञान में कालान्तर में नये अनुसंधानों से वृद्धि भी हुई और स्मरण में न रख पाने के कारण बहुत सा अंश विलुप्त भी होता गया। इसी क्रम में ऋग्वेदिक काल और यजुर्वेदिक काल समाप्त हो चुके तब ब्राह्मी और खरोष्टि लिपियों का अनुसंधान हुआ और भोज पत्र पर लिखने का अभ्यास किया जाने लगा। महर्षि  अथर्वा ने तब अपने अन्य साथियों वैदर्भि, अंगिरा, अंगिरस आदि की सहायता से वेदों को लिखने का कार्य करना चाहा परन्तु तत्कालीन विद्वत समाज में एक यह मान्यता बनी हुई थी कि वेदों को लिखा नहीं जाना चाहिये क्योंकि उन्हें सुनकर याद रखने की ही परम्परा है। ऋषि अथर्वा ने बहुत समझाने का प्रयास किया परन्तु उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। अथर्वा जानते थे कि इस प्रकार तो बहुत ही महत्वपूर्ण ज्ञान धीरे धीरे नष्ट ही हो जायेगा इसलिये उन्होंने तत्कालीन विद्वानों से विवाद छोड़कर अपने पूर्वोक्त मित्रों और शिष्यों की सहायता से छिप छिप कर वेदों की वैदिक संस्कृत को ब्राह्मी में लिपिबद्ध किया। वह भी महाभारत काल तक विलुप्तप्राय हो चुके थे जिन्हें कृष्णद्वैपायन व्यास ने खेजकर काल क्रम के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद इन तीन भागों में बॉंटा। उन्होंने इन तीनों भागों के पद्यात्मक भाग को अलग कर उसे चौथा वेद सामवेद कहा। इस प्रकार उनका नाम वेदव्यास पड़ा। 

इस महत्वपूर्ण श्रमसाघ्य कार्य के अलावा उनकी अन्य रचना है महाकाव्य ‘महाभारत’ जिसमें रसात्मक शैली में श्रीकृष्ण की महान परिकल्पना को साकार रूप देते हुए व्यक्ति के विकास के चारों अंग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सन्निहित हैं। इसी कारण वेदव्यास का ‘महाभारत’ एक उच्चकोटि का इतिहास ग्रंथ है। चूंकि वेदों और महाभरत में दी गई शिक्षाओं को सामान्य जन समाज सरलता से समझ पाने में असमर्थ था अतः वेदव्यास ने काल्पनिक कथाओं को आधार देकर लोक शिक्षा के लिये  अठारह पुराणों की रचना भी की। उन्होंने अन्त में कहा है कि सभी अठारह पुराणों में मैं केवल दो ही बातों पर जोर देता हूँ , पहला, परोपकार करने से पुण्य और दूसरा, दूसरों को पीड़ा देने से पाप मिलता है।

‘‘ अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकारः पुण्याय पापाय परिपीडनम्।।’’


370 राक्षस कुलगौरव महावीर घटोत्कच और बर्बरीक

 

सामान्य अवधारणा है कि रासक्ष लंबे दातों और नाखूनों वाले भयानक आकृति के और सबको अकारण ही कष्ट पहुंचाने वाले होते हैं। परन्तु यह गलत है, वे भी हमारी तरह सामान्य व्यक्ति थे, शिव के उपासक और तंत्र के क्षेत्र में नये अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक ही  थे। परन्तु उनकी शक्तियों और कार्यों से देश का एक वर्ग सदा ही ईर्ष्या करता रहा और उन्हें नुकसान पहुंचाने में ही अपना गौरव मानता रहा। इनमें से महाभारत काल के दो राक्षस चरित्रों के संबंध में संक्षेप में जानिए वे क्या थे-

घटोत्कच

भीमसेन का हिडिम्बा से उत्पन्न पुत्र ‘घटोत्कच’ नाम से प्रसिद्ध है। हिडिम्बा राक्षस कुल में उत्पन्न हुई और राक्षसी विद्या में प्रवीण थी जिसे उसने घटोत्कच को सिखाया। घटोत्कच ने इस विद्या को युद्ध में उपयोग करने की नई विधा से जोड़ा और अपराजेय बन गया। महाभारत युद्ध में जब पांडव सेना को कर्ण, विनाश करने पर तुल गए तो कृष्ण ने घटोत्कच को पांडवों की ओर से युद्ध में उतारा। घटोत्कच ने कौरवों की सेना को जब गाजर मूली की तरह काटना मारना शुरु किया तो दुर्योधन को डर लगने लगा कि यदि यह राक्षस अधिक देर तक जीवित रहा तो आज ही उसका तथा सेना का सफाया हो जायेगा। अतः उसने कर्ण से, इंद्र की दी गई शक्ति को, जिसे वह अर्जुन को मारने के लिये सुरक्षित रखे था, घटोत्कच पर चला देने का दबाव डाला और घटोत्कच के इस प्रकार के बलिदान से अर्जुन को कृष्ण की नीति द्वारा बचाया जा सका। इस विद्या में घटोत्कच ने अपनी पत्नी मौरवी के साथ अपने पुत्र बर्वरीक को भी प्रशिक्षण दिया जो तत्समय कृष्ण द्वारा सर्वश्रेष्ठ योद्धा माना गया था।

बर्बरीक

बर्वरीक की राक्षसी विद्या में पराकाष्ठा के संबंध में कहा जाता है कि कौरवों और पांडवों के बीच प्रारंभ हाने वाले युद्ध में जब वह भाग लेने जा रहा था तब सर्वज्ञाता श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण के रूप में उसके पास जाकर परिचय पूछा। बर्बरीक ने कहा युद्ध में भाग लेने जा रहा हॅूं। परन्तु उसके तूणीर में केवल तीन वाण ही देखकर कृष्ण ने हंसी उड़ाते हुए कहा अजीब योद्धा हो ! केवल तीन वाणों से इस महायुद्ध में कितने दिन लड़ सकोगे। वह बोला मुझे तो केवल एक ही वाण पर्याप्त है, वह लक्ष्य भेद करके वापस मेरे तूणीर में आ जाता है। कृष्ण बोले अच्छा इस पीपल के पेड़ के सभी पत्तों को बेधकर दिखाओ तुम्हारा वाण किस प्रकार वापस आता है। उसका तीर सभी पत्तों को बेधकर श्रीकृष्ण के पैर के चारों ओर चक्कर लगाने लगा। बर्बरीक ने कहा ब्राह्मण देवता आप अपना पैर पत्ते के ऊपर से हटा लीजिए नहीं तो यह तीर आपका पैर छेद देगा। कृष्ण ने पूछा किस पक्ष से लड़ने की इच्छा है, वह बोला जो पक्ष पराजित हो रहा होगा उसकी ओर से लड़ूंगा। कृष्ण ने सोचा कि यदि यह हारने वाले पक्ष कौरवों की ओर से लड़ेगा तो धर्मराज्य स्थापित करने की उनकी योजना सफल ही नहीं होगी। अतः उन्होंने अपने वास्तविक रूप में आकर उसे कहा कि तुम इस समय के सर्वश्रेष्ठ योद्धा हो अतः युद्ध प्रारंभ करने के पूर्व तुम्हारा सिर इस रणक्षेत्र को दान करना होगा। उसने कहा ठीक है प्रभो! मैं आपकी शरण में हॅूं, परन्तु मैं मरने के पहले आपके चतुर्भुज रूप को देखना चाहता हॅूं और इस युद्ध को होते भी देखना चाहता हॅूं। कृष्ण ने उसे एक ऊंचे पहाड़ पर बैठकर युद्ध देखने की अनुमति दे दी। युद्ध की समाप्ति पर बर्बरीक से जब पूछा गया कि किस पक्ष के कौन कौन से योद्धाओं ने श्रेष्ठ रणकौशल दिखाया तब उसने जबाब दिया, प्रभो! दोनों ओर से आप ही लड़ रहे थे, आप ही मार रहे थे, आप ही मर रहे थे। 

अब सोचिए राक्षसों के प्रति लोगों की सोच कितनी उचित है।


Thursday, 20 January 2022

369 जरा, कर्करी, हिडिम्बा और जम्भाला

 

महाभारत काल में भीम को दुर्याधन के द्वारा दिए गये विष की चिकित्सा कृष्ण के सुझाव पर  विष के द्वारा किए जाने के प्रमाण पाए जाते हैं जो ‘‘समः समम् शाम्यति’’ के सद्धान्त के अनुसार ही है। उस समय आयुर्वेद में विष चिकित्सा पर शोध के अलावा ‘‘सूचिकाभरण’’ (जिसे आजकल इंजेक्शन कहा जाता है) पर भी प्रचुर जानकारी उपलब्ध थी परन्तु उस समय लोगों में यह अंधविश्वास फैला था कि शरीर में बाहरी द्रव्य सीधे ही नहीं भेजा जाना चाहिए, अतः इस कार्य के विकास में अवरोध आ गया। शल्यचिकित्सा को भी राक्षसी विद्या कहकर हेय माना जाता था। अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इंजेक्शन से दवा देना और शल्यचिकित्सा करना सहज माना जाता है। उस समय की चार महिला राक्षसी चिकित्सकों में से केवल ‘हिडिम्बा’ को ही लोग जानते हैं क्योंकि महाभारत की कहानियों में उनका नाम आता है और वह बाद में भीम की पत्नी हुईं। परन्तु ‘जम्भाला’,  ‘जरा’ और ‘कर्करी’ को लोग नहीं जानते। आइए इन्हें जानने का प्रयास करें।

‘जरा’

वास्तव में भारत का वैद्यक शास्त्र और आर्यों का आयुर्वेद, कृष्ण के काल तक परस्पर मिल कर एक हो गए थे परन्तु आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों को हेय दृष्टि से देखा जाना जारी  था और उन्हें प्रायः राक्षस या म्लेच्छ कहा जाता था। महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था। कहा जाता है कि लोगों ने  शिशु  जरासंध को षल्य क्रिया के उपरान्त मरा समझकर ष्मषान में फेक दिया था परन्तु उसी समय ‘‘जरा’’ नाम की महिला डाक्टर ने, जिन्हें राक्षस कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा जाता था, उस क्षत विक्षत  शिशु  को षल्य क्रिया से सिलकर, जोड़कर ठीक कर दिया। उस महिला डाक्टर ‘‘जरा’’ के अवदान से जीवित हुए उस  शिशु  का नाम पड़ गया जरासंध ( अर्थात जिसे  ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) । ‘जरा’ को राक्षस  कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा गया है परन्तु जरासंध इस कुल को आदर देते थे और फिर स्वयं भी राक्षसी विद्या में पारंगत  हुए। जरासंध ने तथाकथित राक्षसों के प्रति भद्रतापूर्ण और आत्मीय व्यवहार रखा और उनके संरक्षण में शल्यप्रसव, अंगारोपण आदि शल्यचिकित्सा विज्ञान के अंगों का समुचित विकास हुआ।

‘कर्करी’

राक्षस कुल में ही एक अन्य विदुषी और मेधावी शल्यचिकित्सक थी ‘कर्करी’। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि ‘सूचिकाभरण’ का ज्ञान इसी कुल की इस महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था। चिकित्सा कार्य में सुई का आविष्कार ‘कर्करी’ ने ही किया था। ‘कर्करी’ की विषेषज्ञता का अन्य क्षेत्र था हिप्नोटिज्म। हिप्नोटिज्म का सिद्धान्त है कि अधिक इच्छाषक्ति वाला व्यक्ति दूसरों की चिंतनधारा एवं कर्मशक्ति को नियंत्रित कर सकता है। इतना ही नहीं वह मनोवैज्ञानिक उपायों अथवा क्रित्रिम तरीकों से दुर्बल मन को प्रभावित कर सकता है। इसका उपयोग कर कर्करी ने शक्तिषाली मन के प्रभाव से नियंत्रित की गई शक्ति को रोग के विरुद्ध लगाकर रोग मुक्त करने का नया तरीका निकाला था। आज लोग समझते हैं कि हिप्नोटिज्म को फ्रांस के मनोचिकित्सक डाक्टर मेस्मर ने खोजा था पर यह गलत है इसका श्रेय कर्करी को मिलना चाहिये।  

‘हिडिम्बा’

संस्कृत में राक्षसी विद्या का अर्थ है सम्मोहन या हिप्नोटिज्म। इस विद्या में पारंगत अन्य महिला थीं ‘हिडिम्बा’ (भीम की पत्नी)। इस विद्या का जानकार उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है। हिडिम्बा ने अपने पुत्र ‘घटोत्कच’ को इस विद्या में पारंगत किया जिसे उन्होंने रणकौशल के रूप में प्रयुक्त किया। कृष्ण ने घटोत्कच और उसकी विद्याओं का उपयोग महाभारत में महाशक्तियों को नष्ट करने में किया। घटोत्कच और मौरवी से उत्पन्न उनका पुत्र बर्वरीक भी अपने माता पिता से यह विद्या सीखकर उसे रणकौशल के उच्चतम स्तर तक ले गया। कहा जाता है कि बर्बरीक की माता ने उससे यह वचन लिया था कि वह अपनी इस विद्या का उपयोग हमेशा कमजोर पक्ष की मदद करने में ही करेगा। कृष्ण ने स्वीकार किया था कि वह उस समय का सर्वश्रेष्ठ योद्धा है, परन्तु कौरवों की ओर से लड़ने की उसकी इच्छा को उन्होंने धर्मराज्य स्थापित करने की उनकी योजना के मार्ग में बाधा समझ कर अपने कौशल से उसे युद्ध से विरत कर दिया था। 

‘जम्भाला’

यह भी ‘जरा’ की भांति राक्षस कुल में उत्पन्न महिला शल्य चिकित्सक थी। इनका हाथ गर्भिणी महिला का प्रसव कराने में इतना सधा था कि इनके बारे में लोग कहने लगे थे कि उनका नाम ले लेने से ही प्रसव में कोई बाधा नहीं आएगी। यथा, ‘‘ अस्ति गोदावरी तीरे जम्भाला नाम राक्षसी, तस्या स्मरणमात्रेण विशल्या गर्भिणी भवेत।’’

आर्य इन तथाकथित राक्षसी विद्या में निपुण लोगों को हेय मानकर तिरस्कार करते थे। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु प्रोत्साहन के आभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्धकाल के प्रारंभ में मृत देह को स्पर्श करना या कंकाल का परीक्षण अर्थात् शवच्छेद ( डिसेक्शन) करने को बहुत ही हीन कार्य और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं। सोचिए, महाभारत काल से ही आयुर्वेद में की जा रही रिसर्च को यदि हतोत्साहित न किया जाकर प्रोत्साहन दिया जाता तो क्या वह आज की एलोपैथी से आगे न होता? आयुर्वेद के इस ह््रास के लिए कौन उत्तरदायी है?


Sunday, 16 January 2022

368 देवव्रत भीष्म का महाप्रयाण


दृढ़प्रतिज्ञ भीष्म युद्धभूमि में शरशैया पर लेटे उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थे बस, कुछ घंटे ही शेष थे। वह बिल्कुल अकेले थे। पर, अचानक उन्हें एक मधुर स्वर सुनाई दिया, ‘‘प्रणाम पितामह!’’ और उनके सूखे अधरों पर आई मुस्कुराहट ने कहा, ‘‘आओ वासुदेव! बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था’’। कृष्ण बोले, क्या कहूॅं पितामह! यह भी तो नहीं पूंछ सकता कि आप कैसे हैं!’ कुछ क्षण चुप रहने के बाद भीष्म बोले, ‘‘ पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव? उन सबका ध्यान रखना।’’ कृष्ण को चुप रहते देख वह फिर बोले, ‘‘कुछ पूछॅूं केशव? शायद, धरती छोड़ने के पहले मेरे भ्रम दूर हो जायें।’’ कृष्ण उनके अधिक समीप जा पहॅुंचे और बोले ‘‘ कहिए पितामह!’’ वे बोले, ‘‘कन्हैया यह बताओ कि इस युद्ध में जो हुआ क्या वह ठीक था?’’

‘‘किसकी ओर से कौरवों या पांडवों की ओर से’’ कृष्ण ने पूछा। 

‘‘ कौरवों के कृत्यों पर चर्चा करना तो व्यर्थ ही है पर जो भी पांडवों ने किया वह क्या सही था, जैसे आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन की जंघा पर प्रहार, दुःशासन की छाती को चीरना, जयद्रथ के साथ हुआ छल और निहत्थे कर्ण का वध आदि?’’

‘‘इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हॅूं पितामह! यह तो वही दे सकते हैं जिन्होंने यह किया है’’ कृष्ण ने बड़े भोलेपन से जबाब दिया।

‘‘पूरा विश्व भले यह कहे कि युद्ध अर्जुन और भीम ने जीता है पर मैं जानता हॅूं कि यह केवल तुम्हारी विजय है, इसलिए तुम्हीं से पूछॅूंगा, कृष्ण!’’

‘‘ तो सुनिए पितामह! कुछ भी बुरा नहीं हुआ, कुछ भी अनैतिक नहीं हुआ, वही हुआ है जो होना चाहिए था।’’

‘‘यह तुम कह रहे हो केशव?’’

‘‘इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह! कोई भी निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है। पाप का अन्त आवश्यक है वह चाहे जिस विधि से हो’’।

‘‘ तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परंपराएं निर्मित नहीं होंगी? क्या तुम्हारे छलों का अनुसरण भविष्य नहीं करेगा? और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा?’’

‘‘ भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह! कलियुग  में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा, मनुष्य को कृष्ण से भी कठोर होना होगा नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा। जब क्रूर और अनैतिक शक्तियॉं धर्म का समूल नाश करने को तुली हों तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है। उस समय तो केवल विजय ही महत्पूर्ण होती है केवल विजय। भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह!’’

‘‘ तो क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव! और यदि धर्म का नाश होना ही है तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है?’’

‘‘ सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठ जाना मूर्खता है, पितामह! ईश्वर कुछ नहीं करता, सब कुछ मनुष्य को ही करना होता है। आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न? तो बताइए कि कि मैंने इस युद्ध में स्वयं कुछ किया? सब कुछ पांडवों को ही करना पड़ा न? यही प्रकृति का विधान है।’’

भीष्म अब संतुष्ठ लग रहे थे, उनकी आंखें धीरे धीरे बंद होने लगी थीं। वे बोले, ‘‘ चलो कृष्ण इस धरती पर यह अंतिम रात्रि है कल संभवतः मुलाकात न हो, पर अपने इस भक्त पर कृपा बनाए रखना।’’

प्रणाम कर कृष्ण लौट चले पर युद्ध भूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था वह यह कि ‘‘ जब अनैतिक और क्रूर शक्तियॉं  धर्म का विनाश करने के लिये आक्रमण कर रहीं हों तो नैतिकता का पाठ पढ़ाना आत्मधाती होता है।’’


367 भीष्म और कर्ण


महाभारत के प्रख्यात चरित्र भीष्म व्यक्तिगत रूप से एक महान और दुर्जेय योद्धा थे। वे यह जानते थे कि पांडवगण धर्मावलम्बी हैं परन्तु फिर भी उन्होंने युद्ध में अनैतिक कौरव पक्ष का साथ दिया। मन से वह पांडवों की ही विजय चाहते रहे। तत्कालीन समाज की यह व्यवस्था थी कि लोग सहजनैतिकता का ही पालन किया करते थे। मनुष्य को उसकी पूर्व प्रतिज्ञाओं के अनुसार ही काम करना होता था। भीष्म ने अपने पिता को आजीवन विवाह न करने और कुरु राज्य का संरक्षण करने का वचन दिया था जिसे उन्होंने निष्ठा से निभाया। इसी से उनकी यह प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। कौरव, नीति और धर्म के विरुद्धाचरण किया करते थे लेकिन सहजनैतिकता के पालन करने के लिये ही भीष्म ने यह कहते हुए कौरवों का साथ दिया कि उन्होंने कौरवों का नमक खाया है और वे सिंहासन की रक्षा करने के लिए बचनवद्ध हैं। सहज नैतिकता का मूल्य आध्यात्मिक नैतिकता से कम हो सकता है परन्तु सहजनैतिकता मानवीय मौल नीति के अन्तर्गत आती है अतः श्रीकृष्ण भी सहजनैतिकता को बहुत महत्व देते थे।

कर्ण, कुन्ती के विवाह के पूर्व जन्म लेने वाली प्रथम संतान थे। वे थे सूर्य नामक राजा की औरसजात संतान। इसलिये वह सारथी के घर प्रतिपालित हुए लेकिन कर्ण एक आदर्शवादी व्यक्ति थे। वे कौरवों के सबसे अधिक विश्वसनीय थे। भीष्म के चरित्र के साथ उनका मेल था जैसे, किसी ने एक बार उनका उपकार किया तो कर्ण कभी भी उसके विरुद्ध आचरण नहीं किया करते थे। कर्ण भी सहजनैतिकता को ही मानते थे। आध्यात्मिक नैतिकता को मानने में बन्धुविच्छेद की संभावना होने से प्रायः ही लोग उसे भूल जाते हैं । लेकिन यह देखा जाता है कि अन्त में आध्यात्मिक नैतिकता ही जययुक्त होती है। दुर्नीतिग्रस्त व्यक्ति का समर्थन करना कभी भी उचित नहीं माना जा सकता। पितामह भीष्म ने कौरवों का नमक खाया था इसलिए कौरवों का पक्ष लिया। उन्होंने दुर्योधन के मनोभाव को परिवर्तन करने के लिए उपदेश भी दिया, परन्तु दबाव नहीं डाला। कर्ण भी कौरवों के उपकारों से दबे थे, नीतिवादी होने बाद भी उन्होंने दुर्योधन को समझाया तक नहीं। यदि भीष्म/ द्रोण / कर्ण आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करते तो दुर्योधन से कह सकते थे कि देखो दुर्योधन! तुम्हारा नमक खाया है, तुम्हारे बहुत उपकार हैं, इसीलिये समझा रहा हॅूं कि अनैतिक काम करना बंद करो नहीं तो मैं तुम्हारा साथ नहीं दूॅंगा। परन्तु सहजनैतिकता के प्रभाव में वे यह नहीं कह सके।

आन्तरिकता और भक्ति के मामले में भीष्म के बराबर कोई नहीं था किन्तु साहसिकता के मामले में कर्ण महत्तर थे। गुरु के शाप के कारण जब उनका रथ युद्धक्षेत्र में धस गया तो वे चाहते तो शत्रु से संधी का प्रस्ताव दे सकते थे, किन्तु कर्ण ने इस प्रकार का अनुरोध नहीं किया। यद्यपि कर्ण ने श्रीकृष्ण के द्वारा समर्थित पांडवों के विरुद्ध लड़ाई की परन्तु मृत्यु के पूर्व उन्होंने कृष्ण का नाम लेकर ही प्राण त्यागे। कर्ण का चरित्र सर्वश्रेष्ठ माना जाता यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता के स्थान पर सहजनैतिकता को अधिक महत्व न देते। जैसे, कर्ण के पास आशीर्वादी कवच और कुंडल जब तक रहते उन्हें कोई मार नहीं सकता था परन्तु दानवीरता की सहजनैतिकता के पालन में याचक को पहचान लेने बाद भी कि यह हमारे कवच और कुंडल मांगने नहीं वरन् मृत्यु ही मांगने आया है, तत्काल अपने कवच और कुंडल दान में दे दिये। यदि आध्यात्मिक नैतिकता का पलन करते होते तो कह सकते थे कि विप्र! अभी तो मैं युद्ध में जा रहा हॅूं शाम को आकर कवच और कुंडल ले जाना। इसी प्रकार गुरु परशुराम के आश्रम में शिक्षा लेते समय जब गुरु उसकी जांघ पर सिर रखे गहरी नीद में थे, उसे एक घातक कीड़े ने इतना काटा कि जांघ से खून बह निकला परन्तु गुरु की नींद न भंग हो जाए इसलिए कर्ण ने उफ् तक न की। यह कर्ण की सहनशीलता और सहजनैतिकता की पराकाष्ठा ही कहलाएगी।

कर्ण और भीष्म की तुलना कर यह कह पाना बड़ा कठिन है कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है परन्तु इतना निश्चित है कि कर्ण सहजनैतिकता में आदर्श हैं। दोनों में एक अन्तर यह भी है कि जहॉं कर्ण सामाजिक रूप से किसी राज्य के राजा के रूप में जाने जाते थे वहीं भीष्म थे केवल किसी राज्य के रक्षक।


Thursday, 6 January 2022

366 आचार्य द्रोण

 भरद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण ने वेदों की शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की परन्तु ब्राह्मण होते हुए भी शस्त्र विद्या में पारंगत होने के पीछे एक घटना है। उस समय के सर्वश्रेष्ठ शस्त्रास्त्र विशेषज्ञ थे भृगुवंशीय अजेय योद्धा परशुराम। कहा जाता है कि उन्होंने 21 बार क्षत्रियों को नष्ट कर दिया था परन्तु शोधकर्ता इस बात पर एकमत नहीं हैं। अन्त में वैराज्ञ उत्पन्न होने पर उन्होंने अपनी अर्जित सभी धन सम्पत्ति बाह्मणों को दान कर दी। दान पाने की इच्छा से द्रोण, परशुराम के पास जबतक पहुँचे तबतक उनका सभी धन दान में दिया जा चुका था। परशुराम ने कहा ‘‘धन तो बचा नहीं तुम चाहो तो मेरे अस्त्र शस्त्र ले जा सकते हो।’ द्रोण ने कहा ‘‘भगवन्! मैं तो विप्रपुत्र हॅूं इन अस्त्र शस्त्रों का मैं क्या करूंगा जब तक कि इन्हें उचित प्रकार से चलाना नहीं जानता हॅूं। यदि आप कृपाकर उनके संचालन और नियंत्रण करने का प्रशिक्षण दे दें तो मैं इन्हें स्वीकार कर सकता हॅूं और अन्य योग्यता धारक व्यक्तियों को सिखा कर अपनी आजीविका का साधन बना सकता हॅूं।’’ परशुराम जी ने सहमत होकर उन्हें अपनी सभी प्रकार की अस्त्रशस्त्र विद्याएं सिखाकर उन्हें पारंगत कर दिया इस प्रकार उनके शस्त्रगुरु हुए भगवान परशुराम। अपनी शस्त्रविद्या और ज्ञानकौशल से उन्हें कौरव और पांडवों को शास्त्र और शस्त्रविद्या दोनों सिखाने का कार्य मिला और वह द्रोणाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।

शिक्षक का कर्तव्य है सभी छात्रों को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा देना। शास्त्र भी कहते हैं कि ‘आचार्य’ वह है जो अपने स्वयं के आचरण से पूरे समाज को शिक्षा दे, ‘‘ आचरणात् शिक्षति यः सः आचार्यः।’’ द्रोणाचार्य अजेय थे फिर भी उनकी पराजय होने के पीछे यही कहा जाता है कि उन्होंने अपने शिष्यों के साथ पक्षपात किया था। यद्यपि अर्जुन को वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे परन्तु जब अर्जुन बड़े योद्धा के रूप में समाज में मान्यता पाने लगा तब वे अपने पुत्र अश्वत्थामा को गुप्त रूप से कुछ विशेष विद्याओं का ज्ञान करा दिया करते थे। इसी प्रकार अन्य बात जो सर्वविदित है वह है एकलव्य के संबंध में। एकलव्य द्रोणाचार्य का अनन्य भक्त था परन्तु जब द्रोण को यह मालूम हुआ कि वह शूद्र कुल का है तो उन्होंने उसे शिष्य के रूप में ग्रहण नहीं किया। कर्ण के संबंध में भी कहा जाता है कि निम्न कुल का होने के करण द्रोण ने उसे अपना शिष्य नहीं बनाया। आचार्य के लिये इस प्रकार का व्यवहार करना पूर्णतः अनुचित है। 

सभी लोग आचार्य होने की योग्यता नहीं रखते हैं। आचार्य के लिये पक्षपात का दोष एक मारात्मक  अपराध है। एकलव्य, अर्जुन तथा अश्वत्थामा दोनों की तुलना में धनुर्विद्या में अधिक श्रेष्ठ थे। द्रोणाचार्य ने जब उसके पास जाकर उसके कृतित्व को देखा तो  चकित रह गए। पूछने पर उसने अपने सरल मन से बता दिया कि द्रोणाचार्य को ही अपना आचार्य मानकर उसने इतनी दक्षता अर्जित की है तो पक्षपात की पराकाष्ठा देखिए कि गुरुदक्षिणा के नाम पर उसका अंगूठा ही मांग लिया और एक निष्ठावान योद्धा का जीवन क्षण भर में नष्ट कर दिया। इस प्रकार शस्त्रोक्त आचार्य की परिभाषा के अनुसार गुरु द्रोण आचार्य पद के योग्य प्रमाणित नहीं होते। शिष्यों के बीच वैषम्यमूलक आचरण के कारण द्रोणाचार्य, गुरु के रूप में आदर्श नहीं थे। लोक शिक्षण और सामाजिक पवित्रता की दृष्टि से ही ऐसे आचार्य को समाज से हटाने का प्रयोजन हुआ और कृष्ण ने अपनी कूटनीति का भावालम्बन करके कौशल पूर्वक युधिष्ठिर से कहलाया, ‘अश्वत्थामा हतो इति नरो वा कुंजरो वा’ और युद्ध में उनका अन्त हुआ।

Saturday, 1 January 2022

365 युधिष्ठिर


युधिष्ठिर अर्थात् जो व्यक्ति युद्ध जैसी परिस्थितियों में भी मानसिक रूप से स्थिर रहता है, उद्वेलित नहीं होता है वह युधिष्ठिर है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अनगिनत ब्लेक होल, गेलेक्सियां, तारे और उल्काएं लगातार उत्पात मचाते रहते हैं परन्तु आकाश  अर्थात्स्पेसकिसी भी प्रकार से उद्वेलित नहीं होता वह सदा ही एकरस बना रहता है इसलिए वह युधिष्ठर है। विद्यातन्त्र में पांचों पांडवों को पंचतत्व का रूपक दिया गया है, इसके अनुसार युधिष्ठिर आकाश  तत्व को प्रदर्शित करते  हैं। महाभारत में युधिष्ठिर  से नीति धर्म और दर्शन से संबंधित  अनेक प्रश्न  पूछने वाले यक्ष ने जब यह पूछा कि धर्मतत्व का सही सही मार्गदर्शन  करने वाला रास्ता कौन सा है? तब युधिष्ठिर ने कहा, इसमें बड़ा ही कन्फ्युजन है क्योंकि यदि श्रुतियों के रास्ते को माने तो वे चार चार हैं उनमें से किसके अनुसार चलें यह कहना कठिन है क्योंकि उनमें एकरूपता नहीं है। यदि स्मृतियों पर विचार करें तो यही विरोधाभास उनमें भी है और इतना ही नहीं जिन्हें हम आदर्श मार्गदर्शक   मानते हैं उन ऋषिमुनिगणों में भी किन्हीं दो महानुभावों का सिद्धान्त एकसमान नहीं पाया जाता है। इसलिए मेरे विचार में तो सही रास्ता वही है जिसका अनुसरण करते हुए अनेक लोग साधारण अवस्था से ऊपर उठकर महापुरुषों के रूप में समाज में आज भी आदर पाते हैं। इस प्रकार युधिष्ठिर को महान नीतिनिपुण और विद्वान माना जाता है।

युधिष्ठिर, कृष्ण के परामर्श और आदेश के अनुसार ही कार्य करते थे। जैसे, युद्ध में जब अश्वत्थामा नामक हाथी को भीम ने मार दिया तब दोनों पक्षों के सैनिकों में हल्ला होने लगा कि अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र का भी नाम था जिसे वे अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम करते थे। कृष्ण यह जानते थे कि द्रोण को युद्ध में पराजित करना असंभव है पर पुत्र के वियोग में वे क्षण भर भी जीवित नहीं रहेंगे। युधिष्ठिर की सर्वविदित विशेषता यह थी कि वे सदा सत्य बोलते थे। आचार्य द्रोण को जब यह पता चला कि अश्वत्थामा मारा गया है तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। कन्फर्म करने के लिए उन्होंने युधिष्ठिर से व्यक्तिशः इसे जानना चाहा कि सही क्या है। उन्होंने कृष्ण से परामर्श लिया, वे बोले ^^अश्वत्थामा हतः इति नरो वा कुंजरो वा।** अर्थात् अश्वत्थामा मारा गया है पर वह नर है या कुंजर(हाथी) यह पता नहीं है। युधिष्ठिर ने इसे ज्यों का त्यों दुहराया और उनके नरो बोलते ही कृष्ण ने जोर से अपना शंख बजाया,  अन्य सैनिक भी जोर जोर से जयघोष करने लगे, द्रोणाचार्य ” वा कुजरो वाइन शब्दों को सुन ही पाये और अपने प्राण त्याग दिये।

युधिष्ठिर के चरित्र पर विद्वान प्रायः यह लांछन लगाते हैं कि वह इतने विद्वान होते हुए भी जुआ जैसे निंदनीय कार्य में प्रवृत्त हुए यह उचित नहीं। इसके साथ ही यह भी कि उनका अधिकार केवल राज्य को दाव पर लगा सकने का था कि अपनी पत्नी और अन्य भाइयों को, अतः यह उनके चरित्र का सबसे बड़ा कलंक है। इसका समाधान यह है कि तात्कालिक राजनीति के नियमों के अनुसार यदि किसी राज्य का राजा किसी दूसरे राजा को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित करे तो वह इस आमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता था। पर यह बात सही है कि उन्हें यह तो ध्यान रखना था कि उनका राज्याधिकार कितना और कहॉं तक है। इस पर यही बात सिद्ध होती है कि जब छल कपट का जाल बिछा हो और जुए का सम्मोहन हो वहॉं विद्वान भी भ्रमित हो जाते हैं। युधिष्ठिर भी भ्रमित हुए, जुए के आमंत्रण पर उन्होंने कृष्ण से परामर्श नहीं लिया, यदि वे उनसे इस संबंध में पूछ ही लेते तो पता चल जाता कि दुर्योधन  ने कृष्ण को तो आमंत्रित ही नहीं किया और वे उसकी कपट चाल में फंसने से बच जाते। दूसरी बात यह कि यदि दुर्योधन  ने अपनी ओर से चाल चलने के लिये कपटी मामा शकुनि को अधिकृत किया था तो युधिष्ठिर भी अपनी ओर से कृष्ण को  चाल चलने की शर्त रख सकते थे परन्तु वह नहीं परख सके कि वे कपटजाल में फंसाये जा रहे हैं।  इससे ही विधि के विधान को घटित होने का रास्ता खुला और फिर क्या क्या नहीं हुआ यह बताने की आश्यकता नहीं है पर यह सभी को पता है कि हर स्थिति में युधिष्ठिर अपने मन को संतुलित बनाए रखे और उन्होंने शास्त्रोक्त इस परिभाषा के अनुरूप अपने को सिद्ध किया, ‘‘युद्धे स्थिरः यः सः युधिष्ठिरः” । महाभारत की इसी घटना से शिक्षा लेकर संत कबीर जी ने कहा है,” कहे कबीर अंत की बारी हाथ झारि के चले जुआरी।”